वैदिक सम्पत्ति : तृतीय खण्ड ,: यूरोप निवासी ईसाई और आर्य लोग
गतांक से आगे…..
चौथी यूरोपनिवासिनी ईसाई जाती है, जिसने भारत में आकर आर्यों के रहे रहे विश्वासों को बदलने और वैदिक साहित्य के द्वारा अपने सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए महान प्रयत्न किया हैं।यद्यपि ईसाई जाति ने इस देश को बहुत बड़ी हानि पहुंचाई है, परन्तु हम यहां वह सब नहीं लिखना चाहते हैं। हम यहां यह नहीं लिखना चाहते कि ईसाइयों के शासन द्वारा हिंदुओं को क्या नफा और नुकसान हुआ। हम यह भी नहीं लिखना चाहते कि देश में आने के साथ ही वास्कोडिगामा ने अपने आश्रयदाता कालिकट के राजा के साथ कैसी बेईमानी की ? हम यह भी नहीं लिखना चाहते कि पुर्तगाल के पादरियों ने गोवा में मां बाप विहीन लड़कों को किस जालिमाना तरीके से क्रिश्चियन बनाया और हम यहां यह भी नहीं लिखना चाहती कि किस प्रकार यहां के कारीगरों के अंगूठे को काट-काटकर इन ईसाइयों ने यहां का व्यापार नष्ट किया और इस तपस्वी देश को विलासी बनाया। क्योंकि सभी जानते हैं कि भारतवासी इनके कारण भूख और अपमान से शारीरिक तथा मानसिक बल खो चुके हैं।अतः हम यहां केवल उतना ही भाग लिखना चाहते हैं, जिसके कारण हमारे आर्यत्व अर्थात् वैदिकता का ह्यस हुआ है। यह मानी हुई बात है कि जब कभी कोई नवीन जाति दूसरी जाति में अपने विचार और विश्वास दाखिल करना चाहती है, तो वह उस जाति की कुछ बातों को मान लेती है, कुछ का अर्थ बदल देती है और कुछ अपने विचार उस में दाखिल कर देती है। इस देश में ईसाइयों ने भी इस सिद्धांत से बहुत लाभ उठाया है। आरंभ में ईसाई पादरियों ने देखा कि यहां के ‘धर्मगुरु ब्राह्मण’ है, अतः वे भी यज्ञोपवीत पहकर और ब्राह्मणों के से अपने नाम रखकर ईसाई धर्म का उपदेश करने लगे। जब उन्होंने देखा कि यहां साधु सन्यासियों का बड़ा मान है, उन पर लोग बड़ी श्रद्धा रखते हैं और उनके वचनों को मानते हैं, तब मुक्ति फौज के ईसाई प्रचारको को ने भी वस्त्रों को भगवा रंग में रंग का और सन्यासियों का भेष बनाकर प्रचार करना आरंभ किया। इसी तरह उन्होंने देखा कि, यहां उपनिषदों का बड़ा मान है तब वाजसनेयी उपनिषद् की ‘ईशावास्यमिदं संर्व ‘ इस श्रुति से ईसा मसीह का उपदेश करने लगे। इसी तरह संस्कृत में बाइबल को लिखवाकर भी बड़े-बड़े पंडितों को ईसाई बना लिया। यह सारी हकीकत सब लोग जानते हैं,इसलिए यह विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है। हां, केवल इस बात का जिक्र कर देना आवश्यक है कि, इन्होंने इस प्रकार अपने सिद्धांतों को संस्कृत द्वारा हिनदुओं में प्रचलित करने की जालसाजी की।
क्रमशः