कश्मीर में आतंकवाद : अध्याय 12, शेख – नेहरू की जोड़ी और कश्मीर , भाग -१

अध्याय 12

शेख – नेहरू की जोड़ी और कश्मीर

कश्मीर का अब्दुल्ला परिवार प्रारंभ से ही भारत विरोधी नीतियों पर काम करता रहा है। वर्तमान समय में कश्मीर को दुर्दशाग्रस्त करने में इस परिवार का विशेष योगदान रहा है। नवयुवकों को भड़काकर उनसे पत्थरबाजी करवाना, जुलूस निकलवाना, मस्जिदों में भड़काऊ भाषण दिलवाने के लिए मुल्ला-मौलवियों को प्रेरित और प्रोत्साहित करना शेख अब्दुल्ला परिवार और इनकी पार्टी का विशेष उद्देश्य रहा है। कभी मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के नाम से स्थापित हुई शेख अब्दुल्ला की पार्टी और उसके परिवार ने अपनी राजनीतिक रोटियां इसी आधार पर सेंकी है। जिन पत्थरबाजों को ‘भटका हुआ नौजवान’ कहा जाता है, वह वास्तव में अब्दुल्ला परिवार की देशविरोधी राजनीति की योजना का एक अंग होते हैं। जिनका बचाव करने के लिए अब्दुल्ला परिवार व उसकी पार्टी के लोग सामने आते हैं। इन पत्थरबाजों के माध्यम से माहौल को जितना अधिक खराब कर लिया जाए, उतना ही लाभ अब्दुल्ला परिवार की राजनीति को चमकाने में मिलता है । पत्थरबाज हमारे सैनिकों को जितना अधिक परेशान करें या उन्हें बलिदान देने के लिए विवश करें, उतना ही अब्दुल्ला परिवार को लाभ होता है ।

पत्थरबाज और नेशनल कॉन्फ्रेंस

इस प्रकार भारतीय सैनिकों के बलिदान को भी यह पार्टी अपने राजनीतिक लाभ के रूप में देखती रही है । ऐसा तो दूर-दूर तक भी नहीं रहा है कि भारतीय सैनिकों के बलिदानों पर अब्दुल्ला परिवार और उसकी पार्टी को तनिक सा भी दु:ख होता हो। जब अब्दुल्ला परिवार की मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ( वर्तमान में देश को भ्रमित करने के लिए नेशनल कांफ्रेंस , नाम नेशनल कांफ्रेंस है और काम अभी भी मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के ही कर रही है) सत्ता में होती है तो केंद्र पर दबाव बनाकर जम्मू कश्मीर के लिए विशेष धनराशि प्राप्त कर ले जाती है । वह धनराज अब्दुल्ला परिवार की पार्टी के नेताओं , पत्थरबाजों या कुछ भ्रष्ट अधिकारियों में बांट दी जाती है। आश्चर्य की बात यह है कि पत्थरबाज फिर भी गरीब के गरीब ही रह जाते हैं।
वास्तव में शेख अब्दुल्लाह भारत की पराधीनता के काल में एक ‘ब्रिटिश एजेंट’ के रूप में काम कर रहा था। उसने कश्मीर से राष्ट्रवादी शक्तियों की जड़ खोदने के लिए और उसका तात्कालिक लाभ अंग्रेजों को देने के लिए हर वह कार्य किया जो उसके भविष्य को सुरक्षित बना सकता था अर्थात वह जो कुछ भी कर रहा था उसका उद्देश्य अपने दूरगामी राजनीतिक हितों को साधना था। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह थी कि कांग्रेस भी अंग्रेजों के इस पिट्ठू को बराबर अपना सहयोग और आशीर्वाद देती जा रही थी।
शेख अब्दुल्ला जैसे लोगों का निर्माण क्यों हो जाता है या क्यों होता रहा ? यदि ब्रिटिश शासन के अधीन रहे भारत के संदर्भ में इस विषय पर विचार किया जाए तो इसका उत्तर केवल एक है कि भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को दबाने के लिए अंग्रेज किसी ना किसी मुस्लिम को आगे लाते थे। अपने इस उद्देश्य को साधने के लिए यदि राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें जिन्नाह मिल गया था तो कश्मीर के लिए उन्हें अब्दुल्लाह मिल गया था। जिन्नाह और अब्दुल्ला दोनों ही देश के लिए कलंक थे और उस समय के ‘जयचंद’ भी थे। इसके उपरांत भी इन्हें कांग्रेस का समर्थन मिला। इसका कारण यह था कि कांग्रेस अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों के लिए काम करते रहने वाली संस्था थी। उसकी राजनीतिक कार्यशैली थी कि वह अपने आकाओं को अर्थात ब्रिटिश सत्ताधीशों को प्रसन्न करने के लिए काम करती रही। 1930 ई0 में जब कॉंग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता का संकल्प ले लिया था तो भी वह अपनी राजनीतिक कार्यशैली में विशेष और उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं कर पाई थी।

