मोदी को क्या मिला अमेरिका से
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा में भारत ने क्या खोया, क्या पाया यह सवाल सभी सुधीजन खुद से पूछ रहे हैं। यह सवाल के यदि संपूर्ण विदेश नीति के संदर्भ में रखकर पूछें तो यह ज्यादा अर्थवान हो जाता है। अभी तक मोदी ‘ब्रिक्स’ में हुई भेंटों के अलावा भूटान, जापान, चीन और अमेरिका के नेताओं से मिले हैं। इन भेंटों में से भारत के लिए क्या निकला और आगे क्या निकलने की संभावनाएं हैं? हमारी कुल विदेश नीति की दिशा क्या है?
जहां तक मोदी की अमेरिकी यात्रा का प्रश्न है, इसे हम अपूर्व जनसंपर्क कह सकते हैं। न्यूयॉर्क में सेंट्रल पार्क और मेडिसन चौराहे पर भारत के तो क्या, किसी भी देश के नेता ने कभी इतनी बड़ी भीड़ को संबोधित नहीं किया। उन जनसभाओं में दर्जनों कांग्रेसमैन और सीनेटरों की उपस्थिति भी बड़ी घटना थी। दोनों सभाओं को दो करोड़ लोगों ने चैनलों पर देखा और अखबारों में पढ़ा। क्या इसका असर अमेरिकी नीति-निर्माताओं पर नहीं पड़ा होगा?
मोदी का धाराप्रवाह और मनमोहक भाषण वहां उपस्थित श्रोताओं को तो भाव-विभोर कर ही रहा था, उसने भारत के करोड़ों श्रोताअों में भी मोदी के नेतृत्व का सिक्का जमाने का काम किया। जिन मोदी को अमेरिका वीज़ा नहीं दे रहा था, उन्हीं मोदी ने प्रत्येक अमेरिकी नागरिक को हवाई अड्डे पर वीज़ा देने की घोषणा कर दी और प्रवासी भारतीयों को भी स्थायी वीज़ा का वचन दे दिया। पिछले भारतीय प्रधानमंत्रियों की यात्राओं को अमेरिकी प्रचार तंत्र अक्सर कोनों में खिसका देता था, लेकिन अमेरिकी सरकार और अखबार दोनों ने इस यात्रा को पर्याप्त महत्व दिया।
प्रधानमंत्रियों का संयुक्त राष्ट्र में दिया भाषण तो परंपरागत होता है, लेकिन इस बार मोदी ने आतंकवाद, गरीबी-निवारण, पर्यावरण रक्षा तथा कुछ अन्य अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर सर्वसम्मति की बात कही, जो जरा नई थी। सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के साथ चोचें नहीं लड़ाईं। वे चाहते तो मियां नवाज की कश्मीर में जनमत-संग्रह करवाने की मांग पर काफी बरस सकते थे, लेकिन उन्होंने उसका हल्का-सा खंडन किया और पाकिस्तान से सार्थक संवाद को अपनी नीति बताया। मोदी के अमेरिका में रहते हुए पाकिस्तान से संवाद का टूटा तार दुबारा जुड़ सकता था, क्योंकि उसके (विदेश मंत्री तुल्य) सरताज अजीज ने विदेेश सचिव वार्ता के भंग होने पर अच्छी लीपा-पोती कर दी थी। मोदी ने अन्य तीन पड़ोसी नेताओं से बात की यह अच्छा रहा, लेकिन अपने सबसे टेढ़े पड़ोसी पाकिस्तान से बात करने का मौका गंवा दिया। मोदी ने अपने भाषण हिंदी में देकर विदेश नीति में भारत की जनता की हिस्सेदारी तय की। वे ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने अ-हिंदीभाषी होते हुए भी अपने भाषण और कूटनीतिक संवाद हिंदी में किए। उन्होंने हिंदी का मान बढ़ाया। उन्होंने अटलजी की परंपरा को आगे बढ़ाया और ऊंचा उठाया।
यह तो हुआ जनसंपर्क और प्रचारवाला हिस्सा! इसमें तो हम मोदी को 100 में से 100 गुणांक दे सकते हैं, लेकिन जो असली मामला है, भारत-अमेरिका संबंध, उसमें मोदी को कितनी सफलता मिली, इस बारे में अभी कुछ कहना मुश्किल है। अगर हम यह मान लें कि भारत-अमेरिकी द्विपक्षीय संबंधों को मोदी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा पाए तो भी न तो मोदी का कुछ बिगड़ा और न ही भारत का! क्योंकि संयुक्त राष्ट्र के सालाना अधिवेशन में दर्जनों देशों के प्रधानमंत्री न्यूयॉर्क पहुंचते हैं और उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति से हाथ मिलाने का मौका भी नहीं मिलता है। मोदी को राष्ट्रपति अोबामा ने दो बार भोजन के लिए बुलाया और ब्लेयर हाउस के विशेष सरकारी आवास में ठहराया। अमेरिकी उप-राष्ट्रपति और रक्षामंत्री ने उन्हें मध्याह्न भोजन भी दिया।
यह ठीक है कि अमेरिका के साथ अधर में लटके कई द्विपक्षीय मुद्दे ज्यों के त्यों हैं। जैसे परमाणु सौदे में दुर्घटना होने पर हर्जाने का प्रावधान, नई-नई रक्षा-उत्पादन तकनीकें, उन्नत हेलिकॉप्टरों की खरीद, परमाणु सप्लायर्स क्लब में भारत के प्रवेश और सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता पर अमेरिकी रवैया तथा बौद्धिक संपदा अधिकार आदि। इसके अलावा प्रवासी भारतीयों के लिए चिंता का विषय बना हुआ एच-1 वीज़ा और उन पर लगने वाले टैक्स वगैरह के मामलों पर कोई ठोस समाधान नहीं निकला। न ही इन्हें हल करने के लिए कोई कूटनीतिक प्रक्रिया तय की गई। इन तथ्यों के आधार पर कांग्रेस ने मोदी की अमेरिका यात्रा को ‘निराशाजनक’ बताया है, लेकिन मेरा विचार तो यह है कि मोदी की अमेरिका-यात्रा के लिए अगर कोई एक शब्द कहना हो तो मैं कहूंगा कि वह चाहे जैसी रही हो, वह आशाजनक तो निश्चय ही है। वह आशाजनक तो कई कारणों से है। पहला कारण तो यही है कि ओबामा और मोदी में सीधा संवाद हुआ। पिछले दो-तीन साल से हमारे संबंधों में जो ठहराव आ गया था, उसमें रवानी पैदा हुई। दोनों ने ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ में संयुक्त लेख लिखा। क्या पहले कभी ऐसा हुआ?
दोनों देशों के संयुक्त वक्तव्य के 3500 शब्दों में संबंधों की सारी रामायण आ गई। दोनों लोकतंत्र हैं, दोनों शांतिकामी हैं, दोनों विकासवादी हैं, दोनों का व्यापार कई गुना बढ़े, शिक्षा, चिकित्सा, तकनीक, शस्त्र निर्माण आदि में सहयोग बढ़ेगा। संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन में दोनों मिलकर काम करेंगे। सबसे बड़ी बात दुनिया के कई आतंकवादी संगठनों के विरुद्ध दोनों देश एकजुट होंगे। हां, इसका संकेत कहीं भी नहीं है कि एकजुट कैसे होंगे और फिर क्या करेंगे?
इस समय सीरिया और इराक में ‘इस्लामी राज्य’ के खिलाफ अमेरिका बमबारी कर रहा है। पांच-छह मुस्लिम अरब राष्ट्र भी उसके साथ हो गए हैं। यदि अमेरिका यह आश्वासन दे कि वह अफगानिस्तान और पाकिस्तान के आतंकवादियों का भी सफाया करेगा तो भारत को उसका साथ देने पर विचार करना चाहिए। यह हमारी विदेश नीति का नया और मौलिक पैंतरा होता। इसमें पाकिस्तान को हमारे साथ आना पड़ता और उसके साथ-साथ ईरान, इराक और सीरिया के शिया लोग भी हमारे साथ होते। इसके अलावा इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ हुई मोदी की भेंट में चार चांद लग जाते। इस मुद्दे पर हमारे विदेश मंत्रालय को अभी भी गंभीरता से सोचना चाहिए। इसका सीधा संबंध अफगानिस्तान में भारत की भावी भूमिका से है।
मोदी ने अपनी इस अमेरिका यात्रा के दौरान यह सिद्ध कर दिया कि वे जनसंपर्क कला के महान कलाकार हैं और उन्होंने आशाओं के द्वार खोल दिए हैं। उनके द्वारा रोपे गए बीजों को सिंचित, पल्लवित और पुष्पित करने का काम वहां रहकर सुषमा स्वराज और अजित डोभाल कर रहे हैं। चीनी राष्ट्रपति की भारत यात्रा के निष्कर्ष भी कुछ इसी तरह के हैं। जापान के साथ ठोस उपलब्धियां हुई हैं, लेकिन अमेरिका और चीन जैसी महाशक्तियों के साथ थोड़ा धैर्य रखना पड़ेगा। विदेश नीति का हाल यही है। कभी वह सरपट दौड़ती है और कभी वह हर डग संभल-संभलकर भरती है।