वीर सावरकर के वारिस बने नरेन्द्र मोदी
स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने ‘क्रांतिकारी चिट्ठियों’ में कहा-‘‘हम ऐसे सर्वन्यासी राज्य में विश्वास रखते हैं जिसमें मनुष्य मात्र का भरोसा हो सके और जिसके समस्त पुरूष और स्त्रियां नागरिक हों, और वे इस पृथ्वी पर सूर्य और प्रकाश से उत्तम फल प्राप्त करने के लिए मिलकर परिश्रम करते हुए फलों का समान रूप से उपयोग करें, क्योंकि यही सब मिलकर वास्तविक मातृभूमि या पितृभूमि कहलाती है। अन्य भिन्नताएं यद्यपि अनिवार्य हैं तथापि वे अस्वाभाविक हैं, राजनीति शास्त्र का उद्देश्य ऐसा मानुषी राज्य है या होना चाहिए जिसमें सभी राष्ट्र अपना राजनीतिक अस्तित्व अपनी पूर्णता के लिए मिला देते हैं, ठीक उसी तरह जैसे सूक्ष्म पिण्ड इंद्रियमय शरीर की रचना में इंद्रियमय शरीर पारिवारिक समूह में और पारिवारिक समूह संघ में तथा संघ राष्ट्र राज्यों में मिल जाते हैं।’’
यह उद्घरण सावरकर जी की वसीयत कही जा सकती है, इसमें उनका विद्घस्वरूप ही नही, अपितु राजनीति की वह मेधाशक्ति भी परिलक्षित होती है जो स्वतंत्रता पूर्व स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात के भारत का चित्र खींचती है, और जिसमें उनका लोकतांत्रिक दृढ़ व्यक्तित्व स्पष्ट हो जाते हैं। यह लोकतांत्रिक इसलिए है कि इसमें ‘सबका साथ, सबका विकास’ ईमानदारी से पहली बार दिखाया गया है और लोकतंत्र का यह मूलभूत सिद्घांत है कि आप ‘सबका साथ सबका विकास’ कर पाने में विश्वास रखते हों, आपकी नीतियां यदि ऐसी हैं तो आपके शासन में देश के आर्थिक संसाधनों पर किसी समूह या सम्प्रदाय विशेष का प्रथम अधिकार न होकर समस्त देशवासियों का पहला अधिकार होगा। लोकतंत्र का दूसरा मूलभूत सिद्घांत है कि लोग राष्ट्र के आर्थिक संसाधनों के सामूहिक रूप से फलोपभोग करने वाले हों। लोकतंत्र का तीसरा मूलभूत सिद्घांत है कि लोग स्वस्थ चिंतन और सकारात्मक ऊर्जा से भरे हों और अपनी ‘मातृभूमि या पितृभूमि’ को अनिवार्यत: अपना राष्ट्र मानते हैं और चौथे यह कि इस राष्ट्र के दुख-सुख में अपना दुख-सुख मानते हों और कहीं से भी किसी भी प्रकार से मत भिन्नता स्थापित करने की बात न करते हों। श्री नरेन्द्र मोदी के भारत का प्रधानमंत्री बनने के पश्चात लोगों ने कहना आरंभ किया कि अब देश में ‘हिंदुत्व’ का समय आ गया है और ‘सावरकरवाद’ को मोदी सरकार अब प्राथमिकता देगी। जिससे देश की एकता और अखण्डता को संकट उत्पन्न हो सकता है।
जिन लोगों ने सावरकरवाद की ऐसी व्याख्या की है, उन्हें संकीर्ण ही कहा जाएगा, क्योंकि उन्होंने इस महान नेता की महानता की सही व्याख्या करने में प्रमाद का और पूर्वाग्रही होने का परिचय किया है। वास्तव में ऐसे प्रमादी और पूर्वाग्रही लोगों को वीर सावरकर के उक्त उद्घरण की पुन: पुन: व्याख्या स्वच्छ हृदय से करनी चाहिए। सावरकर का यही मंंतव्य था जो ऊपर दिया गया है और इसे सावरकरवाद कहना भी उचित नही होगा, क्योंकि यह भारत की सनातन धर्म की वैदिक परंपरा के अनुकूल भारत का एक राजनैतिक सिद्घांत है, जो युगों पुरानी भारतीय राजनीतिक प्रणाली का एक अंग रहा है। इसलिए इसे ‘भारत का सनातनवादी राजनीतिक सिद्घांत’ कहा जाए तो ही अच्छा है।