उपचुनावों ने खड़े किये शाह की साख पर सवाल
देश के अलग अलग राज्यों में हुए उपचुनाव के अभी रुझान ही आने शुरू हुए थे कि टीवी चैनलों ने मोदी लहर का दम निकाल दिया। परिणाम आने पर चैनल विशेषज्ञों ने भांति भांति से यह साबित कर दिया कि कैसे देश में मोदी लहर की हवा निकल चुकी है। चैनलों पर पहुंचे बीजेपी के प्रवक्ताओं के चेहरे भी मलिन थे। आम चुनाव के बाद चैनल और चैनल विशेषज्ञों के लिए यह शायद पहला मौका था कि वे खुलकर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ तर्क कर सकते थे। वक्त का तकाजा है। मौका सबको मिलता है। आज चैनल विशेषज्ञों को भी मिल गया लेकिन क्या वास्तव में 33 विधानसभा सीटों के नतीजों ने मोदी लहर के उफान और तूफान को खत्म कर दिया है? अगर यह बीजेपी की हार है तो क्या सचमुच इसके लिए नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व जिम्मेदार है? सच्चाई शायद ऐसी नहीं है।
सबसे चौंकानेवाले नतीजे उत्तर प्रदेश के हैं। उत्तर प्रदेश में जो विधानसभा सीटें खाली हुई थीं वे पहले बीजेपी के पास थीं। बीजेपी ने लोकसभा चुनाव के दौरान अपने जिन विधायकों को लोकसभा का टिकट दिया था उन्हीं की खाली जगह भरने के लिए ये उपचुनाव करवाये गये थे। बीजेपी के विधायकों ने सीटों की ये कश्ती सपा की उस लहर में बचायी थी जब समाजवाद हिलोरे मारकर उत्तर प्रदेश में हरियाली ला रहा था। लेकिन सपाइयों की इस हरियाली के उजाड़ बियाबान में तब्दील होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा जब आम चुनाव में प्रदेश में मृतप्राय हो चुकी बीजेपी ने 80 में से 71 सीटें हासिल कर ली। ऐसी सफलता तो बीजेपी को राम लहर में भी नहीं मिली थी जैसी मोदी लहर में मिली थी। मानों पूरा उत्तर प्रदेश बीजेपी के हर उम्मीदवार में मोदी का चेहरा देख रहा था। उत्तर प्रदेश और बिहार में नरेन्द्र मोदी आम चुनाव से भी बहुत पहले उम्मीद की आखिरी किरण बन गये थे। आम चुनाव में बीजेपी को नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी को वोट मिला और बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक सफलता हासिल कर ली। चुनाव परिणामों के बाद गुजरात की कुल 26 और राजस्थान की कुल 25 से ज्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश के 71 की हुई। वही विशेषज्ञ चैनलों पर बैठे और जोर लगाकर कहना शुरू किया सब अमित शाह के प्रबंधन का कमाल है। वही अमित शाह जिन्हें नरेन्द्र मोदी का हनुमान कहा जाता है और आमचुनाव में नरेनद्र मोदी के पूरे प्रचार अभियान का जिम्मा अमित शाह के पास ही था। अमित शाह को उत्तर प्रदेश का विशेष प्रभार दिया गया और इसी प्रभारी पद के बाद पहली बार उन्होंने लखनऊ का दर्शन किया। उत्तर प्रदेश की राजनीति में अमित शाह का यह पदार्पण कुछ ऐसा था जैसे कोई योग्य लडक़ी पहली बार ससुराल में कदम रख दे। बहुत काबिल होने के बाद भी अमित शाह उत्तर प्रदेश को उतना समझते थे जितना कि कोई नई नवेली दुल्हन अपने ससुराल को समझ सकती है। फिर भी, नतीजों ने सब अनुमान बदलकर रख दिये। जीत सिर्फ बीजेपी और नरेन्द्र मोदी की ही नहीं हुई बल्कि जीत का सारा श्रेय अमित शाह के कुशल प्रबंधन को दिया गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि शेयर कारोबार से राजनीति में आये अमित शाह बहुत कुशल प्रबंधक हैं। लेकिन हर कुशल प्रबंधक को एक कुशल नेतृत्व चाहिए होता है, जिसके लिए वह प्रबंधन कर सके। उससे नेतृत्व की उम्मीद करना थोड़ा सा किसी भी कुशल प्रबंधक के साथ ज्यादती होगी। अमित शाह के साथ शायद ऐसा ही हो गया। आम चुनाव में नरेन्द्र मोदी का प्रचार अभियान संभाल रहे अमित शाह ने टिकट बंटवारे का कमोबेश सारा जिम्मा अपने पास रखा और अमित शाह के नाम पर खुद नरेन्द्र मोदी ने भी अंगुली नहीं उठाई। लेकिन क्या उत्तर प्रदेश में अमित शाह की वह चयन प्रक्रिया और प्रचारतंत्र बीजेपी की सफलता का आधार बना या फिर मोदी के नाम पर बहुत सारे लोग यूं ही चुनाव की बैतरणी पार हो गये? दूसरी परिस्थिति सच्चाई के ज्यादा करीब है। अगर शाह का टिकट बंटवारा और प्रबंधन बहुत उम्दा होता तो आज उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में बीजेपी की यह दशा नहीं होती क्योंकि इस बार भी बतौर अध्यक्ष टिकटों का बंटवारा उन्होंने ही किया था।
इसलिए जो लोग इसे मोदी लहर या मोदी मैजिक का अंत बता रहे हैं वे असल में अपनी जीत की खुशी से ज्यादा मोदी की हार का मातम मना रहे हैं। जबकि सच्चाई शायद ऐसी है नहीं। नरेन्द्र मोदी को जहां पहुंचना था जनता ने उन्हें वहां पहुंचा दिया। और देश में इतनी साक्षरता तो आ ही गयी है कि कम से कम जतना यह जानती है कि उपचुनाव में वे देश के लिए वोट कर रहे हैं कि प्रदेश के लिए। अगर ऐसा नहीं होता तो कम से कम उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को अतिरिक्त आठ सीटों का फायदा नहीं मिल पाया। गुजरात और तेलंगाना में भी कमोबेश यही स्थिति है। हां, राजस्थान की स्थिति थोड़ी भिन्न जरूर है लेकिन चार सीटों में चारों बीजेपी को ही मिलें तभी मोदी लहर मानी जाएगी, यह सोच भी थोड़ी अतिरेक वाली है।
लेकिन उत्तर प्रदेश का नतीजा जरूर बीजेपी के लिए सदमा है। ऐसा सदमा जो न सिर्फ लहर पर कहर बरपाता है बल्कि अमित शाह के कथित कुशल चुनावी प्रबंधन पर भी सवाल उठाता है। आगे महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव हैं। और यहां भी अमित शाह बीजेपी को उसी फार्मूले पर आगे बढ़ा रहे हैं जिस फार्मूले ने उन्हें आम चुनाव में उत्तर प्रदेश का बादशाह बनाया था। लेकिन मोदी विहीन शाह क्या सिर्फ लोकसभा चुनाव नतीजों के भरोसे मैदान में उतर सकते हैं?
उत्तर प्रदेश के नतीजों ने साफ संकेत दे दिया है। शाह का प्रबंधन के लिए मोदी का नेतृत्व जरूरी है और फिलहाल वे देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं। अब अगर राज्यों में नरेन्द्र मोदी प्रचार अभियान के सूत्रधार बनें तो जरूर अमित शाह बहुत कुशल प्रबंधनकर्ता साबित हो सकते हैं।
लेकिन शाह को सफल बनाने के लिए नरेन्द्र मोदी राज्यों के चुनाव पर उसी तरह ध्यान दे पायेंगे जैसा उन्होंने आम चुनाव के लिए दिया था? थोड़ा इंतजार करिए हरियाणा और महाराष्ट्र शाह की सफलता के सूत्र परखने के लिए बिल्कुल तैयार खड़े हैं।