देशद्रोही शेख अब्दुल्लाह

शेख अब्दुल्ला भारत विरोधी नहीं, विश्वासघाती भी था। उसने अपने जीवन काल में चीन की यात्रा की थी और वहां के नेता चाउ-एन-लाई के साथ गुप्त मंत्रणा की थी । जिस पर उस समय उसकी काफी आलोचना हुई थी। उसी संस्कार बीज के आधार पर बाद में उसकी पार्टी और उसके उत्तराधिकारी अपनी राजनीति करते रहे हैं।
मुस्लिम कॉन्फ्रेंस से नेशनल कॉन्फ्रेंस बनाकर देश की आंखों में धूल झोंकने के शेख अब्दुल्लाह के प्रयास पर प्रोफेसर बलराज मधोक ने अपनी पुस्तक ‘कश्मीर जम्मू और लद्दाख’ में लिखा है कि :- ‘1939 में शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का नाम बदलकर उसे नेशनल कांफ्रेंस कर दिया । ऐसा करने का उद्देश्य अपने राजनीतिक गंतव्य के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा भारतीय प्रेस का समर्थन प्राप्त करना था। खान अब्दुल गफ्फार खान ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। उसने शेख अब्दुल्ला को समझाया कि क्योंकि कश्मीर घाटी की जनसंख्या का 95% भाग मुसलमान है, इसलिए सत्ता का हस्तांतरण जब और जैसे भी होगा कश्मीर के नेता के रूप में सत्ता उसी को मिलेगी । इस रणनीति से उसे प्रचुर लाभ मिला। पंडित जवाहरलाल नेहरु उसमें और उसकी राजनीति में विशेष रूचि लेने लगे। उन्होंने उसे अखिल भारतीय राज्य लोक सेवा कॉन्फ्रेंस का अध्यक्ष बना दिया । जिससे उसे राष्ट्रीय मंच पर आने का भी अवसर मिल गया।’
भारत विरोधी संगठन और नेता पर साम्यवादी बड़ी गहरी दृष्टि रखते आये हैं। उन्हें जैसे ही कोई भारत विरोधी उभरता हुआ दिखाई देता है, उसे वह तुरंत पकड़ने का प्रयास करते हैं। ऐसा करने का उनका उद्देश्य अपने राजनीतिक हितों को साधना होता है। आज अपने राजनीतिक हितों की स्वार्थ पूर्ति के लिए कांग्रेस और कम्युनिस्ट एक साथ बैठे हुए दिखाई देते हैं। पर यदि आजादी के पहले की बात की जाए तो कभी यह कम्युनिस्ट कांग्रेस के बड़े नेता गांधी को साम्राज्यवादियों का पिट्ठू कहा करते थे।
कम्युनिस्टों के बारे में हमें यह समझ लेना चाहिए कि उनकी भारत के प्रति निष्ठा विदेशों में बैठकर तय होती रही है। भारत को किस प्रकार लाल रंग में रंग देना है या किस प्रकार यहां की सड़कों को भी लोगों के खून से लाल कर देना है ? – ये सारी योजनाएं विदेशों के संकेतों पर करने वाले कम्युनिस्ट गांधी को साम्राज्यवादियों का पिट्ठू इसलिए कह रहे थे कि उनके अपने आका उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रहे थे। इन्हीं साम्यवादियों ने शेख को गांधी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को कमजोर करने के काम में लगा दिया था ।अपनी इस योजना में कम्युनिस्ट उस समय सफल भी हो गए थे, क्योंकि शेख अब्दुल्लाह ने उनकी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी थी।

