ओ३म् “जीवात्माओं के शरीरों की आकृति व सामर्थ्य में भेद का कारण”
ओ३म्
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जीवात्मा जन्म-मरणधर्मा है। ईश्वर की व्यवस्था से इसे अपने पूर्वजन्मों के कर्मानुसार जाति, आयु व भोग प्राप्त होते हैं। इन तीनों कार्यों को प्राप्त करने में यह परतन्त्र है। जीव मनुष्य योनि में जन्म लेने के बाद कर्म करने में तो स्वतन्त्र है परन्तु उनके फल इसे ईश्वर की व्यवस्था से मिलते हैं जिसमें यह परतन्त्र होता है। यह भी ज्ञातव्य है कि मनुष्य योनि उभय योनि होती है। इस योनि में मनुष्य स्वतन्त्रतापूर्वक कर्म करता है और अपने पूर्व किये हुए कर्मों के फलों को भोगता भी है। फलों के भोग में यह परतन्त्र होता है। मनुष्य से इतर सभी योनियां केवल भोग योनियां होती है। इन योनियों में जीवात्मा अपने पूर्वजन्म के कर्मों के फलों का भोग ही करता है। पशु आदि भोग योनियों में वह अपनी बुद्धि से सोच कर कोई धर्म व परमार्थ का कार्य नहीं कर सकता। उसके सभी भोग, अर्थात् सुख और दुःख, ईश्वर से निर्धारित होते हैं। इन भोग योनियों में हमारी मनुष्य योनि की जीवात्मा को भी परजन्म लेकर दुःख न उठाने पड़े, इसीलिये मनुष्य योनि में हमें सत्य ज्ञान की प्राप्ति करने के साथ विवेकपूर्वक सत्य पर आधारित कर्मों को ही करना होता है। सत्य ज्ञान व उसका आचरण अर्थात् सत्याचरण ही धर्म कहलाता है। जो मनुष्य सत्याचरण करेगा तो उसे ईश्वर से दण्ड नहीं अपितु सम्मान व पारितोषिक दिया जायेगा। सद्ज्ञानपूर्वक कर्म करने से मनुष्य की उन्नति होती है और वह सुख पाता है। यही व्यवस्था ईश्वर ने जीवात्माओं के लिए की हुई है। विवेक के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि हमारे जीवन में जो सुख होते हैं वह हमारे सत्कर्मों का परिणाम होते हैं और जो दुःख होते हैं, वह हमारे पूर्व व इस जन्म के बुरे कर्मों का परिणाम होते हैं। यदि मानवीय व्यवस्था में कहीं इसका अपवाद हो जाये तो ईश्वर से उस जीवात्मा को भावी जीवन व जन्मों में उसके प्रतिकार के लिए उस अपवाद रूप कर्मफल के अनुरूप सुख व दुःख प्राप्त होते हैं। अतः सभी मनुष्यों को कर्मफल सिद्धान्त को जानने हेतु वेदाध्ययन सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय एवं उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इससे ज्ञान में वृद्धि का लाभ होने के साथ ईश्वरोपासना, देवयज्ञ एवं परोपकार आदि सत्कर्म करने के प्रति उत्साह व विवेक जागृत होता है। मनुष्य न केवल सुधरता व उन्नति को प्राप्त होता है अपितु दूसरों का मार्गदर्शन कर उन्हें भी उन्नति के पथ पर आरूढ़ करता है।
वैदिक मत के अनुसार संसार में तीन सत्ताओं का अस्तित्व है। यह सत्तायें हैं ईश्वर, जीव और प्रकृति। इन सत्ताओं व पदार्थों के अस्तित्व को त्रैतवाद का सिद्धान्त कहते हैं। ईश्वर एक सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, जीवों को कर्मानुसार जन्म देने व उनके पाप-पुण्य के अनुसार उन्हें उसका सुख व दुःख रूपी भोग कराने वाली सत्ता है। वेदों के स्वाध्याय, ईश्वर की संगति व उपासना से जीवात्मा वा मनुष्य के दुःख, दुर्गुण व दुव्यर्सन दूर हो जाते हैं और श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव बन जाते हैं। शरीर के रोगी व वृद्धावस्था में शरीर के जीर्ण हो जाने पर ईश्वर की प्रेरणा से ही जीवात्मा सूक्ष्म शरीर के साथ शरीर का त्याग कर नये माता-पिता के पास जाकर माता के गर्भ से जन्म प्राप्त करती हैं। जीवात्मा एक सूक्ष्म चेतन सत्ता है। ज्ञान व कर्म करना इसके गुण व सामर्थ्य में होता है। यह जीवात्मा भी अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी, अजर, अमर, एकदेशी, ससीम, जन्म व मरण में बंधी हुई है। इस आत्मा का परिमाण मनुष्य के सिर के बाल के अग्र भाग के लगभग 1000 वें भाग के बराबर अनुमानित किया गया है। प्रकृति की सत्ता सूक्ष्म व जड़ है। यह त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्, रज व तम गुणों वाली होती है। इसी से परमाणु बने हैं और यह समस्त संसार