ऐसे लोग नहीं होते सभ्य समाज में रहने योग्य

सिद्धार्थ ताबिश

आपको शायद याद होगा कि पाकिस्तान में मशहूर कव्वाल साबरी ब्रदर्स वाले अमजद साबरी को 2016 में ईशनिंदा के जुर्म में गोलियों से भून दिया था.. उनका गुनाह ये था कि उन्होंने एक शादी में एक कव्वाली गायी थी जिसमें दूल्हे और दुल्हन की तुलना पैगंबर के दामाद अली और बेटी फातिमा से कर दी थी.. इसके लिए जब बवाल हुआ तो उन्होंने माफ़ी भी मांग ली मगर फिर भी रसूल के आशिकों ने उन्हें गोली से भून दिया
सोचिए कितनी मामूली सी बात है.. ऐसे जैसे यहां भारत में किसी शादी में हम वर वधु को देखकर ये कह दें कि “दोनो कितने सुंदर लग रहे हैं.. एकदम राम और सीता जैसे”.. और इस बात पर कोई आपको गोली मार दे या आपकी गर्दन काट दे.. इस तरह की मामूली तुलना “ईशनिंदा” में आती है
अब बताइए कि एक सभ्य समाज में पैदा हुवा व्यक्ति इस बात को कैसे समझेगा कि इस तरह की बातों से कोई आख़िर कैसे आहत हो सकता है.. तभी तो फ्रांस, जर्मनी समेत तमाम पश्चिमी देश अभी तक इस्लाम की भावनाओं और ईशनिंदा के कॉन्सेप्ट को समझ ही नहीं पाए.. क्योंकि ये कोई कॉन्सेप्ट या किसी तरह का क़ानून नहीं है.. जिसकी जो मर्ज़ी आती है वो उसे ईशनिंदा बना लेता है.. इसलिए “ईशनिंदा” एक तरह का टूल या हथियार होता है.. आप किसी को भी मामूली से मामूली बात पर ईशनिंदा का दोषी ठहरा सकते हैं और उसकी जान ले सकते हैं.. पाकिस्तान जैसी जगहों पर इस तरह शिया, अहमदिया, बरेलवी, देवबंदी, हिंदू, ईसाई आदि से अपनी खुन्नस ईशनिंदा के माध्यम से निकाली जाती है.. ये कुछ नहीं, बस खुन्नस निकालने की तकनीक है
इसलिए आप कितना भी इस पर कहानी लिख लें, अच्छी अच्छी बातें कर लें.. कितना भी इधर उधर से रेफरेंस दे लें, जिन्हें खुन्ना निकालनी ही वो निकालेंगे.. क्योंकि कोई एक सेट रूल नहीं है जिस से आप ये जस्टिफाई कर सकें कि ये ईशनिंदा है ये नहीं.. ईशनिंदा का बहुत व्यापक स्कोप है और जो मौलाना या आलिम जितना दूर तक सोच सकता है वो ईशनिंदा को वहां तक ले जा सकता है
इसलिए आप इस तरह के कॉन्सेप्ट या धारणा से बुद्धिजीवियों के तरीके से नहीं लड़ सकते हैं कभी.. एक शोर के साथ करेंट उठता है कि फलाने ने ईशनिंदा की फिर भीड़ तक वो करेंट पहुंचा दिया जाता है.. अब आप भीड़ को समझाते रहिए.. सबके अपने लॉजिक सबकी अपनी सोच.. उन्हें बस एक शब्द मिल गया कि ईशनिंदा यानि “तौहीन ए रसूल” हुई है.. बस.. अब किसी बात का कोई लॉजिक नहीं बनता है कि किसने तौहीन की और क्या कहा.. भीड़ को ये बात पहुंचा दी जाती है कि अब तुम्हें हिंसा करनी है.. बस.. अपना दिमाग किनारे रख के हिंसा करो और जिसे टारगेट किया जा रहा है जब तक उसे मार ना डालो तब तक रुकना नहीं.. ये भीड़ को निर्देश देने का एक टूल है.. भीड़ का हर व्यक्ति अब ये जानता है कि अगर हमने ईशनिंदा वाले व्यक्ति को मार दिया, तो हमको स्वर्ग में विशेष स्थान मिलेगा.. बस
इसलिए मुझे फेसबुक और सोशल मीडिया पर ये देखकर अफ़सोस होता है कि दूसरे धर्मों के बुद्धिजीवी और समझदार लोग लगे पड़े हुवे हैं कहानी सुनाने में और समझाने में कि आपका मज़हब ये है, अमन है, शांति है, सलामती है, वगैरह वगैरह.. जबकि जिसे ये बता दिया गया है कि तौहीन ए रसूल हो चुकी है, वो उसके आगे न कुछ सुनता है और न ही समझता है.. उसे बदला चाहिए होता है बस
फेसबुक पर ही एकदम अंधे भैंसों की तरह तमाम समझदार, बुद्धिजीवी और बड़े ही शांत स्वभाव के मोमिन भी भावुक हो कर नुपुर को गिरफ्तार करने पर जोर दे रहे थे और लिख रहे थे कि जो रसूल का नहीं वो हमारा नहीं.. लगभग निन्नान्नबे प्रतिशत मोमिन ये बात लिख रहे थे.. लिस्ट से उन्हें निकाल रहे थे जो नुपुर के साथ खड़ा हो रहा था.. ये शायरी करने वाले, हंसने हंसाने वाले लोग थे और ये पूरी तरह से नुपुर की गिरफ्तारी की मांग में जुटे थे
तो जब ईशनिंदा के लिए इनकी ये समझ हो सकती है, तो भीड़ के जाहिलों का क्या हाल होगा? ये अपनी फेसबुक फ्रेंड लिस्ट से अपने दोस्तों को निकाल रहे थे और दो जाहिलों ने अपने स्टाइल में उस बेकसूर बेचारे दर्जी को अपनी “फ्रेंड” लिस्ट से निकाल दिया।
अब ये फेसबुक वाले कह रहे हैं कि गलत हुआ.. जबकि ये इस बात को कभी नहीं स्वीकारेंगे कि जाहिल भीड़ तक “ईशनिंदा” का करंट और हिंसा का संदेश इन्होंने ही “प्रेषित” किया था
(साभार)

Comment: