जल आंदोलन के प्रणेता सच्चिदानन्द भारती: आधुनिक वराहमिहिर
लेखक:- डॉ. मोहन चंद तिवारी
(12मार्च,2014 को ‘उत्तराखंड संस्कृत अकादमी’, हरिद्वार द्वारा ‘आई आई टी’ रुड़की में आयोजित विज्ञान से जुड़े छात्रों व जलविज्ञान के अनुसंधानकर्ता विद्वानों के समक्ष मेरे द्वारा दिए गए वक्तव्य ‘प्राचीन भारत में जलविज्ञान‚जलसंरक्षण और जलप्रबंधन’ से सम्बद्ध ‘भारतीय जलविज्ञान’ पर संशोधित लेख का सार)
वृक्षों, वनस्पतियों द्वारा भूमिगत जल नाड़ियों को सक्रिय करते हुए केवल तीन दशकों में ही सात सौ हेक्टेयर हिमालय भूमि पर जंगल उगाने और तीस हजार तालाब पुनर्जीवित करने वाले ‘पाणी राखो’ आंदोलन के प्रणेता उत्तराखण्ड के सच्चिदानन्द भारती को यदि आधुनिक वराहमिहिर की संज्ञा दी जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी.
उत्तराखण्ड के दूधातोली क्षेत्र में सच्चिदानन्द भारती ने प्राचीन जलवैज्ञानिक वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ की भूमिगत जलान्वेषण की तकनीकों द्वारा बंजर पड़ी हुई 35 गांवों की जमीन में सात हजार ‘चालों’ का निर्माण करके जल संकट की समस्या के समाधान का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया है. सूख चुके तीन धारों और पांच नौलों को सच्चिदानन्द भारती ने जल जलसंरक्षण अभियान के तहत सक्रिय किया और सदियों से सूखी नदी में गर्मी के दिनों में भी 3 लीटर प्रति मिनट का जल बहाव पैदा किया.हम इस लेख के माध्यम से उन आधुनिक जल वैज्ञानिकों और ‘केन्द्रीय भूजल आयोग’ तक भी यह बात पहुंचाना चाहते हैं कि यदि देश की जल समस्या का समाधान खोजना है तो प्राचीन भारतीय जलविज्ञान की ओर पुनःलौटना होगा.
देश के अन्य प्रान्तों की भांति उत्तराखण्ड भी अंध विकासवादी जल प्रबंधन नीतियों के कारण आज एक भीषण जल संकट के दौर से गुजर रहा है. हिमालय पर्वत से प्रवाहित होने वाली नदियों एवं वहां के ग्लेशियरों से पिघलने वाले जलस्रोतों के द्वारा ही उत्तराखण्ड हिमालय के निवासियों की जलापूर्ति होती आई है. किंतु वनों की अंधाधुन्ध कटाई तथा जलाशयों के निकट पक्की सड़कों के निर्माण के कारण उत्तराखण्ड के पारम्परिक जलस्रोत आज सूखते जा रहे हैं.
जलप्रबन्धन के केन्द्रीकरण और सरकारीकरण के कारण भी ग्राम पंचायतों एवं सामुदायिक भागीदारी की गतिविधियों में कमी आने लगी जिसके परिणामस्वरूप उत्तराखण्ड की जलसमस्या दिन प्रतिदिन गम्भीर होती गई.समूचे क्षेत्र में अन्धाधुंध विकास की योजनाओं के कारण भी स्वतः स्फूर्त होने वाले हिमालय के प्राकृतिक जलस्रोत सूखते चले गए तथा भूगर्भीय जलस्तर में भी गिरावट आने लगी.
भारत के आचार्य वराहमिहिर आदि प्राचीन जलवैज्ञानिकों का मानना है कि नदियों एवं प्राकृत जलस्रोतों में जल की पर्याप्त उपलब्धि हेतु वनक्षेत्रों का संवर्धन एवं परिपोषण अत्यावश्यक है ताकि भूस्तरीय जलविभाजक एवं सूक्ष्म जल विभाजक जल निकायों की भूमिगत जल नाड़ियाँ सक्रिय हो सकें.आज से 1500 वर्ष पूर्व हुए वराहमिहिर ने रेगिस्तान जैसे निर्जल प्रदेशों में भूमिगत जलस्रोतों को खोजने के नए नए उपाय बताए, उन्हीं उपायों द्वारा समूचे भारत में कूप, तालाब, नदी सरोवर के भूमिगत जल की विशेष सुरक्षा और संरक्षण किया जाता रहा है.परम्परागत शैली के कूप, तडाग, सरोवर आदि जलाशयों के कारण भारत का प्रत्येक गांव और नगर जल की आपूर्ति की दृष्टि से यदि आत्मनिर्भर बना रहा तो उसका श्रेय वराहमिहिर के जल विज्ञान को ही दिया जा सकता है.
