जब अंग्रेजों ने डॉ हेडगेवार को डाला था जेल में, भाग -1
कांग्रेस लाने वाली थी क्रांतिकारियों के लिए निंदा प्रस्ताव
लगता है पूर्व में की गयी भविष्यवाणियां धीरे-धीरे सत्यापित होने जा रही है, जिसका अनेक बार अपने लेखों में चर्चा करता रहा हूँ। खैर, कांग्रेस, वामपंथियों और इनके समर्थक छद्दम धर्म-निरपेक्षों ने भारत के जिस वास्तविक इतिहास को धूमिल कर अपना ही गुणगान किया जा रहा था। लेकिन अब वास्तविक इतिहास उजागर होना शुरू हो गया है। डॉ मनमोहन वैद्य RSS के सह सर कार्यवाह (Joint General Secretary) का निम्न लेख उस पर रौशनी डाल रहा है। इस सन्दर्भ में स्मरण लगभग 40 वर्ष पूर्व पढ़ा लेख, जिसमें पाकिस्तान के बहुचर्चित समाचारपत्र Dawn का जिक्र था। विभाजन उपरांत Dawn ने प्रकाशित किया था कि अगर आरएसएस 20 साल पहले हो गया होता, पाकिस्तान कभी नहीं बनता। इतना ही नहीं, एक बार किसी समारोह में जब नेताजी तिरंगा फहरा रहे थे, झंडा पोल पर ही अटक गया, तब संघ संस्थापक डॉ केशवराम बलिराम हेडगेवार ने ही पोल पर चढ़कर फंसे झंडे को निकाला, तब जाकर नेताजी तिरंगा फहराने में सफल हुए थे।
कुछ समय पूर्व एक पत्रकार मिलने आए। बात-बात में उन्होंने पूछा कि स्वतंत्रता आंदोलन में RSS का सहभाग क्या था? शायद वे भी संघ के खिलाफ चलने वाले असत्य प्रचार के शिकार थे। मैंने उनसे प्रतिप्रश्न किया कि आप स्वतंत्रता आंदोलन किसको मानते हैं? वे इसके लिए तैयार नहीं थे। कुछ बोल ही नहीं सके। फिर धीरे से शंकित स्वर में उन्होंने कहा, “वही जो महात्मा गाँधी जी ने किया था।” मैंने पूछा क्या लाल, बाल, पाल त्रिमूर्ति का कोई योगदान नहीं था? क्या सुभाष बाबू की कोई भूमिका स्वतंत्रता आंदोलन में नहीं थी? वे चुप थे।
फिर मैंने पूछा कि गाँधी जी के नेतृत्व में कितने सत्याग्रह हुए? वे अनजान थे। मैंने कहा कि तीन हुए- 1921, 1930 और 1942। उन्हें जानकारी नहीं थी। मैंने कहा संघ संस्थापक डॉ हेडगेवार ने (उनकी मृत्यु 1940 में हुई थी) संघ की स्थापना से पहले (1921) और बाद के (1930) सत्याग्रह में भाग लिया था और उन्हें कारावास भी सहना पड़ा। यह घटना इसलिए कही कि एक योजनाबद्ध तरीके से आधा इतिहास बताने का एक प्रयास चल रहा है।
भारत के लोगों को ऐसा मानने के लिए बाध्य किया जा रहा है कि स्वतंत्रता केवल कांग्रेस के और 1942 के सत्याग्रह के कारण मिली है। और किसी ने कुछ नहीं किया। यह बात पूर्ण सत्य नहीं है। गाँधी जी ने सत्याग्रह के माध्यम से, चरखा और खादी के माध्यम से सर्व सामान्य जनता को स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागी होने का एक सरल एवं सहज तरीका, साधन उपलब्ध कराया। लाखों की संख्या में लोग स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ सके, यह बात सत्य है। परन्तु सारा श्रेय एक ही आंदोलन या पार्टी को देना यह इतिहास से खिलवाड़ है, अन्य सभी के प्रयासों का अपमान है।
