केजरीवाल लोकतंत्र और पारदर्शिता
राजनीति में नैतिकता और शुचिता लाकर पूर्ण पारदर्शिता से कार्य करने की बात कहकर दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने दिल्ली पर अधिकार किया था। उन्होंने दिल्ली के विधानसभ चुनावों में अप्रत्याशित जीत प्राप्त की। जनता ने देश मोदी को दे दिया और दिल्ली केजरीवाल को। राजनीति अपने मूल स्वभाव में अनैतिक और अशुचितापूर्ण कार्यों का विरोध करती है, पर इसे राजनीति की घोर विडंबना ही कहा जाएगा कि व्यवहार में यह नैतिक और शुचिता युक्त नही है। जिससे कई लोगों को राजनीति शब्द से ही घृणा हो गयी है।
बात आम आदमी पार्टी की करें तो इसके लिए दिल्ली ने उस समय प्रसव पीड़ा अनुभव की थी जब अन्ना हजारे दिल्ली में भ्रष्टाचार के विरूद्घ बैठकर लड़ाई लड़ रहे थे। लोगों को उस समय लगा था कि जैसे अब हमारे लिए शुभ दिनों की सुप्रभात निकट है। उन परिस्थितियों और लोगों की मानसिकता का लाभ केजरीवाल ने उठाया और अन्ना आंदोलन को यह व्यक्ति भुना गया।
राजनीति में परिस्थितियों को भुनाना कोई अपराध नही होता है, ऐसा माना जाता है। पर परिस्थितियों को अपने हित में भुनाने की छूट प्राप्त कर लेना या ऐसी छूट को राजनीति से संबंधित लोगों के द्वारा विधिमान्य घोषित करा लेना भी अपने आप में एक भ्रष्टाचार है। लोगों को झूठे घोषणापत्रों के आधार पर मूर्ख बनाना और उनके मत प्राप्त करना भी अपने आप में एक भ्रष्टाचार है। केजरीवाल इसी भ्रष्टाचार से जन्मे नेता हैं। उन्होंने अपनी पार्टी का नाम आम आदमी पार्टी रखा, पर यह पार्टी ‘फर्जी डिग्रीधारियों की पार्टी’ बनकर रह गयी है। जिससे आम आदमी दुखी है।
अब केजरीवाल भी शांत हैं। उनके ‘घर’ में मातम सा छा गया है। कानून मंत्री पद पर सुशोभित शक्ति जब गैरकानूनी कार्यों में संलिप्त पाया जाए, या उस पर ऐसा करने के आरोप लगें तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि केजरीवाल की आम आदमी की नजरों में अब कितनी इज्जत बची होगी? यह और भी दु:खद तथ्य है कि फर्जी डिग्री धारी कई अन्य आप विधायकों के होने की सूचना भी रह रहकर आ रही है। वास्तव में राजनीति को लोगों में ‘घृणास्पद’ बनाने में नेताओं की ऐसी कार्यशैली ने भी महत्वपूर्ण योगदान किया है।
जनता को भी सावधान होना होगा। जनता को अपना निर्णय देते समय किसी लहर के होने न होने की प्रतीक्षा नही करनी चाहिए। लहर बनने का अभिप्राय है जनता के विवेक पर ताला जड़ देना। लोगों की भाषण और अभिव्यक्ति कि मौलिक स्वतंत्रता को बाधित कर देना या प्रतिबंधित कर देना। लहर को एक सम्मोहन के रूप में पैदा करने की राजनीतिज्ञों की परंपरा भारत में रही है। जिससे बंधकर आम आदमी लगभग विवेकशून्य हो जाता है। इसी विवेक शून्यता पर बैठकर ‘राजनीति की मधुमक्खी’ शहद चूसती है।
लहर ना बनाकर अपने कार्यों के प्रति जनसाधारण में आकर्षण उत्पन्न कर वोट मांगना एक अलग बात है। केजरीवाल के पास कार्य दिखाने के लिए कोई कागज पत्र नही था। इसलिए वह सम्मोहन के माध्यम से लोगों को बांधते गये और लोगों की ‘विवेकशून्य’ मानसिक अवस्था को अपने प्रति मत देने में तबदील करा गये। दिल्ली ने गलती की और अब वह अपनी गलती पर पश्चाताप कर रही है कि सम्मोहन में फंसकर यह भी नही देखा गया कि किस व्यक्ति को ‘आप’ ने टिकट दे दिया है और वह हमारा प्रतिनिधि बनने की क्षमता रखता भी है या नही? देश की जनता सावधान होकर सोचे कि उसे जो लोकतंत्र परोसा जाता है वह अंधा लोकतंत्र है, जो जनता की आंखों पर ही पट्टी बांध देता है। हम जिस लोकतंत्र को ढो रहे हैं वह हम पर भार है, और यह हमें डुबाकर मार देना चाहता है। यह हमें आंखें नही देता, बल्कि हमारी आंखों को फोड़ता है। इसकी इसी मूल प्रकृति के कारण ही ‘फर्जी’ लोग हमारे प्रमाणित प्रतिनिधि बनने में सफल हो गये। लोकतंत्र में पारदर्शिता नही है, या पारदर्शिता में लोकतंत्र नही है-केजरीवाल को इस पहेली का उत्तर देना ही होगा। अपनी प्रामाणिकता को सिद्घ करने के लिए वह जितनी शीघ्रता से इस पहेली को सुलझायंगे उतना ही अच्छा रहेगा।