विश्राम की अवस्था और मुक्ति

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अध्यात्म गंगा

ऐसा हुआ कि अमरीका में पहली दफा ट्रेनें चलाई गईं; ट्रेन की पटरियां डाली गईं; तो एक आदिवासी कबीले में भी पहली दफे ट्रेन गुजरने वाली थी। अमरीकी प्रेसीडेंट उसका उदघाटन करने गया। स्टेशन पर झाड़ के नीचे एक आदिवासी लेटा हुआ सारा दृश्य बड़े मजे से देख रहा है; बीच बीच में अपने हुक्के से दम लगा लेता है, फिर अपने लेटकर वही देख रहा है ऐसे जैसे दुनिया में कुछ करने को नहीं है। प्रेसीडेंट उसके पास गया और उसने कहा कि तुम्हें शायद पता नहीं कि यह बड़ी ऐतिहासिक घटना है, इस ट्रेन का गुजरना। उस आदिवासी ने पूछा, इससे क्या होगा?
तो प्रेसीडेंट ने उसे समझाने के लिए कहा कि तुम लकड़ियां काटकर शहर जाते हो बेचने कितने दिन लगते हैं? उसने कहा कि दो दिन जाने में लगते हैं, एक दिन बेचने में लग जाता है, दो दिन लौटने में लगते हैं सप्ताह में पांच दिन लग जाते हैं और फिर दो दिन घर आराम करना पड़ता है, फिर जाना पड़ता है। अभी ये आराम के दिन हैं : दो दिन।
प्रेसीडेंट ने कहा, “अब तुम समझ सकोगे। ट्रेन से तुम घंटे भर में पहुंच जाओगे, और दिन भर में बिक्री करके रात घंटे भर में घर वापस आ जाओगे।’ सोचा था प्रेसीडेंट ने कि आदिवासी बहुत प्रसन्न होगा, वह थोड़ा उदास हो गया। उसने कहा, “फिर छह दिन, बाकी दिन क्या करेंगे? यह तो बहुत झंझट हो गई।’
समय कम हो तो बचाओ, बचाने का अर्थ है गति को तेज कर लो, सब चीजों में गति कर लो। सब चीजों में गति हो जाती है, एक हड़बड़ाहट पैदा हो जाती है, भीतर एक तनाव पैदा हो जाता है। तुम सदा भागे भागे हो; जहां हो वहां नहीं हो। तुम्हें कहीं और आगे होना था, वहां तुम अभी पहुंचे नहीं हो। जब तुम वहां पहुंचोगे, तब तुम वहां नहीं हो। तुम सदा अपने से आगे भागे जा रहे हो। चित्त बहुत अशांत और बेचैनी से भर जाता है।
ऐसी हड़बड़ी में कैसे तुम स्वयं को पा सकोगे? क्योंकि स्वयं को पाने के लिए एक स्थिति चाहिए जैसे कहीं नहीं जाना, कुछ नहीं करना, सिर्फ आंख बंद करके बैठे रहना है, अपने में डूबना है। इसलिए पूरब में तो कभीकभी आत्मज्ञान की घटना घट जाती है। पश्चिम में बहुत मुश्किल हो गई है। और पूरब में घट जाती है, क्योंकि पूरब को खयाल है कि जल्दी कुछ भी नहीं है यह जन्म ही नहीं, अनंत जन्म हैं। यात्रा लंबी है। समय बहुत है। विश्राम किया जा सकता है।
जिसने विश्राम की कला सीख ली, जिसने विराम का राज समझ लिया, वह परमात्मा को उपलब्ध हो जाएगा। यह बात तुम्हें बड़ी बेबूझ लगेगी। श्रम से कभी किसी ने परमात्मा को नहीं पाया। श्रम से संसार पाया जाता है, बाहर की वस्तुएं पाई जाती हैं; विश्राम से परमात्मा पाया जाता है, भीतर का अस्तित्व पाया जाता है।

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