सितारे-हिन्द की हिन्दी, भाग-1
वाणी का वरदान प्राप्त होने पर मनुश्य ने पशुता से अपनी भिन्नता स्थापित कर ली। भाषा से मानवता के विकास की कुंजी उसके हाथ में आ गई। यद्यपि इससे पूर्व इंगित और चित्रादि को वह अभिव्यक्ति के लिए काम में लाता रहा है। मुद्रण यंत्र के आविष्कार से अनेक विषयों की पुस्तकें हजारों की संख्या में एक साथ छपने लगीं, इसीलिए पुस्तकों को कंठस्थ कर लेने की आवश्यकता दूर हो गई।
हिन्दी भाषा की स्थिति पर एक विहंगम दृष्टि डालने से पहले हिन्दी शब्द का यहां सही अर्थ समझ लेना उचित होगा, क्योंकि हिन्दी शब्द आजकल अनेकार्थ हो गया है। भाषा विज्ञानी हिन्दी के अन्तर्गत ब्रज और खड़ी बोली को ही लेता है। पूर्वी हिन्दी के लिए प्राय: अवधि का प्रयोग ही समीचीन समझा जाता है। साहित्यिक, ब्रजभाषा, खड़ीबोली, अवधि, भोजपुरी, राजस्थानी यहां तक कि मैथिली को भी हिन्दी के ही अन्तर्गत माना जाता है। इसलिए मीरा के भजन तथा पृथ्वीराज राठौर की बोली कृष्ण रूकमणि काव्य से लेकर विद्यापति की पदावली तक हिन्दी के पाठ्यक्रम में समाहित रहते है। राष्ट्रभाषा के रूप में, केवल संस्कृत से प्रेरणा लेने वाली खड़ी बोली ही हिन्दी कहलाती है। हिन्दी आरम्भ से ही देवनागरी लिपि में लिखी जाती रही है। यह अपने भाव, विचार और कल्पना के लिए संस्कृत तथा अन्य भारतीय आर्य भाषाओं से प्रेरणा लेती रही है। अंग्रेजी राज देश में स्थापित हो जाने के पश्चात उन्हें लगा कि सुशासन के लिए यहां की भाषा सीखना आवश्यक है। उस समय शिष्ट समाज के बीच दो भाषाएं प्रचलित थी। एक खड़ी बोली का देशी रूप दूसरा मुसलमानों की दरबारी भाषा का जिसे उर्दू कहते हैं। अंग्रेजों को जब देश की भाषा सीखने की आवश्यकता हुई तो वह गद्य की खोज में निकले। उस समय वास्तव में गद्य की पुस्तकें न उर्दू में थीं और न हिन्दी में। सन् 1805 में फ ोर्ट विलियम्स कॉलेज कलकत्ता में हिन्दी विभाग की स्थापना हुई जिसे अंग्रेज ‘भाषा विभाग’ कहते थे। इस विभाग में श्री लल्लूलाल, सदन मिश्र की नियुक्ति हुई जिन्हे भाषा मुंशी कहा जाता था। इनका कार्य था। हिन्दी गद्य के विशिष्ट रूप को तैयार करना जो प्रशासन के काम आ सके। उन्होंने प्रेम सागर और नासिकेतोपाख्यान नामक पुस्तकें गद्य में लिखी। इन पुस्तकों से गद्य के स्वरूप का निर्माण हुआ किन्तु विषय वस्तु नितान्त दकियानूसी थी। उसमें भारतीय जनता के नये जागरण का कोई आभास नही मिलता फि र भी हिन्दी गद्य के प्रसार में ईसाइयों का बहुत कुछ योग रहा शिक्षा सबंधी पुस्तकें पहले पहल उन्होंने ही तैयार की।
अंग्रेजी के अतिरिक्त किसी भाषा पर यदि ध्यान जाता था तो वह थी संस्कृत या अरबी/ अंग्रेजी पढकर निकलने वाले को सरकारी नौकरियॉं आसानी से मिलने लगी। संस्कृत की पाठशालााओं से लोग उदासीन होने लगे। इन संस्थाओं को जो सहायता मिलती वह धीरे-धीरे बंद हो गयी। मेकाले ने अंग्रेजी भाषा की शिक्षा का इतना जोरों से सर्मथन किया कि 7 मार्च सन् 1835 में कंपनी सरकार ने अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार का प्रस्ताव पास कर दिया और धीरे-धीरे अंग्रेजी स्कूल खुलने लगे।
मुसलमानों की और से यह प्रयास रहा की दफ्तरों में हिन्दी न रहने पाये उर्दू चलाई जाए। सन् 1837 ई0 में अंग्रेजों ने उर्दू को प्रशासन और कचहरी की भाषा घोषित कर दिया। उर्दू के साथ जीविका और मान-मर्यादा का प्रश्न जुड़ जाने के कारण अधिकांश: मध्यवर्गीय हिन्दू भी उर्दू पढने लगे और हिन्दी नितान्त उपेक्षित हो गई।
सन् 1902 में राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द शिक्षा विभाग में नहीं आए थे। फि र भी हिन्दी प्रेमी होने के कारण उनका ध्यान अपनी भाषा हिन्दी की दुर्दशा पर गया। उन्होने काशी से बनारस अखबार निकाला। सम्पूर्ण वातावरण उर्दूमय था। इसलिए पाठक भी अधिकांशत: उर्दू भाषा के ही थे इसलिए उन्होंने इस पत्र की भाशा भी उर्दू ही रखी थी मात्र अक्षर देवनागरी लिपि के थे। बनारस अखबार मे आए धर्मात्मा, परमेश्वर, करूणा एवं दया जैसे शब्द इसका प्रमाण है।
अब तक हिन्दी को आदालत से निकलवाने में मुसलमान पूरी तरह सफल हो चुके थे। अब वह इस प्रयास में थे कि हिन्दी को शिक्षा-पाठय क्रम या मीडिया में भी स्थान न मिले उसके द्वारा पढाई करने का प्रबन्ध ना होने पाये सन् 1848 ई0 सरकार ने यह सूचना निकाली ऐसी भाषा का जानना सब विद्यार्थियों के लिए आवश्यक ठहराना जो मुल्क की सरकारी और दफ्तरी जबान नही हमारी राय में ठीक नही है। इसके शिवाय मुसलमान विघार्थी जिनकी संख्या देहली कालिज में बडी है इसे अच्छी नजर से नही देखेगे वर्नाक्यूलर स्कूलों में हिन्दी शिक्षा के प्रबल विरोध थे।
सर सैयद अहमद साहब जिनका अंग्रेजों के बीच बहुत सम्मान था। वह हिन्दी को एक गंवारी बोली बताकर अंग्रजों को उर्दू की और झुकाने की लगातार चेष्टा करते आ रहे है।