अब संघ की बात करनी है तो डॉ हेडगेवार से ही करनी पड़ेगी। केशव(हेडगेवार) का जन्म 1889 का है। नागपुर में स्वतंत्रता आंदोलन की चर्चा 1904-1905 से शुरू हुई। उसके पहले अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन का बहुत वातावरण नहीं था। फिर भी 1897 में रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के हीरक महोत्सव के निमित्त स्कूल में बाँटी गई मिठाई 8 साल के केशव ने ना खाकर कूड़े में फेंक दी। यह था उसका अंग्रेजों के गुलाम होने का गुस्सा और चिढ़।
1907 में रिस्ले सेक्युलर नाम से ‘वंदे मातरम्’ के सार्वजनिक उद्घोष पर पाबंदी का जो अन्यायपूर्ण आदेश घोषित हुआ था, उसके विरोध में केशव ने अपने नील सिटी विद्यालय में सरकारी निरीक्षक के सामने अपनी कक्षा के सभी विद्यार्थियों द्वारा ‘वन्दे मातरम्’ उद्घोष करवा कर विद्यालय के प्रशासन का रोष और उसकी सजा के नाते विद्यालय से निष्कासन भी मोल लिया था। डॉक्टरी पढ़ने के लिए मुंबई में सुविधा होने के बावजूद क्रांतिकारियों का केंद्र होने के नाते उन्होंने कलकत्ता को पसंद किया। वहाँ वे क्रांतिकारियों की शीर्षस्थ संस्था ‘अनुशीलन समिति’ के विश्वासपात्र सदस्य बने थे।
1916 में डॉक्टर बनकर वे नागपुर वापस आए। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन के सभी मूर्धन्य नेता विवाहित थे, गृहस्थ थे। अपनी गृहस्थी के लिए आवश्यक अर्थार्जन का हरेक का कोई न कोई साधन था। इसके साथ-साथ वे स्वतंत्रता आंदोलन में अपना बहुमूल्य योगदान दे रहे थे। डॉक्टर हेडगेवार भी ऐसा ही सोच सकते थे। घर की परिस्थिति भी ऐसी ही थी। परन्तु उन्होंने डॉक्टरी एवं विवाह नहीं करने का निर्णय लिया। उनके मन में स्वतंत्रता प्राप्ति की इतनी तीव्रता और ‘अर्जेंसी’ थी कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन का कोई विचार न करते हुए अपनी सारी शक्ति, समय और क्षमता राष्ट को अर्पित करते हुए स्वतंत्रता के लिए चलने वाले हर प्रकार के आंदोलन से अपने आपको जोड़ दिया।
लोकमान्य तिलक पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी। तिलक के नेतृत्व में नागपुर में होने जा रहे 1920 के कांग्रेस अधिवेशन की सारी व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी डॉ हर्डीकर और डॉ हेडगेवार को दी गई थी और उसके लिए उन्होंने 1200 स्वयंसेवकों की भर्ती करवाई थी। उस समय डॉ हेडगेवार कांग्रेस की नागपुर शहर इकाई के संयुक्त सचिव थे। उस अधिवेशन में पारित करने हेतु कांग्रेस की प्रस्ताव समिति के सामने डॉ हेडगेवार ने ऐसे प्रस्ताव का सुझाव रखा था कि कांग्रेस का उद्देश्य भारत को पूर्ण स्वतंत्र कर भारतीय गणतंत्र की स्थापना करना और विश्व को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त करना होना चाहिए।
सम्पूर्ण स्वातंत्र्य का उनका सुझाव कांग्रेस ने 9 वर्ष बाद 1929 के लाहौर अधिवेशन में स्वीकृत किया। इससे आनंदित होकर डॉक्टर जी ने संघ की सभी शाखाओं में (संघ कार्य 1925 में प्रारंभ हो चुका था) 26 जनवरी, 1930 को कॉन्ग्रेस का अभिनंदन करने की सूचना दी थी। नागपुर तिलकवादियों का गढ़ था। 1 अगस्त, 1920 को लोकमान्य तिलक के देहावसान के कारण नागपुर के सभी तिलकवादियों में निराशा छा गई। बाद में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस का स्वतंत्रता आंदोलन चला।
