महात्मा नारायण स्वामी के जीवन का कर्मफल की चर्चा से जुड़ा एक पठनीय संस्मरण”
ओ३म्
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वयोवृद्ध वैदिक विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की लघु पुस्तक ‘तपोवन महात्मा नारायण स्वामी’ का अध्ययन करते हुए इसके पृष्ठ 45 पर एक महत्वपूर्ण प्रसंग सम्मुख उपस्थित हुआ है। इसे हम पाठकों के अवलाकन हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं। आगामी 15 अक्टूबर को महात्मा नारायण स्वामी जी की 75 वीं पुण्यतिथि है। इस अवसर पर उनको हमारी यह श्रद्धांजलि है। प्रा. जिज्ञासु जी लिखते हैं:-
महात्मा नारायण स्वामी जी का लाहौर में एक आपरेशन हुआ। तब पं0 गंगाप्रसाद जी उपाध्याय उनके स्वास्थ्य का पता करने प्रयाग से लाहौर आए। प्रभु-भक्तों का व्यवहार बहुत अनूठा ही होता है। महात्मा जी उपाध्याय जी के आने से बहुत प्रसन्न हुए। अपने शरीर के दुःख-कष्ट की वार्ता सुनाने की बजाय आपने पूज्य पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय सरीखे दिग्गज दार्शनिक विद्वान् के सत्संग का लाभ उठाने की सोची। महात्मा जी ने उपाध्याय जी से कहा, ‘‘पण्डित जी! मै जीवन-भर बहुत फूंक-फूंक कर चला। पाप से बचने का ही सदा यत्न किया, फिर भी यह रोग न जाने किस भूल के कारण हुआ?’’ उपाध्याय जी ने उस स्थिति में महात्मा जी के इस दार्शनिक प्रश्न का विवेचन करना उचित न समझा। लोकाचार की दृष्टि से यह कहकर उनके प्रश्न को एक प्रकार से टाल ही दिया कि यह रोग आपके किन्हीं कर्मों अथवा भूल के कारण नहीं हुआ है। इसके लिए तो हमी दोषी हैं जिन्होंने आपके बुढ़ापे का ध्यान न करके भी आपको सिंध में सत्यार्थप्रकाश पर प्रतिबन्ध हटवाने के आन्दोलन में झोंक दिया। आपका शरीर कार्य का इतना बोझ नहीं सह सका।
दोनों महापुरुषों के इस संक्षिप्त वार्तालाप से दो बातें स्पष्ट हैं।
(1) प्रायः लोग वैदिक सिद्धान्तों को न समझकर अंधविश्वासों व गुरुडम के जाल में फंसे रहते हैं। ईश्वर की कर्मफल-सिद्धान्त की व्यवसथा में विश्वास न होने से दुःख, रोग व विपत्ति के आने पर सदा यह कहते हैं कि हमने तो कभी कोई पाप या भूल नही की, पता नहीं विधाता ने यह कष्ट क्यों दिया। इसके विपरीत वैदिक दृष्टिकोण कार्य-कारण सिद्धान्त (Law of causation) पर आधारित होने से सुस्पष्ट है कि मेरे दुःखों का कारण मेरी ही कोई भूल है। बिना कारण के कार्य कैसे सम्भव है?
महात्मा नारायण स्वामी जी ने जब यह चर्चा छेड़ी तो उनके मस्तिष्क में निश्चित रूप से महर्षि दयानन्द जी महाराज का यह वाक्य घूम रहा था, ‘‘रोग का बढ़ना अपने पापों से है।” (सत्यार्थप्रकाश, चतुर्दश समुल्लास, समीक्षा-संख्या 6)
कुछ बीज ऐसे होते हैं जो एक-डेढ़ मास में फल देने लगते हैं, कुछ पांच-छः मास में, कुछ तीन वर्ष के पश्चात् और कुछ बहुत वर्षों के बाद फल देते हैं। ऐसे ही जीव के कर्म भी समय-समय पर पकते व फल देते हैं। यह हमारा सबका प्रतिदिन का अनुभव है। महात्मा जी की सरलता व महानता इसी में है कि वे अपने दुःख का कारण अपने ही किए हुए कर्मों को मानते हैं। ईश्वर पर दोषारोपण नहीं करते।
(2) महात्मा जी ने कहा कि ‘मैं जीवन-भर फूंक-फूंककर पग उठाता रहा। सदा बुराई से बचने का ही यत्न किया।’ उनकी आत्मा-कथा का एक-एक पृष्ठ इस कथन की सच्चाई की पुष्टि करता है। (यह आत्मकथा हितकारी प्रकाशन समिति, ब्यानिया पाडा, हिण्डोनसिटी से उपलब्ध है और प्राप्त की जा सकती है।) उनके (महात्मा जी के) सम्पर्क में आने वाले भी इस बात की पुष्टि करते हैं और सरकार का रिकार्ड भी यही प्रमाणित करता है। धार्मिकता भी तो यही है कि व्यक्ति विश्वासपूर्वक कह सके कि मैंने सदा पाप से बचने का यत्न किया है। आज तो हम पग-पग पर क्या राजनीति में व क्या शिक्षणालयों में, स्पष्ट देखते हैं कि आज जिन्हें बुरा, कुटिल, ठग व पापी कहा जाता है, धन के थोड़े-से लोभ में, कोठी-कार आदि पाकर लोग उन्हीं के भाट बन जाते हैं। लोग आज पेट से ही सोचते, सूंघते व देखते हैं।
महापुरुषों की आत्मकथाओं व जीवन चरितों को पढ़ने से पाठक को बहुत लाभ होता है। इन ग्रन्थों में विद्वानों वा महापुरुषों के जीवन के आरम्भ से जीवन के उत्तर भाग वा अन्त तक की जीवन-उन्नति का वर्णन होता है। इसे पढ़कर अध्ययनकर्ता को प्रेरणायें प्राप्त होती हैं। हम समझते हैं कि आर्य पाठकों को स्वाध्याय करते हुए वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति सहित विद्वानों के लिखे हुए सैद्धान्तिक व इतर ग्रन्थों सहित प्रमुख विद्वानों व महापुरुषों की आत्म-कथाओं व जीवन चरितों को भी पढ़ना चाहिये। इससे उन्हें बहुत लाभ होगा। ऐसा करने से वह बहुत से अहितकारी कर्मों से बचने के साथ उत्तम-कर्मों की प्रेरणा प्राप्त कर अपने जीवन को वैदिक मान्यताओं के अनुरूप बना सकते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य