कश्मीरी आतंकवाद की पूरी कहानी : कश्मीर का गौरवपूर्ण वैदिक काल
कश्मीरी आतंकवाद की पूरी कहानी
अध्याय – 1
वैदिक संस्कृति और सभ्यता के निर्माण में कश्मीर का विशेष और महत्वपूर्ण स्थान है। सृष्टि के प्रारंभिक काल से ही भारतीय संस्कृति की समृद्ध परंपरा को और भी अधिक मुखरित करने में कश्मीर का बहुत भारी योगदान रहा है । अनेकों ऋषियों ने यहां से वेदों की ऋचाओं के माध्यम से संसार को सुख – शांति और समृद्धि का मार्ग बताने का उत्कृष्ट और अनुकरणीय कार्य किया। जिसके लिए कश्मीर संसार के कोने – कोने में जाना गया। शांति और कश्मीर का गहरा रिश्ता है। अशांति कश्मीर की समृद्ध वैदिक परंपरा का ना तो कभी हिस्सा रही है और ना हो सकती है। अशांति को जिन लोगों ने कश्मीर की शांति का हिस्सा बना कर प्रस्तुत किया है या ऐसा करने का प्रयास कर रहे हैं, वह कश्मीर के बारे में या तो कुछ जानते नहीं या फिर वे ऐसे लोग हैं जो कश्मीर की शांति में आग लगाते रहने के लिए जाने जाते हैं। कश्मीर की संस्कृति शांति है, कश्मीर का धर्म शांति है , कश्मीर की शक्ति शान्ति है और कश्मीर की भक्ति भी शांति है। कश्मीर का चिरकालीन इतिहास हमारे इन कथनों की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है। आज जिन लोगों ने कश्मीर में आग लगाई है या जो लोग कश्मीर की वादियों में लगी आग को उसकी कश्मीरियत का एक हिस्सा बनाकर प्रस्तुत कर रहे हैं वास्तव में वे कश्मीर के हितैषी नहीं हैं, वे तो कश्मीर के शत्रु हैं। ऐसे लोगों ने सांप्रदायिक नीतियों को अपनाकर कश्मीर की सर्व-सम्प्रदाय-समभाव की नीति को बिसरा दिया।
कश्मीर की कश्मीरियत किसी मिली-जुली संस्कृति या गंगा जमुनी संस्कृति को भी नहीं कहा जा सकता । क्योंकि कश्मीर वैदिक ऋचाओं का प्रदेश है । जिसका सर्व समन्वयवादी सोच के साथ इतना गहरा संबंध है कि उसका अन्यत्र कोई मेल नहीं। मिली-जुली संस्कृति में एक से अधिक का बोध अपने आप प्रकट होता है। जिसमें विभिन्न अस्तित्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। जबकि सर्व समन्वय में एक में सब और सब में एक दिखाई देता है। एक में सब और सब में एक ही भारतीय संस्कृति का प्राणतत्व है। भारत की संस्कृति में अस्तित्वों का अस्तित्व मिट जाता है और केवल एक अस्तित्व रह जाता है । वह अस्तित्व ही भारत का प्राण तत्व है। वही इसका धर्म है, वही आर्यत्व है और वही इसका आज के संदर्भ में हिंदुत्व है। एक में सब और सब में एक ही भारत का धर्म है। यह प्राण तत्व भारत के कण-कण में रचा-बसा है, जो हमें ‘एक’ के साथ बांधकर नृत्य करने के लिए प्रेरित करता है । यह वैसे ही है जैसे हमारे आत्मतत्व या प्राण तत्व के संकेत पर हमारे सारे शरीर का रोम-रोम गति करता है और परमपिता-परमेश्वर के परमात्म-तत्व के साथ मिलकर लोक लोकांतर गति करते हैं ।
भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के इस मनोरम नृत्य से ही भारतीय संस्कृति का संगीत निकलता है। जिसकी सुमधुर स्वरलहरियों पर संपूर्ण भूमंडल ही थिरक उठता है। इन स्वर लहरियों को अग्नि की भेंट चढ़ाने वाले या बारूद की खेती करने वाले या तलवार से काट- काटकर टुकड़े करने की धमकी देने वाले लोगों के साथ कश्मीर के प्राण-तत्व या कश्मीर के धर्म ने या कश्मीर की संस्कृति ने कभी समझौता नहीं किया।
नीलमत पुराण और कश्मीर
