मुगल काल और कश्मीरी पंडित
मुगल काल को छद्म इतिहासकारों ने भारत के इतिहास का स्वर्णिम युग कहने तक की मूर्खता की है। यद्यपि इस काल में हिन्दू विरोध की बयार बड़ी तेजी से बहती रही । कहीं पर भी ऐसा कोई आभास हमें नहीं होता जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि मुगल काल में भारत में हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति और हिंदू समाज ने किसी भी प्रकार से उन्नति की हो।
अकबर नहीं था एक जनहितैषी शासक
मुगल वंश के बादशाह अकबर के लिए प्रचलित इतिहास में प्रशंसा के बड़े पुल बांधे गए हैं। यद्यपि वह इस प्रकार की प्रशंसा का पात्र नहीं है। क्योंकि उसके शासनकाल में भी पूरे हिंदू समाज पर अत्याचार और दमन का दौर पूर्ववत जारी रहा। 1556 से 1605 ई0 तक शासन करने वाले इस मुगल बादशाह ने हिंदुओं के प्रति अपनी वैसी ही नीतियों को जारी रखा जैसी एक मुस्लिम शासक से अपेक्षा की जा सकती है। यदि अकबर उदार और हिंदुओं के प्रति विशालहृदयता का प्रदर्शन करने वाला शासक होता तो महाराणा प्रताप जैसे लोग उसका हृदय से स्वागत करते । यदि महाराणा प्रताप और उन जैसे अन्य अनेक हिंदू योद्धा अपने समय में अकबर और उसकी नीतियों का विरोध कर रहे थे तो इसका अर्थ यही था कि वह एक अत्याचारी शासक था, जिसे सहन किया जाना भारतीयता के विरुद्ध था।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि भारत ने प्राचीन काल से ही कंस जैसे उस प्रत्येक शासक का विरोध किया है जो जनविरोधी नीतियों को लागू करने वाला होता है। भारत ने कभी भी किसी आदर्श राजा का विरोध नहीं किया। इसी बात को अकबर के संदर्भ में हमें समझना चाहिए कि यदि भारतवर्ष में उस जैसे शासक का विरोध हो रहा था तो निश्चित रूप से वह जनहितैषी शासक नहीं था।
अकबर ने अपने शासनकाल में राजा भगवानदास को कश्मीर को विजय करने का आदेश देकर एक विशाल सेना के साथ भेजा था। युसूफ शाह ने कुछ देर ही भगवानदास की सेना का सामना किया था । बाद में वह स्वयं ही अकबर की सेना के साथ जा मिला था। इसके बाद कश्मीर याकूब चाक्क के हाथों में चला गया। जिसने सफलतापूर्वक भगवानदास की सेना का सामना करना आरंभ किया । उसके पराक्रमी स्वभाव के समक्ष भगवानदास को झुकना पड़ा था और संधि करके लौटने में ही उसने अपना भला देखा था। भगवानदास के पराजित होकर लौट जाने के पश्चात याकूब ने कश्मीर के हिंदुओं पर दमन और अत्याचार का चक्र चलाना आरंभ किया। घोर सांप्रदायिकता का शिकार बने हिंदू इधर-उधर छुप – छुपाकर अपना समय काटने के लिए बाध्य हो गए। कइयों ने कश्मीर को छोड़ दिया तो कई बलात मुस्लिम बना लिए गए। उनसे गुलाम का काम लिया जाता था और प्रत्येक प्रकार से उपेक्षा और उत्पीड़न का व्यवहार उनके साथ किया जाता था। हिंदू उस समय नारकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त था। संसार की सबसे श्रेष्ठ आर्य जाति का प्रतिनिधि होकर भी हिंदू को सर्वत्र ताड़ना, प्रताड़ना, लताड़ना और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ रहा था। वास्तव में यह स्थिति बहुत ही भयानक और वेदनापूर्ण थी।
मुगलों के शासन काल में कश्मीरी पंडितों की स्थिति
