काशी विश्वनाथ मंदिर पर कई बार हुए आक्रमण
आजकल काशी विश्वनाथ मंदिर का प्रकरण विशेष रूप से समाचार पत्र पत्रिकाओं की सुर्खियों में है । इसके ऐतिहासिक महत्व पर यदि विचार किया जाए तो पता चलता है कि काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है। इस मंदिर का उल्लेख स्कंद पुराण में भी मिलता है। भारत पर जब मुस्लिम आक्रमणकारियों ने आक्रमण करने आरंभ किए तो हम यह सभी भली प्रकार जानते हैं कि उनके आक्रमण भारतीय धर्म और संस्कृति के विनाश के लिए किए गए आक्रमण थे उन्होंने भारतीय संस्कृति के प्रतीक मंदिरों को अपने आक्रमण का मुख्य निशाना बनाया। भारत के मंदिरों को निशाना बनाने का एक कारण यह भी था कि जहां राजनीतिक शक्ति के केंद्र के रूप में स्थापित दुर्गों को लूटने या नष्ट करने में मुस्लिम आक्रमणकारियों को अथक प्रयास करना पड़ता था और अनेक लोगों को अपने प्राणों से हाथ भी धोना पड़ता था, वहीं मंदिरों को लूटने और नष्ट करने से उनके दो काम पूरे हो जाते थे। एक तो आस्था और धर्म के केंद्र मंत्रियों को लूटने से भारतीय धर्म और संस्कृति को गहरा आघात लगता था, दूसरे इन मंदिरों में कभी-कभी किलों से भी अधिक धन संपदा उन्हें प्राप्त हो जाती थी। इसके अतिरिक्त किलों जैसी सुदृढ़ व्यवस्था मंदिरों की नहीं थी, इसलिए किलों की अपेक्षा बहुत कम शक्ति नष्ट करके मंदिरों को जीता जा सकता था।
इसी प्रकार के राजनीतिक और धार्मिक उद्देश्यों से प्रेरित होकर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने विश्वनाथ मंदिर को लूटने का भी अनेक बार प्रयास किया। हम सभी जानते हैं कि मोहम्मद गौरी नाम के एक मुस्लिम आक्रमणकारी ने भारत पर एक बार नहीं कई बार घातक आक्रमण किये थे। यद्यपि उसके प्रत्येक आक्रमण का सामना भारत के वीर योद्धाओं ने जमकर किया था। भारत के वीर योद्धाओं ने भारतीय धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अनेक बलिदान भी दिए। मोहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने काशी विश्वनाथ मंदिर को क्षतिग्रस्त करने और वहां से अकूत संपदा को लूट कर भारत को आर्थिक क्षति पहुंचाने के उद्देश्य से इस पर आक्रमण किया था।
कुतुबुद्दीन ऐबक के द्वारा यह आक्रमण 1194 में किया गया यह आक्रमण इतना घातक और शक्तिशाली था कि वह विदेशी राक्षस हमलावर भारत की संस्कृति और धर्म के केंद्र काशी विश्वनाथ के मंदिर को तोड़ने में सफल हो गया था ।
समकालीन इतिहास की यह बहुत महत्वपूर्ण घटना थी, जब काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने में कोई विदेशी आक्रमणकारी पहली बार सफल हुआ था । यद्यपि इस घटना के पश्चात भारत के लोगों में भी तीव्र प्रतिक्रिया देखने को मिली। लोगों को अपनी संस्कृतिक विरासत के प्रतीक इस मंदिर को तोड़े जाने का बहुत अधिक दुख हुआ था । राष्ट्रीय स्तर पर सभी को इस बात की अपेक्षा थी कि कोई दानदाता खड़ा हो और इस मंदिर का पुनः निर्माण कराए। राष्ट्र की आत्मा की पुकार को 1230 ईस्वी में गुजरात के एक व्यापारी ने सुना और उन्होंने अपने पवित्र धन से इस मंदिर का पुनरुद्धार कराया।
यह संस्कृति नाशक इस्लाम के आक्रमणकारियों को इस मंदिर का पुनरुद्धार या पुनर्निर्माण रास नहीं आया। इसके पश्चात भी इसे तोड़ने के लिए उनकी योजनाएं निरंतर बनती रहीं। यद्यपि लगभग ढाई सौ वर्ष से भी अधिक काल तक भारतवासी अपनी संस्कृति के केंद्र बने इस मंदिर की सुरक्षा करने में सफल रहे। भारतीय इतिहास के लेखकों ने हमारे इतिहास के निराशाजनक बिंदुओं को अधिक उभारकर प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि हिंदू वैदिक धर्म रक्षकों के उन प्रयासों को इतिहास में स्थान और मान्यता प्रदान नहीं की गई जिनसे हिंदू गौरव उभर कर सामने आए । भारत के इतिहास लेखकों के इसी द्वेष भाव के चलते उस व्यापारी का नाम भी कहीं इतिहास में नहीं है, जिसने अपने पवित्र धन से इस मंदिर का पुनरुद्धार कराया था।
इस मंदिर पर 1447 से 1458 के बीच हुसैन शाह शरीकी की कुदृष्टि पड़ी। जिसने हिंदुओं के इस पवित्र धर्मस्थल को एक बार फिर तोड़ कर क्षतिग्रस्त कर दिया था। 1489-1517 ई 0 के बीच सिकंदर लोदी ने भी अपना हिंदू विरोधी भाव प्रकट किया और काफिरों के प्रति अपने हृदय में द्वेष भाव के चलते उसने भी इस मंदिर को तोड़ कर नष्ट कर दिया। इसके पश्चात अकबर के समकालीन राजा टोडरमल ने इस मंदिर के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए इसके पुनर्निर्माण का संकल्प लिया। राजा टोडरमल अकबर के नवरत्नों में से एक थे। इसके उपरांत भी उन्होंने अपने भीतर के भावों को प्रकट करते हुए इस मंदिर का जीर्णोद्धार 1585 ई0 में कराया। मंदिर का जीर्णोद्धार कराने के पश्चात राजा टोडरमल ने इस मंदिर की जिम्मेदारी पंडित नारायण भट्ट को सौंप दी थी।
उसके पश्चात जिस मंदिर का विध्वंस कुख्यात मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा करवाया गया। यह घटना 1669 की है। इस क्रूर और निर्दयी मुगल बादशाह के शासनकाल में एक नहीं अनेक हिंदू मंदिरों का विनाश किया गया था। हिंदू धर्मावलंबियों के प्रति पूर्णतया असहिष्णु था। उसकी धर्मांधता सिर चढ़कर बोलती थी।
।।इतिहासकार एल.पी. शर्मा की किताब-‘मध्यकालीन भारत’ के अनुसार – ‘1669 में सभी सूबेदारों और मुसाहिबों को हिंदू मंदिर और पाठशालाओं को तोड़ देने की आज्ञा दी गई। इसके लिए एक अलग विभाग भी खोला गया. ये तो संभव नहीं था कि हिंदुओं की सभी पाठशालाएं और मंदिर तोड़ दिए जाते, लेकिन बनारस का विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवदेव मंदिर, पटना का सोमनाथ मंदिर और प्रायः सभी बड़े मंदिर, ख़ास तौर पर उत्तर भारत के मंदिर इसी समय तोड़े गए।’
काशी विश्वनाथ के इस मंदिर के पास ज्ञानवापी मस्जिद कब अस्तित्व में आई ? इस बात को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि जिस समय राजा टोडरमल ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था, उसी समय अकबर का कृपापात्र बने रहने के लिए उन्होंने यहां पर ज्ञानवापी मस्जिद का भी निर्माण करवा दिया था। इसके पीछे उनका दृष्टिकोण यह भी रहा होगा कि ऐसा करने से भविष्य में यहां पर कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं होगा, या मंदिर विध्वंस नहीं किया जाएगा। इसके साथ ही कुछ इतिहासकारों की मान्यता यह भी है कि जिस समय औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर का विध्वंस कराया था , उसके कुछ वर्ष पश्चात उसने ही यहां पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण मंदिर के अवशेषों पर ही करवा दिया था।