शेख का ‘महाराजा ! कश्मीर छोड़ो’- आंदोलन

शेख अब्दुल्ला को कम्युनिस्टों ने उस समय महाराजा हरिसिंह के विरुद्ध भड़का दिया था और ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में सक्रिय रुप से सहयोग देने से उसे रोक दिया। मई 1946 ईस्वी में अंग्रेजों और कम्युनिस्ट लोगों ने ‘महाराजा हरि सिंह कश्मीर छोड़ो’ का नारा दिलवाकर शेख अब्दुल्लाह को राष्ट्रघाती कार्य में लगा दिया था। बड़ी कठिनाई से जिस कश्मीर में हिंदुओं का राज्य स्थापित हुआ था , उसमें फिर से मुस्लिम राज्य स्थापित करने के लिए अंग्रेज बड़ी कूटनीतिक सोच के साथ सक्रिय थे। शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर के लोगों को भ्रान्ति में डालने के लिए ‘नया कश्मीर’ बनाने का संकल्प व्यक्त किया। शेख अब्दुल्लाह के नए कश्मीर में हिंदुओं के लिए कहीं कोई स्थान नहीं था। यद्यपि भ्रांति पूर्ण वाक्जाल में देश और हिंदू समाज को इस प्रकार फंसाने का प्रयास किया गया जैसे शेख अब्दुल्लाह के नए कश्मीर में हिंदुओं को सभी प्रकार के अधिकार प्राप्त होंगे।
अपनी प्रत्येक देश विरोधी गतिविधि में शेख अब्दुल्ला को कम्युनिस्टों का पूर्ण समर्थन प्राप्त हो रहा था । जबकि कांग्रेस को भी इस बात पर कोई आपत्ति नहीं थी कि कश्मीर को फिर मुसलमानों के हाथ में दे दिया जाए। कांग्रेस की सोच पहले दिन से ही यह रही है कि मुगलों और मुसलमानों का शासन भारत में विदेशी नहीं था । वास्तव में यह सोच कांग्रेस को उसके बड़े नेता गांधीजी ने दी थी। मुसलमान नाम के भेड़िया के सामने हिंदू नाम की भेड़ को फेंकने और भेड़िया द्वारा उस भेड़ की हत्या करने को कांग्रेस ने ना तो कभी पाप माना और ना ही हिंसा माना । यद्यपि कांग्रेस के नेता गांधीजी अहिंसावाद की नीतियों में विश्वास रखते थे, परंतु उनकी अहिंसा भी उनकी अन्य नीतियों की भांति दोगली और पक्षपाती थी। कहने का अभिप्राय है कि हिंदुओं को इस्लामिक आतंकवाद की भट्टी में झोंकने के लिए ब्रिटिश सत्ताधीश, कम्युनिस्ट और कांग्रेस एक हो गए थे। आगे चलकर यह योजना जब फलीभूत हुई तो इसके बड़े घातक परिणाम सामने आए।
जब शेख अब्दुल्ला ने महाराजा हरि सिंह के विरुद्ध ‘कश्मीर छोड़ो आंदोलन’ चलाया तो नेहरू ने उसमें सक्रिय रूप से अपना सहयोग दिया । शेख अब्दुल्ला की पार्टी के कार्यकर्ताओं ने जमकर तोड़फोड़ व पत्थरबाजी की और प्रत्येक प्रकार से ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करने का प्रयास किया जिससे राष्ट्रवादी महाराजा हरिसिंह कश्मीर छोड़कर चले जाएं। शेख अब्दुल्ला के इस कार्य को कांग्रेस ने इस प्रकार दर्शाया है जैसे शेख ने किसी तानाशाह या विदेशी शासक के विरुद्ध आंदोलन किया हो। जो विदेशी मुसलमान कश्मीर में अत्याचार करके सैकड़ों वर्ष उपद्रव मचाते रहे वह तो इनकी दृष्टि में दूध के धुले हो गए और जो अपने देश के राजा थे, वास्तव में जिनका कश्मीर पर अधिकार था, वे विदेशी हो गए।
इस घालमेल ने कश्मीर की वर्तमान परिस्थितियों को बहुत जटिल बना दिया। क्रूर अत्याचारी मुस्लिम शासकों के अत्याचारों और उनके विरुद्ध हुए हिंदुओं के आंदोलनों को कांग्रेस और उसके इतिहासकारों ने देश की नजरों से पूर्णतया ओझल करने का काम किया। इससे इस भ्रांति को प्रोत्साहन मिला है कि महाराजा हरि सिंह का दृष्टिकोण शेख अब्दुल्ला और उसके लोगों के प्रति ठीक नहीं था।

