हम्मीर देव चौहान ने झुका दिया था जलालुद्दीन का मस्तक
कायर कौन होता है
इस आलेख का शुभारंभ हम इसी प्रश्न से करेंगे कि कायर होता कौन है? यह दोषारोपण सामान्यत: हिंदुओं पर किया जाता है कि वे विगत 1200-1300 वर्षों के इतिहासकाल में कायर रहे हैं। हमने भी यहां कायर के विषय में ही प्रश्न कर दिया है कि ये होता कौन है?
अब इस प्रश्न के उत्तर पर विचार करें। सहज रूप से देखें -अपने चारों ओर के परिवेश को और उन परिस्थितियों को जिनमें हम डाकू को या किसी क्रूर व्यक्ति को या किसी आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्ति को वीर के रूप में प्रसिद्घि पाते देखते हैं, ख्याति प्राप्त करते देखते हैं। संसार के लोग सामान्यत: ऐसे व्यक्ति को साहसी मानते हैं, और ऐसे व्यक्ति का साहसी के रूप में ही महिमामंडन भी करते हैं, पर वैसे उससे और उसके नाम तक से डरते हैं। डरने का या आतंकित करने वाला उसका आवरण ही उसके विषय में यह भ्रांत धारण बनाते हैं कि वह व्यक्ति साहसी है या वीर है।
हमारी मान्यता इस धारणा के सर्वथा विपरीत है। हमारी मान्यता है किसाहसी या वीर व्यक्ति वह होता है जिससे दूसरे लोगों के भय का हरण होता है। इसका अभिप्राय है कि दूसरे के प्राणों को लेने वाला साहसी या वीर नही होता, अपितु दूसरों के प्राणों की दुष्टों से रक्षा कराने में समर्थ व्यक्ति साहसी या वीर होता है। हमारा मानना है कि क्रूर व्यक्ति कायर होता है, क्योंकि वह जितने लोगों के प्राण लेता है, उनका ‘पापबोध’ उसे भीतर से पलायनवादी और कायर बनाता है। इसलिए वह अपराध करके भागता है, अपने चारों ओर सुरक्षा का घेरा बढ़ाता है, और अपने निकटस्थ लोगों से भी सदा आशंकित रहता है, आतंकित रहता है। आशंकित और आतंकित रहने के इस भ्रम में वह अपराध पर अपराध करता जाता है।
मुस्लिम आक्रांताओं का सच यही है
बस यही बात मुस्लिम आक्रांताओं पर लागू होती है। इन लोगों ने अपनी धार्मिक मान्यताओं के वशीभूत होकर तो भारत में नरसंहार किये ही कई बार तो अपनी क्रूरता का प्रदर्शन केवल इसलिए किया कि उन्हें इससे पहले एक बार या निरंतर कई बार व्यापक हिंदू प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। इसलिए समय मिलते ही शत्रु का व्यापक संहार कर उसे पूर्णत: समाप्त कर देना ही उन्होंने उचित समझा। यह सोच भयभीत, आशंकित और आतंकित मानसिकता को प्रकट करने वाली है। इसलिए जहां क्रूरता है वहां कायरता है। इसे आप यूं भी कह सकते हैं कि क्रूरता का दूसरा नाम ही कायरता है।
हिन्दुओं में क्रूरता कभी नही रही
हिन्दुओं में क्रूरता कभी नही रही। इनके यहां शौर्य होता है, वीरता होती है। इसलिए शत्रु को मारकर भागने की भारत में परंपरा नही रही। वीर पुरूष ना तो रण छोड़कर भागता है और ना ही शत्रु को मारकर भागता है। क्योंकि वह जो भी कार्य करता है, पूर्ण विवेक के साथ करता है। इसलिए केवल भारत की ही ये परंपरा है कि यहां वीरता के साथ आशंकित या आतंकित होने के भाव व्यक्ति का पीछा नही करते, अपितु यहां वीरता को विवेक अपना संबल प्रदान करता है, और वीर विवेकपूर्ण ढंग से वसुंधरा का उपभोग करते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि वीर भोग्या वसुंधरा:।
रोग प्रतिरोधक क्षमता का होना जीवन होने का प्रमाण है
शरीर में यदि रोग प्रतिरोधक क्षमता है तो वह जीवित कहा जाता है, और यदि ‘रोग प्रतिरोधक’ क्षमता समाप्त होते-होते शून्य हो जाए तो शरीर को चिकित्सक लोग मृत घोषित कर देते हैं।
हिंदू के पास क्या था? यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दू के पास उस काल में केवल सुदृढ़ रोग प्रतिरोधक क्षमता थी, वीरता थी, शौर्य था, और साहस था।
इतनी सारी वस्तुओं के होते हुए भी इस जाति का महिमामंडन करने वाला इतिहास लुप्त कर दिया जाना मानवता के इतिहास की सबसे अधिक लज्जास्पद और मर्मान्तक घटना है।
औरंगजेब की वसीयत
औरंगजेब ने अपनी वसीयत लिखी थी, जिसमें उसने हिंदुओं को और उनकी वीरता को लेकर कहा था-”तूरानी जो हमारे पूर्वजों के देश से आए हैं, हमारे बिरादर हैं….उन्हें जब युद्घ में पीछे हटने का आदेश दिया जाता है, तो इसमें वह लज्जा का अनुभव नही करते। वह इन महामूर्ख हिंदुओं से सैकड़ों गुना श्रेष्ठ हैं, जो सिर कटाना स्वीकार करते हैं, पर पीछे नही हटते।”
सुबुद्घ पाठक वृन्द! हिंदू इसी मिट्टी से बना था जिसे औरंगजेब ने ‘महामूर्ख’ कहकर महिमामंडित किया है। जबकि मुस्लिम किस मिट्टी से बना था, इसका उल्लेख इस प्रकार है-”जब तुमने किसी किले को घेर रखा हो, और उसके लोग अल्लाह और उसके पैगंबर के नाम पर तुमसे रक्षा की अपील करें तो उनको अल्लाह और उसके पैगंबर की ओर से सुरक्षा की गारंटी मत दो, अपितु अपनी और अपने साथियों की ओर से ही सुरक्षा की गारंटी दो, क्योंकि अल्लाह और उसके पैगंबर के नाम पर दी गयी गारंटी को भंग करने से अपनी ओर से दी गयी गारंटी को भंग करने में बहुत कम पाप है।”
‘सही मुस्लिम’- पृष्ठ 4294
अब तनिक औरंगजेब की वसीयत की उस पंक्ति पर विचार करें, जिसमें उसने हिन्दुओं को ‘महामूर्ख’ कहकर महिमामंडित किया है। इस ‘महामूर्ख’ शब्द को हमीर देव चौहान के साथ स्थापित करके देखें तो ज्ञात होगा कि हम्मीर देव चौहान औरंगजेब की दृष्टि में चाहे महामूर्ख हो परंतु हिंदू समाज में तो ‘हमीर हठ’ आज तक सम्मानित है।
हम्मीर देव चौहान
हम्मीर की हठ को समझना हिंदुओं की वीरता को समझने के लिए अति आवश्यक है। हमने ऐसे प्रसंग और कहानियां तो बहुत सुनी हैं कि अमुक मुस्लिम आक्रांता ने भारत पर प्रतिवर्ष आक्रमण करने की प्रतिज्ञा ली और अमुक समय पर भारत के अमुक क्षेत्र में अमुक राजा पर इस प्रकार के अत्याचार किये, परंतु कभी उक्त विदेशी आक्रांता का हर स्थिति में प्रतिरोध करने की प्रतिज्ञा लेने वाले आर्य हिंदू वीरों का स्मरण नही किया। पिछले पृष्ठों में हमने राजस्थान के रणथम्भौर और वहां के शासकों की वीरता का उल्लेख किया है।
किले बन गये थे राष्ट्र मंदिर
भारत के लोगों ने पत्थरों की पूजा करके बहुत कुछ हानि उठाई है, परंतु यह भी सत्य है कि कई लोगों ने पत्थरों से सीखा भी बहुत कुछ है। मध्यकाल में जब हमारा यौवन देश के काम आना ही अनिवार्य कर दिया गया था, तो उस समय यह देश राष्ट्रदेव की आराधना में लग गया था। सारे देवों को इसने भुला दिया और मानो सारे देवों को उठाकर अपने-अपने क्षेत्रों में बने पत्थरों के राष्ट्रमंदिरों अर्थात दुर्गों में लाकर स्थान दे दिया था। बहुत से किले उस समय पत्थरों के भवन मात्र न रहकर हमारे गर्व और गौरव का जीवंत प्रमाण बनकर रह गये थे। जिस किले ने जितना अधिक पौरूष दिखाया, शौर्य का प्रदर्शन किया या वीरता की अनुपम कहानी लिखी वह उतना ही हमारे लिए आज तक सम्माननीय है। झांसी का किला, दिल्ली का लालकिला, आगरा का लालकिला, चित्तौडग़ढ़ का किला, रणथम्भौर का किला इत्यादि हमारे मध्यकालीन राष्ट्र मंदिर हैं। इनके विजय, वैभव और वीरता के इतिहास को नमन करने और उसे अपनी भावपूर्ण विनम्र श्रद्घांजलि अर्पित करने के लिए जब कोई दर्शक यहां पहुंचता है तो उसके हृदय में स्वयं ही एक सुखद अनुभूति होती है। बांहें फड़कने लगती हैं, और हृदय में स्वयं ही हम सबका सामूहिक देव अर्थात राष्ट्रदेव अपना विशाल और विराट स्वरूप दिखाने लगता है। कहने लगता है-”वत्स! मैं वर्षों से यहां तुम्हारी कारागार में बंदी हूं। मुझे मुक्त कराओ और अपने अतीत के वैभव का गौरवपूर्ण इतिहास लिखो। मैं काल हूं और मैंने इस राष्ट्र के लिए समर्पित रहने वाले अनेकों वीरों के जीवन को राष्ट्रवेदी पर बलि होते देखा है, पर दुख के साथ कहना पड़ता है कि उन बलियों का सम्मान करना हमने नही सीखा।”
पत्थरों की भी अपनी भाषा होती है और वह उस भाषा में हमसे अपना सीधा संवाद स्थापित करते हैं। वह हमसे पूछते हैं कि मध्यकाल के जिन मंदिरों में स्थापित राष्ट्रदेव की मूर्ति के लिए तुम्हारे पूर्वजों ने जीवन भर संघर्ष किया उन स्थानों की इतनी घोर उपेक्षा क्यों की जा रही है? तब ज्ञात होता है कि ये किले मात्र कुछ पत्थरों का सुव्यवस्थित और सुसज्जित रूप में संवरा हुआ एक स्वरूप नही हैं, अपितु इसका एक एक कण हमारे पूर्वजों की वीरता का मुंह बोलता प्रमाण है। हमने पत्थरों में जीवन की खोज इसीलिए की है कि वे अतीत को हमारे समक्ष लाकर जीवन्त बनाकर प्रस्तुत करने की क्षमता और सामथ्र्य रखते हैं। इस सच से कोई व्यक्ति कितना भाग सकता है?
बात पुन: रणथम्भौर की
बात रणथम्भौर की करें, तो उसके लिए अब पुन: परिचय कराना तो उचित नही होगा कि इसे हिंदू वीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के महान वंशजों ने अपना रक्त देकर सींचा था। इसलिए मध्यकाल में यह किला भारत की वीर हिन्दू जनता के लिए वीरता का एक स्मारक या तीर्थ ही बन गया। यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत शस्त्र और शास्त्र दोनों का उपासक राष्ट्र रहा है, इसलिए इसने अपने मंदिर भी दो प्रकार के बनाये एक थे शास्त्रों की बात करने वाले तो दूसरे थे शस्त्र की बात करने वाले। शस्त्र की बात करने वाले मंदिर ही हमारे दुर्ग थे। पृथ्वीराज चौहान के पूर्वजों की राजधानी अजयमेरू (जिसे आजकल अजमेर कहते हैं) रही थी। उस राजधानी का नाम अजयमेरू रखा गया-तो बात स्पष्ट थी कि वहां भी पत्थरों ने हमें शिक्षा दी कि सदैव अजेय रहना है। इसलिए पृथ्वीराज चौहान ने तो अजेय रहने की प्रतिज्ञा ली ही, उसके वंशजों ने भी उस प्रतिज्ञा को आगे बढ़ाया और रणथम्भौर में जाकर अपने अजेय रहने का प्रमाण दिया। हमें पत्थरों ने शिक्षा दी और हमने इतिहास बनाया।
तेजसिंह तरूण अपनी पुस्तक ”राजस्थान के सूरमा” के पृष्ठ 18 पर लिखते हैं-”पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्दराज ने तराईन के युद्घ अर्थात 1192 ई. के पश्चात 1194 ई. में रणथम्भौर के पर्वतीय अंचल में अपना एक पृथक राज्य स्थापित कर लिया और आगे के शासक राज्य को सुसंगठित करने में लगे रहे। गोविन्दराज और हमीर के बीच के समय में रणथम्भौर की कीर्ति पताका दूर दूर तक फहराती रही।…हमीर द्वारा भीमरसपुर, मदालकीर्ति दुर्ग, घाना नगर, उज्जैन (मालवा) आदि कई प्रमुख स्थानों पर अधिकार कर लेने के उपरांत रणथम्भौर दिल्ली के सुल्तानों को और भी अधिक खटकने लगा। कारण भी स्पष्ट था, हमीर ने न केवल उज्जैन पर विजय प्राप्त की, वरन क्षिप्रा के तट पर बने महाकालेश्वर मंदिर का, जिसे इल्तुतमिश ने धूल धूसरित कर दिया था, जीर्णोद्घार करवाकर अपने इष्ट देव शंकर भगवान (महाकाल) की पूजा अर्चना जो की थी, यह भला दिल्ली के मुस्लिम शासकों को स्वीकार कैसे हो सकता था (अर्थात हमारे हिन्दू शासक का यह वीरता पूर्ण कृत्य कि वह किसी धूल धूसरित हुए मंदिर का जीर्णोद्घार कराये और फिर वहां अपने इष्ट देव की पूजा करें) इससे उनका भयभीत होना स्वाभाविक था।”
विद्वान लेखक के शब्द ‘भयभीत’ पर विचार करने की आवश्यकता है। इसी शब्द ने मुस्लिमों को सदा आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया, वह किसी उठते हुए और अपने राष्ट्र धर्म के प्रति पूर्णत: सजग और सावधान हिंदू शासक के प्रति सदा ही आशंकित और आतंकित रहते थे, इसलिए वह भयभीत हो उसे क्रूरता से मिटा देना ही अपना सर्वोपरि धर्म समझते थे।
हिंदू वीर हमीर देव की वीरता
हिंदू वीर हमीर देव के स्वाभिमान और वीरता को नष्ट करने के लिए अलालुद्दीन खिलजी ने 1209ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण कर दिया। जलालुद्दीन खिलजी वंश का संस्थापक कहा जाता है। जिस गुलाम वंश की गरम राख पर इसने भारत में खिलजी वंश की स्थापना की थी वह तो अब अतीत के गर्त में चला गया था, पर यह सत्य है किभारत के लिए इस वंश के शासकों के सपने भी वही रहे जो इसके पूर्ववर्ती के थे। ना आदर्शों में कोई परिवर्तन आया और ना ही उद्देश्यों में कोई परिवर्तन आया। अत: कहना पड़ेगा कि भारत के लिए वंश परिवर्तन सत्ता परिवर्तन न होकर मात्र ‘नई बोतल में पुरानी शराब’ ही थी। जिसे सही अर्थों में परिवर्तन नही कहा जा सकता।
रणथम्भौर और उसके वीर शासक हम्मीर देव चौहान ने अपनी परंपरागत वीर शैली में दिल्ली के नये सुल्तान जलालुद्दीन की सेना का सामना किया, जलालुद्दीन भी जानता था कि उसका सामना किस हिन्दू वीर से होने जा रहा है? उसे भली प्रकार ज्ञात था कि अब से पूर्व में राजस्थान के इस पवित्र वीर मंदिर (रणथम्भौर के दुर्ग) ने क्या क्या गुल खिलाए हैं? इसने अभी तक मस्तक झुकाया नही है, अपितु आक्रांता का मस्तक झुकवाया है। अत: ऐसे वीर मंदिर की ओर बढऩा ‘भारी भूल’ भी हो सकती है।
जलालुद्दीन की सेना भारत के मस्तक बने रणथम्भौर दुर्ग की ओर बढ़ती जा रही थी। देश की हवाओं की सनसनाहट ने हिंदू वीर हम्मीर देव चौहान को उसके वीर पूर्वजों की गौरव गाथा जाकर बतानी आरंभ कर दी। जिससे वीर हम्मीर देव चौहान के शरीर में झनझनाहट हो उठी, वह शेर की भांति उठ खड़ा हुआ, और शत्रु की प्रतीक्षा करने लगा।
हवा ने अपना काम कर दिया था तो सूर्य देव भी पीछे नही थे, हमारे क्षत्रिय राजवंशों में सूर्यवंश की गरिमा से भला कौन परिचित नही है? सूर्य सम तेजस्विता को धारण कर ‘शत्रु हन्ता’ बनने की परंपरा भारत में युगों पुरानी है। इसलिए सूर्य ने अपने पुत्र हम्मीर देव की तेजस्विता को सावधान किया कि आपत्ति आने वाली है। अत: अपने क्षात्रधर्म और राष्ट्रधर्म के लिए सावधान हो जाओ। राजा ने सूर्य के आवाहन को समझा और रणथम्भौर के ध्वजदण्ड को स्मरण कर उसे नमन किया। हम्मीर के सामने आज मानो पृथ्वीराज चौहान भी साक्षात आ खड़े हुए थे, जो कहे जा रहे थे-”वत्स! मैंने जिस स्वाधीनता के लिए अपना बलिदान दिया था, आज उसी स्वाधीनता की रक्षा करना तुम्हारा पवित्र कत्र्तव्य है। ना तो पताका झुकनी चाहिए और ना ही मस्तक झुकना चाहिए। सावधान होकर संघर्ष करो, और मां भारती के ऋण से उऋण होने के लिए रण के लिए प्रस्थान करो।”
हम्मीर देव ने अपने सैन्याधिकारियों और सरदारों से युद्घ विषयक चर्चा की और आसन्न संकट से देश के उन रक्षकों को अवगत कराया। सभी ने एकमत से आततायी के आक्रमण का सामना करने का प्रस्ताव पारित किया। सेना को सतर्क किया गया। युद्घ के लिए आपात ध्वनि विस्तारकों की नाद से आकाश गूंज उठा। राजधानी की प्रजा भी सतर्क और सावधान हो गयी कि राष्ट्रधर्म के निर्वाह का एक और अवसर उपलब्ध हो गया है।
उधर जलालुद्दीन अपने आतंक का खेल खेलता रणथम्भौर की ओर बढ़ा चला आ रहा था और इधर रणथम्भौर का कण-कण राष्ट्रवाद की भावना से मचल रहा था। शेरों ने व्रत रखना आरंभ कर दिया था कि अब तो भोजन भी रण में किया जाएगा और भोजन भी शिकार के ताजे रक्त का। चारों ओर वीरोचित परिवेश था, कहीं से भी कायरता की या पलायनवाद की संभावना तक दृष्टिगत नही हो रही थी।
वैसे भी यह वो काल था जब हिंदू समाज में कायरता और रण के प्रति पलायनवाद को देश द्रोह, धर्मद्रोह और जातिद्रोह माना जाता था और ऐसे देशद्रोही को, धर्मद्रोही को या जातिद्रोही को लोग समाज से बहिष्कृत कर दिया करते थे। यही कारण है कि जिस व्यक्ति ने धर्मांतरण कर मुस्लिम मत स्वीकार किया, या उनसे विवाहादि का प्रस्ताव स्वीकार कर ऐसे संबंध बनाकर उन्हें अपनी लड़कियां दीं उनसे लोग घृणा करते थे। हम आज तक भी इस घृणा को अपने समाज में यथावत देखते हैं। यह घृणा एक इतिहास की ओर और एक संस्कार की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है, जो सदियों पुराना संस्कार है, वह कभी हमारे वीरों के सिर चढ़कर बोलता था। इस संस्कार को तनिक सहेजकर रखने की आवश्यकता है।
जलालुद्दीन अपनी पूर्ण तैयारी के साथ रणथम्भौर में आ डटा। उधर रणथम्भौर के शेर पहले से ही अपने शिकार की प्रतीक्षा में थे। उन्हें अपने स्वामी के एक संकेत मात्र की प्रतीक्षा थी। वह मिले और हमारे भूखे शेर अपने शिकार पर झपटे। अंत में राजा हम्मीर देव चौहान ने अपनी सेना को संकेत दिया और युद्घ प्रारंभ हो गया। जलालुद्दीन ने उस हिंदू वीरता का आज पहली बार सामना किया था, जिसे उसने अब से पूर्व कभी नही देखा था। भयंकर रक्तपात हुआ, अनेकों हिंदू वीरों ने अपना बलिदान दिया पर रण नही छोड़ा। अंत में शत्रु सेना को ही रण से भागना पड़ा। जलालुद्दीन खिलजी परास्त और लज्जित होकर दिल्ली लौट आया और फिर कभी रणथम्भौर की ओर पैर करके भी नही सोया। रणथम्भौर के किले पर लहराती हिन्दू पताका को हम्मीर देव चौहान ने अपने पूर्वजों को नमन किया और उन्हें विनम्र श्रद्घांजलि देकर अपनी जीत को उन्हीं का आशीर्वाद मानकर उनके श्री चरणों में सादर समर्पित कर दिया। जलालुद्दीन को यह हम्मीर सपनों में भी डराता रहा और वह इस वीर से सपनों में भी कहता रहा कि-”अब उधर नही आऊंगा…नही आऊंगा….नही आऊंगा।”
ये थे हमारे वीर जिनके कारण हम आज तक जीवित हैं। उनके मंदिरों (दुर्गों) में आज कोई पुजारी नही है, चारों ओर धूल कण हैं, स्मारकों पर झाड़ खड़े हैं। नई पीढ़ी का दायित्व है कि इन हिंदूवीरों के मंदिरों की वह स्वयं को पुजारी सिद्घ करे, और इनकी दिवंगत आत्माओं को पूर्णत: आश्वस्त करे कि हम आज भी रणथम्भौर की यश गाथा को दुबारा दोहराने के लिए कृत संकल्प है, और तब तक रहेंगे जब तक इस देश को हिंदू राष्ट्र मानने समझने और स्थापित करने की भावना हमारे भीतर जीवित है।
इसी हम्मीर देव चौहान ने अलाउद्दीन खिलजी के सामने समर्पण कर देने के उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था और युद्घ क्षेत्र में ही सामना करने की हठ पर बैठ गया। इसीलिए कवि को ‘हम्मीर हठ’ लिखने का अवसर मिल गया था।
क्या था अलाउद्दीन का प्रस्ताव और क्या थी ‘हम्मीर हठ’ इसे हम अगले लेख में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करेंगे।
मुख्य संपादक, उगता भारत