जिस समय औरंगजेब ने इस मंदिर का विध्वंस करवाकर यहां मस्जिद का निर्माण करवाया था, उसके लगभग एक सौ वर्ष पश्चात इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने इस मंदिर के जीर्णोद्धार का संकल्प लिया। रानी अहिल्याबाई की इस पवित्र भावना को केवल उनकी धार्मिक आस्था तक जोड़ कर देखना उनके साथ अन्याय करना होगा। वास्तव में उनका यह पवित्र कार्य अपनी धार्मिक आस्था के प्रकटन से कहीं ऊंचा था ।इसके पीछे उनका उद्देश्य राष्ट्र रक्षा धर्म रक्षा का भी था । निश्चय ही उनके भीतर राष्ट्रभक्ति की भावना के चलते ही उन्होंने इस मंदिर के जीर्णोद्धार का संकल्प लिया होगा। इसके अतिरिक्त इस मंदिर को लेकर होते रहे संघर्ष से भी वह परिचित रही होंगी। साथ ही साथ उन्हें यह भी ज्ञात होगा कि अब से पहले हमारे राष्ट्र की भावनाओं के प्रतीक इस मंदिर के प्रति भारत के लोग किस प्रकार चिंतित रहे हैं और समय-समय पर उन्होंने इसके लिए अपने बलिदान दे देकर इसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए किस प्रकार संघर्ष किया है ? कहना न होगा कि जब रानी ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया तो एक प्रकार से उन्होंने इस मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए अब से पहले किए गए सभी प्रयासों को नमन किया और जिन लोगों ने इसके पुनर्निर्माण के संघर्ष में अपना बलिदान दिया था उनको अपनी मौन श्रद्धांजलि अर्पित की।
अब से कुछ समय पूर्व प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर का उद्घाटन किया था तो उस समय महारानी अहिल्याबाई के इस योगदान को कृतज्ञ राष्ट्र ने स्मरण किया था। उस समय कृतज्ञ राष्ट्र ने यह भी निर्णय लिया था कि रानी अहिल्याबाई के योगदान का शिलापट और उनकी एक मूर्ति ‘श्री काशी विश्वनाथ धाम’ के प्रांगण में लगाई जाएगी। रानी अहिल्याबाई द्वारा यह कार्य 1780 ईस्वी में संपन्न कराया गया था।
इन घटनाओं और ऐतिहासिक तथ्यों से पता चलता है कि इस मंदिर के निर्माण और विध्वंस की लंबी कहानी है। आज हमें इसके प्रति हिंदू समाज की श्रद्धा और इसके पुनरुद्धार के लिए किए गए महान कार्यों को पवित्र हृदय से स्मरण करने की आवश्यकता है। किसी भी कृतज्ञ राष्ट्र को अपने धर्म रक्षक संस्कृति रक्षक राष्ट्र रक्षक लोगों के प्रेरणास्पद और गौरवपूर्ण कार्यों को विस्मृत नहीं करना चाहिए। अच्छी बात यह होती है कि राष्ट्र अपने महापुरुषों के महान कार्यों से शिक्षा ले और उनके महान कार्यों के ज्योति स्तंभों को अपने लिए प्रेरणा पुंज मान कर कार्य करे। जिससे इतिहास जीवंत बना रहता है। इसके अतिरिक्त जिन लोगों ने देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए महान कार्य किए हैं, उनकी महानता की परंपरा सतत प्रवाहित होती रहती है।
1991 में काशी विश्वनाथ मंदिर के पुरोहितों के वंशजों ने वाराणसी सिविल कोर्ट में याचिका दायर की। याचिका में कहा गया है कि मूल मंदिर को 2050 वर्ष पहले राजा विक्रमादित्य ने बनवाया था। उसी मूल मंदिर को तोड़ तोड़कर इस्लाम अपना हिंदू विरोधी चेहरा दिखाता रहा है।आज भी इस मजहब के मानने वाले लोग इस मंदिर की वास्तविकता को सामने न आने देने को लेकर एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। बहुत ही अच्छा होगा कि सरकार इस्लाम के मानने वाले लोगों के इस प्रकार के आचरण को उपेक्षित कर इस मंदिर के हिंदू स्वरूप को स्थापित करे।इतना ही नहीं, यहां पर एक यज्ञ वेदी बनाकर वेद की ऋचाओं का चौबीसों घंटे हवन चलाने का क्रम भी आरंभ करना चाहिए। जिसके लिए अच्छे वैदिक विद्वानों को यहां पर नियुक्त किया जाए और उनके जीविकोपार्जन की सारी व्यवस्था सरकार अपने खर्चे से करे। यदि वैदिक यज्ञ पर अमेरिका जैसा देश शोध अनुसंधान कर सकता है और निरंतर यज्ञ अग्निहोत्र सकता है या करने की व्यवस्था कर सकता है तो भारत सरकार ऐसा क्यों नहीं कर सकती ?
डॉक्टर राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत