थोड़ा सा गांधी बनिये फिर देखिये
पिछले हफ्ते गांधी-जयंती पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सफाई अभियान और सर संघ चालक मोहन भागवत का विजयदशमी भाषण काफी चर्चा में रहे। उन्होंने आशा जगाई कि देश में अब रचनात्मक काम बड़े पैमाने पर शुरु होंगे लेकिन मुझे शंका है। क्या वाकई कोई रचनात्मक जन-आंदोलन शुरु होगा, जो साफ-सफाई, खादी, स्वभाषा, स्वदेशी, गोरक्षा, नशाबंदी, जाति-मुक्ति आदि बुनियादी कामों को करने की प्रेरणा लाखों-करोड़ों लोगों को देगा? इन कार्यों के लिए नरेंद्र भाई और मोहनजी ने जो आह्वान किया है, उसका प्रचार इतने नाटकीय ढंग से हुआ है कि विरोधी दलों के नेताओं के पसीने छूट गए। उन्होंने प्रचार के तरीकों पर अपनी आपत्ति दर्ज कराना जरुरी समझा लेकिन वे भूल गए कि यह प्रचार तो सिर्फ प्रचार भर है। उसमें से कुछ निकलना नहीं है। इस तरह के नाटकीय प्रचार से किसी भी बड़े जन-आंदोलन का जन्म नहीं हो सकता।
सत्तारुढ़ नेताओं के इन उपदेशों को लागू कौन करेगा? सरकार और नौकरशाही? सरकार कठोर कानून बना सकती है और नौकरशाही मक्खी पर मक्खी बिठा सकती है लेकिन देश के करोड़ों लोग कोई काम स्वेच्छा से करने लगें, ऐसा तो जन-आंदोलनों के जरिए ही हो सकता है। सत्तारुढ़ होने के पहले इन नेताओं ने क्या कभी कोई जन-आंदोलन चलाया? जन-आंदोलन कैसे चलाएं जाते हैं? सबसे पहले जनता को जगाना होता है। लोक-शिक्षण के लिए लाखों-करोड़ों कार्यकर्ता पहले खुद को तैयार करते हैं। फिर वे घर-घर जाते हैं। लोगों को समझाते हैं। सभाएं, प्रदर्शन, जुलूस आदि आयोजित करते हैं। पर्चे, पुस्तकें बांटते हैं। क्या यह काम नौकरशाही कर सकती है? यह काम नौकरशाही के बूते का नहीं है। भारत की नौकरशाही, वास्तव में नौकरशाही नहीं, मालिकशाही है। ये नौकरशाह जनता के नौकर कम, शाह ज्यादा होते हैं। आज तक भारत में न तो कोई ऐसी सरकार आई है और न ही कोई प्रधानमंत्री, जो इन नौकरशाहों को आम जनता का सेवक बना सके। हम सोचते हैं कि जब कोई मजबूत प्रधानमंत्री आता है तो नौकरशाह नरम पड़ जाते हैं। हां, नरम जरुर पड़ जाते हैं। वे नेताओं के प्रति नरम पड़ जाते हैं लेकिन उसी अनुपात में वे जनता के प्रति कठोर हो जाते हैं।
जो काम नौकरशाहों के बस का नहीं है, उसे राजनीतिक दल और स्वयंसेवी संगठन बखूबी कर सकते हैं। लेकिन पिछले हफ्ते हुआ क्या है? क्या ये संगठन सक्रिय किए गए हैं? जो सबसे अधिक सक्रिय दिखे, वे थे टीवी चैनल और अखबार! इस हवाई और कागजी प्रचार की उम्र कितनी है? सिर्फ कुछ घंटे! एक दिन हाथ में झाड़ू उठा लेने और गांधी जयंती के दिन खादी पहन लेने से क्या देश में स्वच्छता और स्वभूषा का आंदोलन शुरु हो जाएगा? आंदोलन तो दूर की बात है, इन नाटकीय अदाओं के फलस्वरुप हमारे नेताओं में ‘छपास’ और ‘दिखास’ की बीमारी फैल गई है। हर नेता अपने फोटो अखबारों में छपवाना चाहता है और टीवी पर्दों पर अपना चेहरा दिखाना चाहता है। प्रधानमंत्री को बधाई कि उन्होंने इसके सरलतम रास्ते का आविष्कार कर दिया। गांधी जयंति पर दिन भर टीवी के पर्दों पर झाड़ू ही झाड़ू दिखाई दे रही थीं। दूसरे दिन उन्हीं स्थानों पर गंदगी ही गंदगी थी। स्वच्छता अभियान के लिए करोड़ों लोग तब प्रेरित होंगे, जब प्रधानमंत्री रोज़ अपने कमरे की झाड़ू खुद लगाएंगे, अपना कमोड खुद साफ करेंगे और कम से कम अपने अधोवस्त्र खुद धोएंगे। सभी मंत्री यहीं करें, सभी सांसद, विधायक और पार्टी-नेता भी यही करें तो सारा देश उनके पीछे चल पड़ेगा। तब वे सिर्फ प्रधानमंत्री नहीं रह जाएंगे, जन-नेता बन जाएंगे। प्रधानमंत्री बनना आसान है, जन-नेता बनना कठिन है। नरेंद्र मोदी ने यह अभियान इतना अच्छा पकड़ा है कि यह उन्हें प्रधानमंत्री के पद से भी उंचा उठा सकता है। प्रधानमंत्री तो एक पद भर है। उस पर कोई भी बैठ सकता है। चुनाव जीतनेवाला दल उस पद पर किसी को भी बिठा सकता है। उस पद पर बैठकर वह व्यक्ति नौकरशाही के जरिए अपनी महिमा कायम रखता है लेकिन जन-नेता तो सीधे जनता से संवाद करता है। नेता वही होता है, जिसका आचरण अनुकरणीय होता है। अखबार और टीवी आपकी खबरें इसलिए दे रहे हैं कि आप एक पद पर बैठे हैं। इसलिए नहीं दे रहे हैं कि आपका आचरण अनुकरणीय है। आपकी कुर्सी में वजन जरुर है लेकिन उससे भी ज्यादा जरुरी है कि आप में और आपकी बात में भी वज़न पैदा हो। यह तभी होगा, जब आप जो कहते हैं, वह खुद करने लगें।
नरेंद्र मोदी का भारत की जनता से सीधा संवाद है। वे चाहें तो पूरे देश में सिर्फ बाहरी साफ-सफाई का ही नहीं, दिमागी स्वच्छता का अभियान भी चला सकते हैं। वे करोड़ों लोगों से संकल्प करवा सकते हैं कि वे न तो रिश्वत लेंगे और न ही रिश्वत देंगे। न तो शराब पिएंगे न पिलाएंगे। न गोमांस खाएंगे, न खिलाएंगे, न बेचेंगे। यथासंभव स्वभाषा का प्रयोग करेंगे। अंग्रेजी में दस्तखत कभी नहीं करेंगे। छुआछूत नहीं मानेंगे। जातीय उपनाम हटाएंगे। ऐसे कई आंदोलन हैं, जो भारतीय समाज को जड़मूल से सबल और स्वच्छ बनाएंगे। यदि समाज स्वच्छ और सबल होगा तो राजनीति गंदी कैसे रह जाएगी? हमारे सभी राजनीतिक दल सिर्फ चुनाव लड़ने की मशीनें बनकर रह गए हैं। मोदी चाहें तो उन्हें सामाजिक परितर्वन के औजार बना सकते हैं। सारी पार्टियों को आजकल बस एक ही काम रह गया है। वोट से नोट कमाएं और नोट से वोट कमाएं। इस जोड़-तोड़ में यदि जनता की सेवा हो जाए तो उसकी किस्मत है। ज़रा हम सोचें कि गांधी, लोहिया, दीनदयाल और डांगे का पार्टियां क्या ऐसी ही थीं? इन नेताओं को तो अब भी याद किया जाता है लेकिन उन्हें चैखट में जड़कर खूंटी पर टांग दिया जाता है। सभी दलों ने विभिन्न विचारधाराओं के मुखौटे लगा रखे हैं लेकिन सबका असली चेहरा एक ही है। मोदी की खूबी यह है कि वे गांधी और नेहरु के मुखौटे भी ठोक-ठाककर अपने चेहरे पर फिट करने में संकोच नहीं कर रहे हैं लेकिन क्या उन्हें भारत की जनता की चतुराई का पता नहीं है? उसने गांधी के उत्तराधिकारी के तौर पर कांग्रेसियों को ही रद्द कर दिया तो वह भाजपाइयों को कैसे स्वीकार कर लेगी? गांधी-जयंति पर गांधी की माला फेरने से जन-आंदोलन खड़ा नहीं किया जा सकता। थोड़े से खुद गांधी बनें तो शायद कुछ बात बने।