प्राचीन भारतीय जल विज्ञान की इसी परंपरा को वृक्षों,वनस्पतियों द्वारा भूमिगत जल नाड़ियों को सक्रिय करते हुए केवल तीन दशकों में ही सात सौ हेक्टेयर उत्तराखंड हिमालय की भूमि पर जंगल उगाने, तीस हजार से भी ज्यादा चाल, खाल और तालाब और अनेक सूखे गाड़ गधेरों को पुनर्जीवित करने वाले उत्तराखण्ड के जलपुरुष सच्चिदानन्द भारती को यदि आधुनिक वराहमिहिर संज्ञा दी जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी.
गौरतलब है कि उत्तराखण्ड के दूधातोली क्षेत्र में सच्चिदानन्द भारती को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने ‘वाटर हारवेस्टिंग’ के पुरातन जलवैज्ञानिक प्रयोगों की सहायता से इस क्षेत्र की बंजर पड़ी हुई 35 गांवों की जमीन में सात हजार ‘चालों’ का निर्माण करके जल संकट की समस्या के समाधान का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया है. सच्चिदानंद भारती ने साल 1989 में बीरोंखाल के उफरैंखाल में ‘पाणी राखो’ आंदोलन शुरू किया. इसके तहत उन्होंने छोटे-छोटे चाल-खाल बनाए, जिनमें बरसाती पानी को रोककर उन्होंने क्षेत्र में करीब 30 हजार खाल बनाए. उन्होंने इसे ‘जल तलैया’ नाम दिया, साथ ही उन्होंने उसके आस-पास बांज, बुरांस और उत्तीस के पेड़ लगाए ताकि इन खालों मे भूमिगत जल रिचार्ज होता रहे.
गर्मियों में भी लबालब रहते हैं ‘चाल’
उत्तराखण्ड में जब 1999 में भयंकर अकाल पड़ा हुआ था तब दूधातोली ही एक ऐसा क्षेत्र था जहाँ मई तथा जून के महीनों में भी वहाँ के ‘चाल’ पानी से लबालब भरे हुए थे. पेशे से अध्यापक सच्चिदानन्द भारती ने पौड़ी जिले की थलीसेंण और बीरोंखाल, विकास खण्डों के एक नहीं बल्कि 133 गांवों में जलसंरक्षण एवं संवर्द्धन की योजनाओं को सफल बनाया तथा पूरी तरह सूख चुके 3 धारों और 5 नौलों को पुनर्जीवित किया. करोडों रुपयों की सरकारी योजनाएं जो काम नहीं कर पाती वह काम सच्चिदानन्द भारती ने जन सहभागिता के आधार पर कर दिखाया. जंगल बचाने की मुहिम में भारती जी चिपको आंदोलन के शुरुआती दिनों से ही जुटे हुए थे लेकिन जब उन्होंने जंगल बचाने की मुहिम के साथ जल को भी जोड़ दिया तो पौड़ी जिले के कई सीमांत गांवों के सूखे जलस्रोतों में फिर से जलधाराएं फूटने लगीं.
ग्रामीणों के साथ मिलकर भारती द्वारा गठित ‘दूधातोली लोक विकास संस्थान’ ने इतना काम किया है कि अब यह क्षेत्र देश-दुनिया के जिज्ञासुओं के लिए जलविज्ञान की भारतीय परंपराओं को समझने का भी अध्ययन का केंद्र बन गया है.1990 से 2010 तक बीस साल के अंतराल में इस दूधातोली क्षेत्र में पूरी तरह सूख चुकी 3 धारों और 5 नौलों को सच्चिदानन्द भारती ने जल जलसंरक्षण अभियान के तहत पुनर्जीवित किया.
भारती के अभियान की सबसे बड़ी सफलता यह है कि जिस छोटी नदी को जिसे स्थानीय भाषा में ‘गाड़’ कहते हैं,आजादी से पहले ही सूखी नदी घोषित कर दिया गया था, उसे भी इस अभियान ने पुनर्जीवित कर दिखाया है. पौड़ी जिले की उपरैखाल पहाड़ी से निकलने वाली इस गाड़ को 1944-45 के इर्वसन बंदोबस्त में ‘सूखा रौला’ लिखा गया था लेकिन इस समय इस गाड़ में गर्मी के दिनों में भी 3 लीटर प्रति मिनट का बहाव रहता है.
जल संरक्षण के सवाल पर सच्चिदानंद भारती का मानना है कि अंग्रेजों ने लोगों को शासित बनाने के प्रयोजन से जल, जंगल और जमीन के अधिकार को अपने हाथ में ले लिया. उसके बाद लोगों को भी लगने लगा कि इन चीजों का प्रबंधन तो सरकारों का काम है. इसी मानसिकता के कारण जन सामान्य का रिश्ता जंगलों और जल से कमजोर होता गया.भारती जी के अनुसार प्राकृतिक जल संरक्षण एक-दो दिन का काम नहीं बल्कि यह जल, जंगल और जमीन से जुड़ा एक समष्टिगत पर्यावरण विज्ञान है जिसकी विस्तृत चर्चा हम अपने भारतीय जलविज्ञान से सम्बंधित पिछले लेखों में करते आए हैं.
सच्चिदानंद ने जल संरक्षण के क्षेत्र में ऊंचा किया उत्तराखंड का नाम
‘पाणी राखो’ आंदोलन के प्रणेता सच्चिदानंद भारती ने एक बार फिर से देवभूमि उत्तराखंड का सम्मान बढ़ाया है. सूखी नदियों को फिर से जीवन दायिनी बनाने वाले भारती को दिल्ली सरकार के जल संसाधन मंत्री द्वारा दिसंबर‚2015 को ‘राष्ट्रीय भगीरथ सम्मान’ से सम्मानित किया गया. पर्यावरण के क्षेत्र में देश की पांच सबसे बड़ी संस्थाओं की ओर से दिए जाने वाले इस सम्मान के रूप में सच्चिदानंद भारती को एक प्रशस्ति पत्र और स्मृति चिह्न के साथ राजा भगीरथ के साठ हजार पुरखों के प्रतीक के रूप में साठ हजार रुपए की नकद धनराशि से भी पुरस्कृत किया गया.
इसके अलावा जल संरक्षण अभियान में जुटे सच्चिदानंद भारती को अब तक संस्कृति प्रतिष्ठान नई दिल्ली से ‘संस्कृति पुरस्कार’, सर्वोदयी समाजसेवी कामों के लिए ‘भाऊराव देवरस सम्मान’, दिल्ली विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग द्वारा ‘स्रोत सम्मान’ तथा मध्य प्रदेश सरकार द्वारा ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय पुरस्कार’ से सम्मानित किया जा चुका है. मगर भारती जी इन सभी सम्मानों को क्षेत्र की जनता की मेहनत का सम्मान मानते हैं. ‘लोक विकास संस्थान‘ के द्वारा दूधातोली क्षेत्र में तैयार किए गए जंगल और पानी के स्रोत आज पूरे देश के शोधार्थियों के लिए ही नहीं बल्कि विदेशी अनुसंधानकर्ताओं के लिए भी अध्ययनशाला के केंद्र बन चुके हैं.
आज उत्तराखण्ड के जलसंकट की समस्या को यदि सुलझाना है तो सच्चिदानन्द भारती जैसे जल, जंगल, जमीन से जुड़े जलपुरुषों से प्रेरणा लेते हुए उत्तराखण्ड सरकार तथा स्थानीय निवासियों की साझा भागीदारी से परम्परागत ‘वाटर हारवेस्टिंग’ प्रणाली को पुनः अपनाना होगा तथा प्राचीन भारत के जलवैज्ञानिक फार्मूलों एवं जलसंचयन की तकनीकों के माध्यम से जलसंकट की समस्याओं का समाधान खोजना होगा.
“जल जंगल नदी पहाड़, ये हैं जीवन के आधार”
✍🏻मोहन चंद तिवारी, हिमान्तर में प्रकाशित लेख।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)
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