सरकारी हिंदू , असरकारी हिंदू
अनिल त्रिवेदी
सनातन समय से दुनिया भर में हिन्दू दर्शन,जिज्ञासा, जीवनी शक्ति और अध्यात्म की तलाश का विचार या मानवीय जीवनपद्धति ही रहा है।आज भी समूची दुनिया में उसी रूप में कायम हैं।साथ ही सनातन समय तक हिन्दू दर्शन इसी स्वरूप में रहेगा भी। हिन्दू शब्द से एक ऐसे दर्शन का बोध स्वत:ही होता आया है जिसे कभी भी और किसी भी प्रकार से बांधा या सिकोड़ा जाना संभव ही नहीं हो सका।जैसे आकाश का कोई आकार या प्रकार ही नहीं होता कोई व्याख्या या स्वरूप भी नहीं होता, कोई सीमा रेखा या बंधन भी नहीं हो सकता वैसे ही हिन्दू दर्शन या हिन्दू चिन्तन भी है। आकाश कहां से प्रारम्भ और कहां जाकर अंत यह कोई कभी तय नहीं कर सकता वैसे ही क्या हिन्दू है और क्या नहीं यह भी कोई तय नहीं कर सकता। एक से अनेक विचारों और मत मतान्तरों का सनातन सिलसिला नाम रूप के भेद से परे होकर शून्य और अनन्त दोनों में सनातन समय से समाया हुआ है। जैसे सत्य हमेशा पूर्ण ही होता है अपूर्ण या अधूरा हो ही नहीं सकता। वैसे ही सनातन का न तो आदि है न हीं अंत है।जो चला गया या बीत गया वह इतिहास बन गया या काल में समा गयाऔर जो आने वाला है वह भविष्य है पर जो आता भी नहीं और जाता भी नहीं वहीं सनातन याने हमेशा रहने वाला वर्तमान है। सनातन को न तो इतिहास बनाया जा सकता है न भविष्य को किसी रंग तथा रूप में ढाला या धकेला जा सकता है। जैसे सागर के खारेपन को न तो और अधिक खारा किया जा सकता है और न हीं खारेपन को कम किया जा सकता है। वैसे ही आप हिन्दू होकर अपने आपको जान सकते हो , मुक्त हो सकते हो पर हिन्दू विचार को औजार या हथियार बनाकर विश्व विजय का भाव भी मन में लाना वैसा ही है जैसे आकाश को छूने की कल्पना मात्र करना। हिन्दू दर्शन या सनातन विचार मूलतः आत्मज्ञान का मार्ग हैं।जैसे सागर में धरती के सारे जलप्रवाह या पानी की अनंत बूंदें सनातन समय से अपने सहज स्वरूप को खोकर सागर में विलीन होकर सागर में समा जाती हैं सागर को जीत नहीं पाती।सागर को दिशा नहीं दे सकती सागर के स्वरूप को नहीं बदल सकती अपना स्वरूप खोकर सागर का अंश मात्र ही हो सकती है। वैसे हिन्दू दर्शन हैं जिसमें मनुष्य आजीवन गोताखोरी कर सकता है उसका अंश हो सकता है पर हिन्दू विचार का निर्धारक , तारक , उद्धारक या संगठक नहीं हो सकता। हिन्दू दर्शन की व्यापकता अनन्त हैं उसे कोई व्यक्ति या समूह बांध नहीं सकता। जैसे आकाश या समुद्र को सीमित या नियंत्रित नहीं किया जा सकता वैसे ही हिन्दू दर्शन भी संगठन के रूप में नहीं ढाला जा सकता। सनातन धर्म संस्कृति सनातन स्वरूप में ही रही है और रहेगी तभी तो वह सनातन है।
सरकार याने मनुष्य की बनायी कृत्रिम व्यवस्था का आधा अधूरा अपूर्ण विचार।जो जन्मना अस्थिर चित्त अपूर्ण और अल्पजीवी आशंकित विचार व्यवस्था का पर्याय ही है । उससे ज्यादा या कम नहीं हैं। सरकारी हिन्दू चौबीस घंटे बारह महीने चिन्ताग्रस्त और आशंकित रहता है। हमेशा तनावग्रस्त और उच्च रक्तचाप से ग्रस्त बना रहता हैं। असरकारी हिन्दू मन चिन्ता से दूर सदैव शान्त चित्त रहता है। सदैव चैतन्य और आनन्द मय चित्तवृत्ति के साथ सदैव शांतिमय स्वयंस्फूर्त जीवनचर्यावाला मनुष्य याने जैविक ऊर्जा का निरन्तर गतिशील चैतन्य और साकार पिन्ड। जीवन की चेतना सुप्त जड़ता का विराट चैतन्य स्वरूप हैं। मनुष्य की जीवन यात्रा चेतना के विस्तार के निरन्तर प्रवाह जैसी ही प्रायः होती हैं। सृजन और विध्वंस भी चैतन्य मनुष्य की लहरों के समान ही मान सकते हैं।
