कश्मीर : मोदी बढे़ं अटल की राह पर
जम्मू−कश्मीर की विधानसभा के बजट सत्र का उद्घाटन करते हुए राज्यपाल वोहरा ने दो−टूक शब्दों में कहा कि मुफ्ती सईद सरकार कश्मीर समस्या के हल के लिए सभी ‘आंतरिक तत्वों’ से बात करने को तैयार है।’आंतरिक तत्वों’ का अर्थ है− ‘हुर्रियत’। उन्होंने हुर्रियत को बात करने का खुला निमंत्रण दिया है। इसमें एक अर्थ और छिपा हुआ है। वह यह है कि मुफ्ती सईद की सरकार सिर्फ एक प्रांतीय सरकार है। वह सिर्फ प्रांतीय लोगों से बात कर सकती है। विदेशी लोगों से नहीं। पाकिस्तानियों से नहीं।
यहां मुख्य सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान से बात किए बिना कश्मीर की समस्या हल हो सकती है?कश्मीर इसीलिए समस्या बना हुआ है कि पाकिस्तान उसे उठाता रहता है। यदि पाकिस्तान नहीं होता तो कश्मीर की समस्या ही नहीं होती। यदि पाकिस्तान अपना हाथ खींच ले तो कश्मीर की समस्या अपने आप हवा हो जाएगी। यदि मेरा यह विचार तर्कसंगत नहीं है तो बताइए कि हमारी सरकारें कश्मीरी आतंकवाद और अलगाववाद के लिए हमेशा पाकिस्तान को दोषी क्यों ठहराती हैं? कश्मीर की राज्य सरकार सीधे पाकिस्तानी सरकार से बात नहीं कर सकती। वह बात तो केंद्र की भारत सरकार ही कर सकती है। भारत सरकार यदि पाकिस्तान सरकार से कोई बात नहीं करेगी तो मुफ्ती सरकार की हुर्रियत से की गई बात का कोई ठोस परिणाम निकलना असंभव है।
यह बात हुर्रियत ने अपने बयान में साफ कर दी है। हुर्रियत ने मुफ्ती की पहल पर जो प्रतिक्रियाकी है, उसमें साफ−साफ कहा है कि कश्मीर का हल तीन पार्टियां ही निकाल सकती हैं। एक, भारत सरकार, दो पाकिस्तान सरकार और तीन कश्मीरी लोग ! इसमें चौथा तत्व मैं जोड़ता रहा हूं। वह है, पाकिस्तानी कश्मीरी! भारतीय नीति−निर्माताओं की समझ यह है कि पाकिस्तानी कश्मीर के नेता और लोग पाकिस्तानी सरकार की जेब में बैठे हुए हैं। ऐसा नहीं है। उनके अपने स्वतंत्र विचार हैं। तथाकथित’आजाद कश्मीर’ के कई ‘प्रधानमंत्रियों’ से मेरी भेंट होती रही है। कश्मीर के हल में उन्हें भी भागीदार बनाना जरुरी है।
भारत सरकार को कश्मीर पर पाकिस्तान से सीधी बात करनी चाहिए। यह आश्चर्य की बात है कि कश्मीर का सवाल भारत आगे होकर कभी उठाता ही नहीं है। हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान ही कश्मीर का सवाल उठाता है। कानूनी तौर पर अगर जम्मू−कश्मीर का पूरा राज्य भारत का है तो मैं पूछता हूं कि भारत उस कश्मीर के बारे में अपनी दुम क्यों दबाए रहता है, जिस पर पाकिस्तान का कब्जा है? वह उस कश्मीर को लौटाने का आंदोलन क्यों नहीं चलाता? हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसे वापस लेने की मांग क्यों नहीं उठाता?उसे किस बात का डर है? उसे क्या संकोच है? क्या दाल में कुछ काला है? वह हमेशा रक्षात्मक मुद्रा क्यों धारण किए रहता है? वह भीगी बिल्ली क्यों बना रहता है?