असहयोग आंदोलन के समय, 1921 में, साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के सामाजिक आधार को व्यापक करने की दृष्टि से, अंग्रेजों द्वारा तुर्किस्तान में खिलाफत को निरस्त करने से आहत मुस्लिम मन को अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन के साथ जोड़ने के उद्देश्य से महात्मा गाँधी ने खिलाफत का समर्थन किया। इस पर कांग्रेस के अनेक नेता तथा राष्ट्रवादी मुस्लिमों को आपत्ति थी। इसलिए, तिलकवादियों का गढ़ होने के कारण नागपुर में असहयोग आंदोलन बहुत प्रभावी नहीं रहा।
परन्तु डॉ हेडगेवार, डॉ चोलकर, समिमुल्ला खान आदि ने यह परिवेश बदल दिया। उन्होंने खिलाफत को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने पर आपत्ति होते हुए भी उसे सार्वजनिक नहीं किया। इसी मापदंड के आधार पर साम्राज्यवाद का विरोध करने के लिए उन्होंने तन-मन-धन से आंदोलन में सहभाग लिया। व्यक्तिगत सामाजिक संबंधों से अलग हटकर उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रीय परिस्थिति का विश्लेषण किया और आसपास के राजनीतिक वातावरण एवं दबंग तिलकवादियों के दृष्टिकोण की चिंता नहीं की।
उन पर चले राजद्रोह के मुकदमे में उन्हें एक वर्ष का कारावास सहना पड़ा। वे 19 अगस्त, 1921 से 11 जुलाई, 1922 तक कारावास में रहे। वहाँ से छूटने के बाद 12 जुलाई को उनके सम्मान में नागपुर में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन हुआ था। समारोह में प्रांतीय नेताओं के साथ-साथ कांग्रेस के अन्य राष्ट्रीय नेता हकीम अजमल खाँ, पंडित मोतीलाल नेहरू, राजगोपालाचारी, डॉ अंसारी, विट्ठल भाई पटेल आदि डॉ हेडगेवार का स्वागत करने के लिए उपस्थित थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति का महत्व तथा प्राथमिकता को समझते हुए भी एक प्रश्न डॉ हेडगेवार को सतत् सताता रहता था कि, 7000 मील से दूर व्यापार करने आए मुट्ठी भर अंग्रेज, इस विशाल देश पर राज कैसे करने लगे? जरूर हममें कुछ दोष होंगे। उनके ध्यान में आया कि हमारा समाज आत्म-विस्मृत, जाति प्रान्त-भाषा-उपासना पद्धति आदि अनेक गुटों में बँटा हुआ, असंगठित और अनेक कुरीतियों से भरा पड़ा है जिसका लाभ लेकर अंग्रेज यहां राज कर सके।
स्वतंत्रता मिलने के बाद भी समाज ऐसा ही रहा तो कल फिर इतिहास दोहराया जाएगा। वे कहते थे कि ‘नागनाथ जाएगा तो साँपनाथ आएगा’। इसलिए इस अपने राष्ट्रीय समाज को आत्मगौरव युक्त, जागृत, संगठित करते हुए सभी दोष, कुरीतियों से मुक्त करना और राष्ट्रीय गुणों से युक्त करना अधिक मूलभूत आवश्यक कार्य है और यह कार्य राजनीति से अलग, प्रसिद्धि से दूर, मौन रहकर सातत्यपूर्वक करने का है, ऐसा उन्हें प्रतीत हुआ।
उस हेतु 1925 में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। संघ स्थापना के पश्चात भी सभी राजनीतिक या सामाजिक नेताओं, आंदोलन एवं गतिविधि के साथ उनके समान नजदीकी के और आत्मीय संबंध थे। 1930 में गाँधी के आह्वान पर सविनय अवज्ञा आंदोलन 6 अप्रैल को दांडी (गुजरात) में नमक सत्याग्रह के नाम से शुरू हुआ। नवम्बर 1929 में ही संघचालकों की त्रिदिवसीय बैठक में इस आंदोलन को बिना शर्त समर्थन करने का निर्णय संघ में हुआ था।
इंडिया फर्स्ट से साभार