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जब कश्मीर अकबर के अधीन हुआ तो हिंदुओं पर अत्याचार में कुछ कमी आई। इसका कारण यह नहीं था कि अकबर हिंदू प्रेमी था, अपितु इसका कारण यह था कि अकबर की राजधानी से कश्मीर दूर पड़ती थी। जिससे वह सीधे हिंदुओं पर अत्याचार नहीं कर पाता था। जबकि कश्मीर के स्थानीय राजाओं के लिए हिंदू पर अत्याचार करना अकबर की अपेक्षा कहीं अधिक सरल था। अकबर के द्वारा दूर से शासन सूत्र संभालने से स्थानीय हिंदू को कुछ राहत सी अनुभव हुई। कहा जाता है कि अकबर स्वयं भी कश्मीर में तीन बार गया था।
अकबर के समय में बहुत से हिंदुओं को फिर से कश्मीर में उनके मूल स्थानों पर बसाने की प्रक्रिया आरंभ करने के लिए आदित्य पंडित नामक एक कश्मीरी ब्राह्मण को एक विशेष मंत्रालय का प्रमुख बना दिया गया था। इसके शासनकाल में प्रशासन में भी कश्मीरी पंडितों का वर्चस्व बढा।
अकबर के पश्चात उसके उत्तराधिकारी जहांगीर ने भी अपने पिता जैसी नीतियों को ही कश्मीर के संदर्भ में लागू किया। जिससे इस काल में भी हिंदू उत्पीड़न उतना अधिक नहीं हुआ जितना अबसे पहले के शासकों के समय में होता रहा था। इतिहासकारों का मानना है कि न्यूनाधिक इसी परंपरा को शाहजहां के शासनकाल में भी अपनाया जाता रहा।
हमारी अपनी मान्यता है कि….
हमारा मानना है कि कश्मीर मुगल काल तक अपना पुराना वैभव लगभग पूर्णतया खो चुका था। हिंदू ऋषियों की परंपरा भी पूर्णतः समाप्त हो चुकी थी। हिंदुओं के गुरुकुल और शिक्षा के केंद्रों का ध्वस्तीकरण भी हो चुका था। इसी प्रकार हिंदुओं के धर्मस्थलों अर्थात मंदिर आदि को भी जितना मिटाया जा सकता था, उन्हें मिटा दिया गया था । हिंदुओं के भीतर अपना शासन स्थापित करने की शक्ति भी अब तक लगभग क्षीण हो चुकी थी।
इसका अभिप्राय है कि कश्मीर को दारुल – इस्लाम बनाने के काम में और कश्मीर की राजनीति का इस्लामीकरण करने में इस्लाम के मानने वाले लगभग सफल हो चुके थे। अब मुगलों को इसमें विशेष परिवर्द्धन करने की कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही थी। इस्लाम की सेवा के लिए जितना काम अब से पहले हो सकता था वह हो चुका था। उस समय हिंदू जाति की दयनीय अवस्था को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता था कि इस जाति की जितनी अधिक दयनीय स्थिति हो सकती थी , वह हो चुकी थी।
यदि मुगलों का काल वास्तव में उदार शासकों का काल था या वे वास्तव में हिंदू प्रेमी थे तो उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वह हिंदू मंदिरों, धर्मस्थलों शिक्षा के केंद्र गुरुकुल आदि की पहले जैसी व्यवस्था पर बल देते । इन सबको पूर्व की स्थिति में लाने के लिए अपनी ओर से विशेष आर्थिक सहायता प्रदान करते और हिंदुओं का ह्रदय जीतने के लिए उन्हें प्रत्येक प्रकार की उन्नति करने के समान अवसर उपलब्ध कराते। इसके अतिरिक्त हिंदुओं को अपने धर्म को फिर से स्वीकार करने की पूरी छूट प्रदान करते , परंतु अकबर से लेकर शाहजहां के शासनकाल तक ऐसा कोई संकेत या कोई बड़ा कार्य होता हुआ हमें दिखाई नहीं देता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि इन मुगल बादशाहों के समय में कश्मीर के हिंदुओं की स्थिति और सामाजिक दशा बहुत ही संतोषजनक थी।