पाकिस्तान की फौज और सरकार ने पिछले 68 साल में सारे पैंतरे अपना लिये। घुसपैठ, युद्ध, आतंकवाद, तोड़−फोड़ आदि लेकिन अब वह यह बात भली भांति समझ गई है कि वह भारतीय कश्मीर की एक इंच ज़मीन भी नहीं छीन सकती। यह बात हुर्रियत को भी काफी अच्छी तरह समझ में आ गई है। उसके नेता भी मान गए हैं कि बातचीत के अलावा कोई रास्ता नहीं है। हुर्रियत के ज्यादातर नेता लड़ते−लड़ते बुजुर्ग हो गए हैं। थक गए हैं। वे भी बातचीत चाहते हैं लेकिन उसमें पाकिस्तान को भी शामिल करना चाहते हैं। खुद पाकिस्तान बातचीत में शामिल होने के लिए बेताब है। पाकिस्तान के करोड़ों लोग कश्मीर के नाम पर अब फिजूल कुर्बानी करने को तैयार नहीं हैं। वे अपने लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा की सुविधाएं चाहते हैं। लेकिन हमारी मोदी सरकार अपने मानसिक संकट से उभर नहीं पा रही है। वह पाकिस्तान से तो क्या हुर्रियत से भी बात नहीं करना चाहती। वह तो यह भी नहीं चाहती कि हुर्रियत के नेता पाकिस्तान से बात करें या पाकिस्तान हुर्रियत से बात करे। हुर्रियत के नेता पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित से क्या मिले, हमारी सरकार ने भारत−पाक वार्ता भंग कर दी। इंटरनेट, स्काइप और मोबाइल फोन के जमाने में आप किसी के भी संवाद को कैसे रोक सकते हैं? जब ये सुविधाएं नहीं थीं, तब भी भारत के प्रधानमंत्रियों ने कश्मीर के सवाल पर हुर्रियत से सीधा संपर्क बनाया हुआ था। नरसिंहरावजी ने लाल किले से कहा था कि कष्मीर की स्वायत्तता की सीमा आसमान तक है और अटलजी ने कहा था कि बाकी सब दायरे ठीक हैं लेकिन कश्मीर की समस्या मैं ‘इंसानियत’ के दायरे में हल करना चाहता हूं। यही नीति डॉ. मनमोहनसिंह ने चलाई थी। मुशर्रफ जैसे भारत−विरोधी नेता के साथ हमारे भाजपाई और कांग्रेसी, दोनों प्रधानमंत्रियों की पटरी बैठ गई थी। अगर वे दो−चार साल और टिके रहते तो शायद कश्मीर का कोई समाधान निकल आता।
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही भारत−पाक संबंधों में एक नए अध्याय की शुरुआत हो गई थी। अपनी शपथ−विधि में मियां नवाज़ शरीफ को बुलाकर मोदी ने पाकिस्तान में नई हवा बहा दी थी। पिछले साल मेरी पाकिस्तान−यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज से जो खुली बातचीत हुई, उससे मैं इसी नतीजे पर पहुंचा था कि वे अटलजी द्वारा की गई पहल को आगे बढ़ता हुए देखना चाहते हैं। पाकिस्तान के कई ‘थिंक टैंकों’ से हुए विचार−विमर्श का निष्कर्ष भी यही था कि मोदी एक सुदृढ़ प्रधानमंत्री हैं और भारत−पाक संबंधों को सुधारने के लिए कठोर फैसले ले सकते हैं। मोदी ने विदेश सचिव एस. जयशंकर को इस्लामाबाद भेजकर, जो गाड़ी पटरी से उतर गई थी, उसे दुबारा पटरी पर लाने की कोशिश की है। मुफ्ती सईद इसी गाड़ी को तेजी से चलाने की कोशिश कर रहे हैं। मुफ्ती ने सिर्फ हुर्रियत से बात करने का ही दरवाज़ा नहीं खोला है बल्कि घाटी से भागे हुए पंडितों की वापसी का भी संकल्प लिया है। उन्होंने पाकिस्तानी कब्जे के कश्मीर से आए शरणार्थियों की समस्या के समाधान का भी आश्वासन दिया है। उन्होंने विधानसभाई निर्वाचन−क्षेत्रों के पुनर्गठन का भी प्रस्ताव रखा है, जिससे घाटी और जम्मू के विधायकों की संख्या में संतुलन बनेगा।
अब असली सवाल यही है कि क्या केंद्र सरकार मुफ्ती को जरुरी छूट देगी? अभी तो राज्यपाल ने बातचीत की बात ही छेड़ी है। सब चुप हैं लेकिन यदि मुफ्ती बोलेंगे तो कहीं फिर हंगामा खड़ा न हो जाए? केंद्र की जिम्मेदारी है कि वह मुफ्ती की बात को आगे बढ़ाए। राज्यपाल तो केंद्र का प्रतिनिधि होता है। लगता है कि अपने अभिभाषण में उन्होंने केंद्र और राज्य, दोनों की बात कही है। उन्होंने इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत तीनों को अपनी बात का आधार बनाया है। केंद्र सरकार के लिए यह अपूर्व अवसर तैयार हुआ है। नरेंद्र मोदी चाहें तो अटलजी की अधूरी यात्रा को पूरी कर सकते हैं। यदि कश्मीर में शांति और सद्भाव का वातावरण बन गया तो भारत−पाक संबंध तो उत्तम हो ही जाएंगे, पूरे दक्षिण एशिया का ही नक्शा बदल जाएगा। तब भारत के इतिहास में मोदी का स्थान सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्रियों के बीच होगा।