आम आदमी के सामने अंधेरा घना है !
पुण्य प्रसून बाजपेयी
विचार आप रोक नहीं सकते और संघर्ष बिना विचार बड़ी सफलता पा नहीं सकते। तो क्या आम आदमी पार्टी पहली बार संघर्ष और विचार के टकराव से गुजर रही है। क्योंकि योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण की पहचान विचारधारा के साथ रही है। वहीं केजरीवाल की पहचान संघर्ष करने वाले नेता के तौर पर रही है । और दिल्ली में आम आदमी पार्टी का सच यही है कि केजरीवाल के संघर्ष पर बौद्दिक नेता विचारधारा का मुल्लमा चढ़ा कर अपने विचारों की सफलता-असफलता भी आंकते रहे हैं। और केजरीवाल विचारधाराओं की राजनीति में संघर्ष करते हुये खुद को आम आदमी ही बनाये रहे। यानी योगेन्द्र और प्रशांत भूषण अवामी पहचान होने के बाद भी क्राउड-पुलर नहीं है। और केजरीवाल के क्राउड-पुलर तत्व ने उन्हें अवामी पहचान दे दी। लेकिन सवाल तो आम आदमी पार्टी के जरीये देश की उस आम जनता का ही है जो पहली बार राजनीतिक व्यवस्था से रुठ कर बदलाव के लिये कसमसा रही है। और चुनावी जनादेश की अंगड़ाई बताती है कि पहले मोदी लहर और फिर केजरीवालकी आंधी सिर्फ सत्ता के प्रतीकात्मक बदलाव है। क्योकि समाज के भीतर की विषमता लगातार बढ़ रही है । और चुनावी नारे हो या राजनीतिक सत्ता के कामकाज का तरीका उसमें कोई बदलाव आया नही है। आप सिर्फ एक आस के तौर पर जागी। क्योंकि कांग्रेस का विकल्प बीजेपी है और बीजेपी का विकल्प कांग्रेस है। यह मिथ दिल्ली चुनाव में टूटता दिखा। क्योंकि दिल्ली एक ऐसी प्रयोगशाला के तौर पर उभरी जहां
वामपंथियों के बौद्दिक कैडर को भी आम आदमी पार्टी में जगह मिली और संघ परिवार की तर्ज पर सड़क पर जुझने वाले कार्यकर्ताओं का जमावड़ा भी केजरीवाल के साथ खड़ा हो गया। सोनिया गांधी के एलिट राष्ट्रीय सलाहकार कमेटी के तर्ज पर राईट विंग के बोद्दिक सलाहकार भी जुड़े। जिन्हें मोदी सरकार में सांप्रदायिकता दिखायी दे रही थी। और झटके में आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र के एलान ने भी बीजेपी को हराने वाली ताकत के पीछे मुस्लिमों को भी एकजुट कर दिया। यानी शिवजी की ऐसी बरात राजनीतिक तौर पर केजरीवाल के इर्द गिर्द खड़ी हो गयी जो बिना कैडर, बिना विचारधारा , बिना लंबे अनुभव के थी लेकिन वह बीजेपी और काग्रेस पर भारी इसलिये पड़ने लगी क्योंकि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों की नीतियां लगातार जन विरोधी रास्ते को पकड़े रही। सत्ता के दायरे में पूंजीपतियों और कारपोरेट का बोलबाला हुआ। घोटालों की फेरहिस्त कांग्रेस के दौर में खुली किताब की तरह उभरी तो बीजेपी के सत्ता में आने के बाद भारत को दुनिया के लिये बाजार बनाने की खुली वकालत नीतियों से लेकर कूटनीति तक के जरीये शुरु हुई।
यानी एक दूसरे को राजनीतिक विकल्प मानने वाली कांग्रेस-बीजेपी के विक्लप के तौर पर ना चाहते हुये देश की राजनीति में दिल्ली एक प्रयोगशाला इसीलिये बनी क्योंकि पहली बार जातीय और संप्रदाय का जिक्र नहीं था। पहली बार कारपोरेट और क्रोनी कैपटलिज्म के खिलाफ खुला एलान था । पहली बार जनता की न्यूनतम जरुरतो पर भी कुंडली मारे कारपोरेट और राजनीतिक भ्रष्टतंत्र का खुला प्रचार था। यानी सत्ता बदलने के बाद भी देश के हालात क्यों नहीं बदल पाते है या सत्ता के करीबियों को ही सत्ता बदलने का लाभ क्यों मिलता है। बाकि देश के हालात में कोई परिवर्तन क्यों नहीं हो पाता, यह सवाल चाहे अनचाहे दिल्ली चुनाव में उभर गया । असर इसी का हुआ कि दिल्ली का एतिहासिक जनादेश समूचे देश को अंदर से राजनीतिक तौर पर इस तरह झकझोर गया कि हिन्दी पट्टी के क्षत्रपों को तो लगने ही लगा कि केजरीवाल का रास्ता अपना कर वह भी बीजेपी को रोक सकते हैं। झटके में जो मोदी सरकार लोकसभा के जनादेश के बाद उडान पर थी वह जमीन पर आ गयी।
कांग्रेस के भीतर भी अल्पसंख्यक प्रेम को लेकर सवाल उठे। साफ्ट हिन्दूत्व की पुरानी कांग्रेस लकीर दुबारा खिंचने की कोशिश शुरु हुई। जाहिर है चुनावी संघर्ष के दौर की आम आदमी पार्टी के खुले कैनवास पर पहली बार रंग भरने की केजरीवाल ने सोची। यानी चुनाव के दौर में कार्यकत्ता से लेकर बोद्दिक जगत और समाजसेवियों से लेकर एक्टीविस्टों की जो बरसात केजरीवाल के नाम पर हो रही थी। जीत के बाद उसे कैसे समेटा जाये। समर्थन की बरसात को किस कटोरे में जमा किया जाये। केजरीवाल के सामने यह सवाल ठीक उसी तरह का था जैसे वीपी सिंह के दौर में जब जन समर्थन बोफोर्स घोटाले के खिलाफ सड़क पर उठा तो देश ने पहली बार कांग्रेस को फड़फड़ाते हुये भी देखा और उसके बाद मंडल-कमंडल तले खत्म होते भी देखा। इतिहास में और पीछे लौटे तो जनादेश की पीठ पर सवाल 1977 में जनता पार्टी का कलह भी रास्ते बनाने की जगह रास्ते उलझा गया । यानी आपातकाल के अंधेरे से उजाला तो निकला लेकिन कैनवास पर कोई रंग जनता पार्टी भी ना छोड़ पायी। दिल्ली के ऐतिहासिक जनादेश को उठाये केजरीवाल भी आम आदमी पार्टी के खुले कैनवास पर कोई रंग भरते उससे पहले ही दिल्ली चुनाव प्रचार में कमान संभालने वालों ने अपना
रंग भरना शुरु कर दिया। जो कैनवास खामोशी से रंगा जा सकता था उसपर रंग कीचड़ की तर्ज पर उछाले जाने लगे। प्रशांत भूषण की शागिर्दगी में केजरीवाल के दरवाजे तक पहुंचे आशीष खेतान ने आप के कैनवास पर ऐसा रंग डाला कि झटके में अन्ना आंदोलन के दौर से संगठन संभाले नायक प्रशांत को खलनायक बना दिया गया। 2013 में जब आम आदमी पार्टी का संविधान बन रहा था । और राजनीतिक परिभाषा तय हो रही थी तब रात रात भर जाग के जिन्होंने कलम चलायी। तर्क किये। विचारवान संविधान बनाया। उस समूह में एक नाम योगेन्द्र यादव का भी था।
लेकिन कैनवास पर रंग भरते वक्त झटके में योगेन्द्र यादव को भी जनादेश के नशे में नायक से खलनायक बना दिया गया। तो क्या एक दौर में जनता पार्टी और दूसरे दौर में जो सवाल जनमोर्चा से लेकर तमाम लोहियावादी-समाजवादियों की फेहरिस्त ने जिस तरह जनता दल को बंटा उसी तर्ज पर आम आदमी पार्टी को भी साबित करने वाले हालात पैदा हो गये । या फिर आप के सफेद कैनवास को अपने अनुकुल रंग भरने की होड़ में केजरीवाल भी कहीं पीछे छूट गये । क्योंकि राष्ट्रीय संयोजक पद से इस्तीफा देकर जिस राह पर आप की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को केजरीवाल ने दिल्ली के जनादेश के नाम पर छोड़ा । उस दिल्ली को सियासी राजनीति की सफल प्रयोगशाला बनाने के लिये कौन सा रास्ता अख्तियार करना है इसे लेकर अब भी अंधेरा ही है । और संसदीय राजनीति का अंधेरा इतना घना है कि आजादी के बाद अपनायी गई नीतियों में आजतक ऐसा कोई परिवर्तन आया ही नहीं कि जो सवाल आजादी के तुरंत बाद थे, वह 67 बरस बाद सुलझ गये। गरीबी हटाओ का नारा हमेशा से लगता रहा। बिजली सड़क पानी का नारा 1962 के बाद से हर चुनाव में गूंजता रहा। जय जवान जय किसान का नारा 50 बरस पहले भी मौजूं था आज भी मौजूं है। रोजगार के संकट से निपटने में देश के तेरह पीएम बदल गये। संविधान से हक के लिये संघर्ष करता आम आदमी कल भी सड़क पर था आज भी सड़क पर है। इस मोड़ पर आम आदमी पार्टी अगर आम आदमी की जरुरतों की जिम्मेदारी उठाने को तैयार है तो मानिये यह नई राजनीति का उदघोष है। जहां नेता नहीं आम आदमी ही मायने रखता है।