हिन्दू दर्शन में मत-मतांतरों का अंतहीन सिलसिला सनातन समय से चला आ रहा है।फिर भी असरकारी हिन्दू दर्शन में तेरे मेरे का भाव न होकर “अहं ब्रह्मास्मि और तत्वमसि” की सनातन समझ है।बूंद कभी सागर में अपने होने न होने का अर्थ नहीं तलाशती तभी तो वह सागर के अनन्त स्वरूप को अपना ही विराट स्वरुप मान सागर में अपने अस्तित्त्व को दर्शाये बगैर सागर और बूंद के द्वंद्व का सवाल ही मन में नहीं लाती। असरकारी हिन्दू मन वचन और कर्म को जीवन का मूल आधार मानकर आत्मज्ञान से आत्मसाक्षात्कार करने को ही अपनी जीवन यात्रा या अपने चेतन स्वरूप को स्वत: ही संज्ञान लेकर अपने आप समझ लेता है।
सरकारी हिन्दू मनुष्य होकर भी अपने जीवन के मूल स्वरूप को भूलकर आजीवन लोक सागर को बांधने या दिशा देने में लगा होने का दावा करने या स्वांग रचने में लगा रहकर अपने मूल स्वरूप को चैतन्य होकर भी जानना समझना ही नहीं चाहता और अन्य मनुष्यों को नींद से जगाने में आजीवन पूर्ण रूप से जड़ता के साथ उलझा रहता है।इस तरह सरकारी हिन्दू न तो कभीआत्म समाधान अपने जीवन में पाता है और न ही अपने अन्तर मन के घमासान को आजीवन समझ ही पाता है ।इस तरह आजीवन चैतन्य स्वरूप होकर भी यंत्रवत जड़ता में जीते जी निष्प्राण बना रहता है। जीवन भर अदृश्य खतरों से चिपका रहता है।अभय और आनन्द की अनुभूति को समझ ही नहीं पाता।
जीवन का आनंद या मूल आधार अपने आत्मस्वरूप को समझने में है यही हिन्दू दर्शन का मूल स्वरूप हैं। इसे जानकर भी अनजान बने रहकर यंत्रवत प्रवृत्तियों में आजीवन लगे रहकर हम आत्ममुग्ध तो बने रह सकते हैं परन्तु आत्मज्ञान की अनुभूति नहीं कर सकते। असरकारी हिन्दू सनातन समय से जीवन के स्वरूप को सीखने समझने और जानने में अपने आप को व्यक्त करने में लगे रहते हैं।मन वचन और कर्म से शांत और व्यस्त रहते हैं।खुद स्वयं स्फूर्त रूप से जागृत रहकर शांत रहते हैं कभी विचलित और उत्तेजित नहीं होते।न किसी से अपेक्षा करते हैं न किसी की उपेक्षा करते हैं। सनातन समय से असरकारी हिन्दूओं की चैतन्य वैचारिक विरासत का अंतहीन सिलसिला जारी है।जो उनके जीवन काल में भी उसी रूप स्वरूप में अपने आप को व्यक्त करने में लगे रहे ।आजभी इस जगत में चेतना के समग्र स्वरूप को चैतन्य रूप में व्यक्त करने में असंख्य मनुष्य लगे हुए हैं और यह सिलसिला अभी भी जारी है और जारी रहेगा। मनुष्य ऊर्जा का चैतन्य या साकार पिंण्ड हैं। हिन्दू शब्द तो साकार स्वरूप या ऊर्जा का विशेषण है। मूल स्वरूप तो जीवन की ऊर्जा ही हैं। जैविकऊर्जा इस चैतन्य जगत में सर्व व्यापी है इसलिए सनातन है।तभी तो अहं ब्रह्मास्मि और तत्वमसि का सूत्र अभिव्यक्त हुआ और जीवन में अभेद और अभय की अनुभूति होती है। सरकारी और असरकारी शब्द का प्रयोग दो रूपों में दिखाई पड़ता है ।
एक जो सरकारी हैं यानी सत्ता केन्द्रित है या सत्ता के द्वारा संचालित हैं।दूसरा असरकारी यानी अन्तर्मन तक असरकारक विचार या दर्शन। ऐसे विचार जो सनातन संस्कृति में पले बढ़े और सनातन समय से चलें आये और सनातन सभ्यता में समा गये। जिन्हें मानव मन ने प्राकृतिक स्वरूप में विस्तार देकर मानवीय ऊर्जा के परमतत्व की प्राण-प्रतिष्ठा करके सनातन विचार दर्शन को अभिव्यक्त किया।जिसे सत्ता,संगठन या भौतिक समूह द्वारा अपने संकुचित अर्थ में प्रचारित करने का प्रयास तो किया जा सकता है पर सनातन विचार को दबाकर संकुचित नहीं किया जा सकता है। यही सनातन संस्कृति दर्शन या हिन्दू चिन्तन का प्राणतत्व हैं।
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