हिंदुओं को अबसे पूर्व के मुस्लिम शासन काल में जितना निचोड़ा जा सकता था उतना निचोड़ लिया गया था। अब जब उनके पास निचोड़ने के लिए कुछ रहा ही नहीं था तो उन्हें गुलाम की सी स्थिति में बनाए रखने को मुगलों की उदार नीति नहीं कहा जा सकता । उदारता का अभिप्राय है कि किसी भी जाति वर्ग या सम्प्रदाय के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों का सम्मान किया जाएगा। उन्हें धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय प्रदान किया जाएगा। किसी भी जाति ,वर्ग या संप्रदाय के विरुद्ध ऐसा अभियान नहीं चलाया जाएगा जिससे उसके अधिकारों का हनन होता हो। अकबर आदि मुगल बादशाहों के समय में हमें ऐसा दिखाई नहीं देता कि कश्मीर के हिंदू अपने पूर्ण अधिकारों का उपभोग कर रहे थे।
स्थिति का एक पक्ष यह भी था
इसके उपरांत भी हम इतना अवश्य संतोष कर सकते हैं कि मुगल काल में यदि हिंदुओं को बहुत अधिक अधिकार नहीं दिए गए तो उन्हें बहुत अधिक सताया भी नहीं गया। इसी स्थिति को मुगलों की कश्मीर के प्रति उदार नीति का जाता है। अब यह नीति उदार थी या अपना स्वार्थ सिद्ध होने पर मन ही मन प्रसन्न रहने की मुगलों की मानसिकता को प्रदर्शित कराने वाली नीति थी, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं।
कहा जाता है कि एक बार जहांगीर झेलम नदी के किनारे अपने ही एक पुराने दरबारी सरदार मुहब्बत खान और उसके सैनिकों द्वारा घेर लिया गया था। यह घड़ी वास्तव में जहांगीर के लिए प्राणों को गंवा देने की घड़ी थी। मृत्यु का संकट उसके सामने आ उपस्थित हुआ था। दूर-दूर तक उसे ऐसी संभावना नहीं दिखाई दे रही थी कि अब वह मुहब्बत खान और उसके सैनिकों से बच पाएगा । तब संकट की इस घड़ी में मीरू पंडित नामक एक हिंदू ने नूरजहां के सुरक्षा बलों के साथ जाकर मोहब्बत खान को युद्ध में पराजित किया था। इस प्रकार मीरू पंडित ने अपने संस्कारों को प्रकट करते हुए अपनी वीरता, पराक्रम और स्वामीभक्ति का परिचय देकर जहांगीर का मन जीत लिया। इस घटना का उल्लेख करते हुए इतिहासकार मोहम्मद दीन फाक ने लिखा है – ‘मीरू पंडित की इस बहादुरी और कुशल सैन्य संचालन को देखकर जहांगीर ने इसे कश्मीर में जागीरें प्रदान कीं और पूरे प्रदेश के किलों की सुरक्षा हेतु प्रमुख सेनापति नियुक्त कर दिया।’
इस प्रकार की जहांगीर की नीति को ही हिंदुओं के प्रति उसकी उदार नीति कहा जाता है। यहां पर यदि सूक्ष्मता से देखा जाए तो पता चलता है कि जहांगीर ने हिंदू मीरू पंडित के साथ यह उदारता केवल इसलिए दिखाई थी कि मीरू ने उसके प्राणों की रक्षा की थी। यह बहुत संभव है कि जब मीरू पंडित को इस प्रदेश के किलों का प्रमुख सेनापति नियुक्त कर दिया गया तो उसने अपने स्थानीय हिंदू भाइयों के साथ उदारता का व्यवहार किया होगा। जिसकी उससे अपेक्षा भी की जा सकती है । इस प्रकार यदि उस समय हिंदू सुरक्षित रह सके तो उसका कारण केवल यह था कि जहांगीर की ओर से एक हिंदू अधिकारी को प्रदेश के किलों का प्रभारी बना दिया गया था। यद्यपि इस अधिकारी को भी इतने अधिकार प्रदान नहीं किए गए थे कि वह हिंदुओं के मंदिरों का जीर्णोद्धार करा सके।