महाराजा के विरोध से राष्ट्र विरोध तक नेहरू

महाराजा हरि सिंह को कांग्रेस के पंडित जवाहरलाल नेहरू से इस निंदनीय आचरण की आशा नहीं थी ।वह सोच रहे थे कि व्यक्तिगत मतभेद होना अलग बात है और राष्ट्रवादी मुद्दों पर एक मत होना अलग बात है । इसलिए महाराजा हरि सिंह को यह आशा थी कि नेहरू उनके विरुद्ध किसी भी ऐसी कार्यवाही या आंदोलन को अपना समर्थन नहीं देंगे जो राष्ट्र को अस्थिर करती हो। नेहरू ने जो कुछ भी किया वह राष्ट्र के हितों के विपरीत था। उनके इस प्रकार के आचरण से अलगाववादी शेख अब्दुल्ला को प्रोत्साहन मिला । वह और भी अधिक मुखर होकर महाराजा हरि सिंह की आलोचना और विरोध करने लगा।
उस समय के कबूतर बने कांग्रेसी नेता नेहरू यह नहीं समझ पा रहे थे कि आज महाराजा की इस प्रकार निंदा की जा रही है तो कल को वह राष्ट्र की निंदा करने में भी परिवर्तित होगी। यद्यपि कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष आचार्य कृपलानी ने शेख अब्दुल्ला के इस आंदोलन को गलत समय पर किया गया अत्यंत निंदनीय, अशोभनीय और घोर अवसरवादी आंदोलन कहा था। उन्होंने 1947 में कश्मीर की यात्रा की तो उस समय भी अपने इस विचार को दोहराया था । उस समय उन्होंने एक पत्रकार के प्रश्न के उत्तर में यह भी कहा था कि ‘ब्रिटिश लोग विदेशी थे ,इसीलिए उन्हें भारत छोड़ना पड़ा , परंतु महाराजा हरि सिंह तो इसी धरती का बेटा था, उसे जम्मू कश्मीर रियासत छोड़ने के लिए कैसे कहा जा सकता था ?’ शेख अब्दुल्ला के इस प्रकार के कार्यों की आलोचना न केवल आचार्य कृपलानी ने की थी अपितु मोहम्मद अली जिन्नाह ने भी इसे राज्य में अव्यवस्था फैलाने वाले असंतुष्टों का उपद्रव कहा था।
शेख अब्दुल्ला ने अपना आंदोलन वापस लिया। उसके पश्चात उसने जम्मू कश्मीर में सांप्रदायिक आग भड़का कर भाग जाने की योजना बनाई। 21 मई 1946 को उड़ी के पास भागने का प्रयास करते हुए उसे राज्य पुलिस के द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। ( पाठकों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि 1990 में जब जम्मू कश्मीर के हिंदुओं का पूर्व नियोजित षडयंत्र के अंतर्गत पलायन करवाया गया तो उस समय शेख अब्दुल्ला के बेटे फारूक अब्दुल्ला ने भी अपने पद से त्यागपत्र देकर लंदन भागने का नाटक किया था। इस प्रकार आग लगाकर भाग जाने की प्रवृत्ति का कुसंस्कार इस परिवार के भीतर बहुत पुराना है। )
वास्तव में आजादी से पहले के कश्मीर में ही उस समय जो कुछ भी हो रहा था वह भविष्य की कश्मीर समस्या की नींव रखने का काम कर रहा था।

अंग्रेजों ने चली नई चाल

1947 में देश की स्वाधीनता के समय अंग्रेजों ने बड़ी चालाकी दिखाते हुए भारत को खंड – खंड करने का लक्ष्य अपने समक्ष रखा। अपने इस गुप्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने भारत की सभी रियासतों के समक्ष यह प्रस्ताव रख दिया था कि वे चाहें तो भारत के साथ सम्मिलित हो सकती हैं और चाहें तो पाकिस्तान के साथ जा सकती हैं । इसके अतिरिक्त यदि वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी बनाए रखना चाहती हैं तो वह ऐसा भी कर सकती हैं। अंग्रेजों ने भारत के टुकड़े -टुकड़े करने का जो यह प्रस्ताव देसी रियासतों के समक्ष रखा था, उसे बड़ी सावधानी से सरदार वल्लभभाई पटेल ने असफल कर दिया। उन्होंने सभी देशी रियासतों का भारत संघ के साथ विलय करने में सबसे महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके उपरांत भी जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू कश्मीर जैसी रियासतें रह गईं जो अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखना चाहती थीं। इनमें से भी जूनागढ़ और हैदराबाद को सरदार वल्लभ भाई पटेल देश की स्वाधीनता के पश्चात भारत के साथ मिलाने में सफल हो गए थे, परंतु एक जम्मू कश्मीर की रियासत ऐसी रह गई थी जिसे वह चाहकर भी भारत के साथ नहीं मिला पाए थे, क्योंकि इस रियासत के बारे में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उनसे स्पष्ट मना कर दिया था कि इसके बारे में वह स्वयं निर्णय लेंगे।

पंडित नेहरू की भूल

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए जम्मू कश्मीर की रियासत को देश के लिए नासूर बना दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रह के चलते महाराजा हरिसिंह को नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास किया और कश्मीर को लेकर शेख अब्दुल्लाह का साथ देते रहे। शेख अब्दुल्ला के साथ कश्मीर के अधिकांश वे मुसलमान थे जो पिछले कई सौ वर्ष से कश्मीर में हिंदू के अस्तित्व को या तो मिटाने में लगे रहे थे या उसके शासन को किसी भी स्थिति में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। जबकि महाराजा हरि सिंह के साथ भारत की वह चेतना शक्ति कार्य कर रही थी जो भारत के मुकुट कहे जाने वाले कश्मीर को हर स्थिति – परिस्थिति में भारत के साथ लगाए रखना चाहती थी और जिसने इस कार्य के लिए सैकड़ों वर्ष तक संघर्ष किया था। इस प्रकार महाराजा हरि सिंह देश की सभी राष्ट्रवादी शक्तियों के प्रतीक बन गए थे। वह राष्ट्रीय चेतना का साकार रूप दिखाई देते थे।
कश्मीर की समस्या को 1947 या उसके बाद की घटनाओं के साथ जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। इसे मुसलमानों के इस स्वभाव के साथ जोड़कर देखना चाहिए कि वे कश्मीर को सैकड़ों वर्ष से अपने हाथ में रखने षड़यंत्र रचते रहे थे । यहां पर उठने वाली हिंदू शक्तियों का दमन करने का कोई भी विकल्प उन्होंने छोड़ा नहीं था। कश्मीर को लेकर इस्लाम का दृष्टिकोण उसे लूटने और मिटाने का था। कश्मीर से हिंदू अस्तित्व को समाप्त करने का था । कश्मीर का पूर्ण इस्लामीकरण कर देने का था। वास्तव में मुसलमानों की इस सोच और स्वभाव की परिणति ही शेख अब्दुल्लाह था। जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरू का आशीर्वाद प्राप्त होना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण था। देश के नेता के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू को कश्मीर के इतिहास को समझकर उस समय महाराजा हरिसिंह के साथ खड़ा होना चाहिए था।
राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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