अर्थात् सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व लोक-लोकान्तर इसी प्रकृति से बने हैं। सृष्टि का काल जिसे ईश्वर का एक दिन कहा जाता है, 4.32 अरब वर्ष का होता है। इतनी अवधि पूर्ण कर ईश्वर इस सृष्टि की प्रलय कर देता है। इतनी ही अवधि की प्रलय होती है। इसे ब्रह्म-रात्रि कहते हैं। प्रलय की अवधि पूरी होने पर ईश्वर पुनः सृष्टि की रचना करते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय का क्रम अनादि काल से चला आ रहा है। यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है अर्थात् इसका कभी न तो आरम्भ हुआ है और न ही कभी अन्त अर्थात् अभाव होगा। हमेशा इसी प्रकार से सृष्टि का क्रम चलता रहेगा।
हम संसार में देखते हैं कि दो व्यक्तियों की आकृतियां, शरीर के आकार-प्रकार, लम्बाई, शरीर में शक्ति व उसका सामर्थ्य, शरीर की सुन्दरता आदि समान नहीं होती हैं। सभी की मुखाकृतियां व शरीर की बनावट पृथक पृथक हैं जिससे उन्हें पहचाना जा सकता है। इसी प्रकार से मनुष्य से इतर योनियों में भी होता है। वहां भी उनकी आकृतियों में कुछ कुछ अन्तर होता है। शास्त्राध्ययन व विचार करने पर इसका कारण जीवात्माओं के पूर्वजन्मों के कर्म व भोग के साथ ईश्वर का रचना विशेष करने का गुण है। संसार में यदि लगभग 7 अरब मनुष्य हैं तो उन सबकी मुखाकृतियां व शरीर की लम्बाई आदि के द्वारा उन सबको पृथक पृथक पहचाना जा सकता है। इससे ईश्वर की मनुष्य शरीर सहित इतर योनियों के प्राणियों की रचना करने के महान गुण व सामर्थ्य का ज्ञान होता है। हम समझते हैं कि स्वस्थ, सुन्दर एवं सुडौल मनुष्य को अपने शरीर को देखकर सन्तोष होता है वहीं अन्यों को ऐसा न होने पर किंचित कुछ विपरीत भावना की अनुभूति भी होती है। पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार मनुष्य व इतर योनियां तो जीवात्माओं को प्राप्त होती ही हैं, इसके साथ उनके शरीर की सुन्दरता, असुन्दरता व उनमें भेद भी मनुष्य के कर्मों व ईश्वर की रचना के वैशिष्ट्य से जुड़ा है। इस कारण हमें ईश्वर के वेद वर्णित यथार्थस्वरूप को जानकर उसके गुण-कर्म-स्वभाव के अनुरूप उसकी स्तुति करनी चाहिये। इसके साथ हमें जो उचित प्रतीत होता है, जिससे किसी अन्य प्राणि को हानि न होती हो, ऐसी प्रार्थनायें भी ईश्वर से करनी चाहिये। वेदमन्त्रों में ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना का यथार्थस्वरुप उपलब्ध होता है। महर्षि दयानन्द ने स्तुति, प्रार्थना व उपासना के जो आठ मन्त्र लिखकर उनकी हिन्दी में व्याख्या की है, उसमें ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना का यथार्थ स्वरूप उपलब्ध होता है। वेदमंत्रों के अतिरिक्त हमें अपनी भाषा में अपने लिए जो अच्छा प्रतीत हो, उसके लिए भी हम ईश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी और सर्वशक्तिमान है। हम यदि पात्र होंगे तो हमारी वह प्रार्थना अवश्य पूरी होगी, इसका हमें विश्वास करना चाहिये। सृष्टि में अनेक प्रकार के आश्चर्य दिखाई पड़ते हैं। स्वामी रामदेव एवं आचार्य बालकृष्ण जी का जन्म अत्यन्त निर्धन परिवारों में हुआ। आज वह देश के प्रमुख धनाढ्यों में हैं। यह उनके पूर्वकृत कर्मों व इस जन्म के पुरुषार्थ व उनकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना का फल ही प्रतीत होता है। श्री धीरूभाई अम्बानी व ऐसे अन्य अनेक उदाहरण भी देश व समाज में देखने को मिलते हैं।
मनुष्यों की पृथक-पृथक आकृतियां व शरीरों की सामथ्र्य के कारणों पर विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि हमारे शरीर की आकृति, स्वरूप एवं शरीर में कार्यों को करने की सामर्थ्य हमें ईश्वर से प्राप्त होती है और ईश्वर इसे हमारे पूर्वजन्मों के कर्मानुसार ही बनाता है। इस जन्म के कर्मों से भी इसमें कुछ न्यूनाधिक होना सम्भव है। यदि हम सन्तुलित व अनुकूल भोजन करेंगे और उचित मात्रा में योगाभ्यास, प्राणायाम, आसन व ध्यान आदि क्रियायें करेंगे तो हमारा स्वरूप-आकृति व स्वास्थ्य उत्तम होगा, ऐसा हम अनुभव करते हैं। इस चर्चा को यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य