नीलमत पुराण में कश्मीर के भूगोल का बड़ा विस्तृत और विशद वर्णन है । इस पुराण की रचना महर्षि कश्यप के पुत्र नील मुनि के द्वारा की गई बताई जाती है। नीलमत के बहुत से श्लोकों को लेकर ‘राजतरंगिणी’ में भी कश्मीर का अच्छा उल्लेख किया गया है । इस पुराण में कश्मीर के पर्वतों, नदियों, तालाबों, तीर्थों, देव-स्थानों, झरनों आदि का बहुत ही विशद वर्णन किया गया है। किसी भी देश के या प्रदेश के पर्वत, नदी, तालाब, तीर्थ स्थान आदि के नाम उसके इतिहास को सही ढंग से प्रस्तुत करने में बहुत अधिक सहायक होते हैं। भौगोलिक नाम जितने ही अधिक प्राचीन होते हैं, उतना ही प्राचीन उस क्षेत्र या देश का इतिहास होता है।
इतिहास और भूगोल का बड़ा गहरा संबंध है। इतिहास भूगोल से ऊर्जा प्राप्त करता है और भूगोल इतिहास से अपनी पहचान पाता है। भूगोल उतना ही पुराना होता है जितना इतिहास और इतिहास भी उतना ही पुराना होता है जितना भूगोल। जैसे भूगोल को जलवायवीय परिवर्तन प्रभावित करते हैं, वैसे ही इतिहास को विदेशियों के आक्रमण प्रभावित करते हैं। कई बार ऐसा हो सकता है कि किसी क्षेत्र या देश के भौगोलिक स्थानों के नाम बाद में पड़े हों या भौगोलिक स्थानों के नाम देश-काल- परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित हो गए हों या कर दिए गए हों। इसके उपरांत भी इसका अभिप्राय यह नहीं कि इतिहास परिवर्तित नामों के कालक्रम से बनना आरंभ होता है। इसके विपरीत सच यही है कि इतिहास तो परिवर्तित नामों से पहले के मूल नामों के साथ ही बनना आरंभ हो जाता है और वह लोगों को बड़ी ईमानदारी से परिवर्तित नामों के कालक्रम को भी बताने का काम करता है।
यदि कोई इतिहास परिवर्तित नामों के कालक्रम से वर्णन करना आरंभ करता है या मूल नामों की उपेक्षा करता है तो वह इतिहास इतिहास नहीं होता।
कश्मीर के इतिहास के संदर्भ में हमें इस सत्य को समझना और परखना चाहिए। ऐसे लोग बहुत हैं जो इतिहास लिखते समय कश्मीर के संदर्भ में हमें यह बताने की मूर्खता करते हैं कि इस्लाम कश्मीर इस्लाम बहुल प्रांत है और इसकी संस्कृति गंगा जमुनी संस्कृति रही है। ऐसे इतिहासकारों के शब्दों में बेईमानी होती है। बड़ी मिठास के साथ ये झूठ बोल जाते हैं और सत्य के साथ ही झूठ की मिलावट भी इतनी चालाकी से करते हैं कि उसका प्रथम दृष्टया प्रभाव बड़ा सकारात्मक पड़ता दिखाई देता है । पर वास्तविकता यह होती है कि उनका यह बेईमानी पूर्ण कृत्य राष्ट्र की बहुत बड़ी हानि कर जाता है। अच्छी बात यह होगी कि कश्मीर का वैदिक हिंदू स्वरूप प्रमुखता से स्पष्ट किया जाए । यह बताया जाए कि इस प्रदेश में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने कब आकर घुसपैठ करके यहां की वैदिक संस्कृति के मौलिक स्वरूप के साथ छेड़छाड़ की और उसका विनाश करके इसका सारा परिदृश्य ही परिवर्तित कर दिया।
यदि ईमानदारी पूर्ण लेखन के इस ईमानदारी पूर्ण ढंग को अपनाया जाए तो बहुत कुछ अस्पष्ट स्पष्ट हो जाता है। अस्पष्ट को स्पष्ट करना ही इतिहास का उद्देश्य है। लगभग 1 अरब 97 करोड वर्ष पुरानी वैदिक संस्कृति का कश्मीर से उतना ही पुराना संबंध है जितना मानव जाति का अपना इतिहास पुरातन है। ऐसे में जो लोग इस्लाम को कश्मीर की कश्मीरियत के साथ जोड़कर दिखाने का प्रयास करते हैं और यह दिखाते हैं कि कश्मीर ने इस्लाम के आने के बाद ही आंखें खोलनी आरंभ कीं , हमें उनके बेईमानी पूर्ण कृत्य को समझने में देर नहीं लगेगी। हम समझ जाएंगे कि कश्मीर में इस्लाम कल परसों की घटना है जबकि कश्मीर का इतिहास करोड़ों वर्ष पुराना है। हां ऐसे में दिखाना यह चाहिए कि इस्लाम ने कश्मीर में घुसकर कितना खून खराबा किया है और किस प्रकार उसने कश्मीर के मौलिक स्वरूप को विकृत करने का घृणास्पद खेल खेला है ? कृमशः
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत