दिवस-मास-वर्ष-मन्वन्तर-हैमयुग-विवेक

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निरपेक्षरूपेण प्रत्येक खगोलीय पिण्ड से सम्बन्धित दिवस होता है जो पूर्वी क्षितिज पर उसके उदय से लेकर उसके पुनरोदय तक चलता है। यह सदैव प्रेक्षक के सापेक्ष होता है। चूँकि पृथ्वी के घूर्णन पर ही दिवस आधारित है, अत: देशान्तर (रेखांश) की भिन्नता होने पर दिवस के आरम्भ में भिन्नता हो जाती है। जनता के लिए चन्द्र, सूर्य व भचक्र का प्रमुख नक्षत्र/तारा (मृगशिर अथवा अन्य) — इन तीन पिण्डों के दिवस ही अधिक उपयोगी हैं जो क्रमश: न्यून अवधि के होते हैं। इस प्रकार अहोरात्र सौर दिवस है जो 24 घण्टे का होता है। मुहूर्त (48 मिनट) की दृष्टि से सौर दिवस 30 मुहूर्त का तथा चान्द्र दिवस प्रायः 31 मुहूर्त का होता है। सौर दिवस की तुलना में नाक्षत्र दिवस प्रायः 4 मिनट छोटा होता है।


निरपेक्षरूपेण मास केवल चान्द्र ही होता है जिसके दो प्रधान भेद हैं – नाक्षत्र मास व कलामास।

नाक्षत्र मास संज्ञा उस अवधि की द्योतक है जिसमें पृथ्वी का परिक्रमण करता हुआ चन्द्र एक नक्षत्र की सीध से पुन: उसी नक्षत्र की सीध में आ जाता है। इसमें 27.321662 सौर दिवस होते हैं। इसी कारण नक्षत्रों की संख्या 27 है अर्थात् चन्द्र प्रतिदिन एक नक्षत्र पार करता है।

भचक्र में ग्रह आदि पश्चिम से पूर्व की ओर गतिशील हैं अतः पश्चिम से पूर्व की ओर नक्षत्रक्रम निम्नवत् है –

  1. अश्विनी, 2. भरणी, 3. कृत्तिका, 4. रोहिणी, 5. मृगशिरस्, 6. आर्द्रा, 7. पुनर्वसु, 8. पुष्य, 9. आश्लेषा, 10. मघा, 11. पूर्वा फाल्गुनी, 12. उत्तरा फाल्गुनी, 13. हस्त, 14. चित्रा, 15. स्वाति, 16. विशाखा, 17. अनुराधा, 18. ज्येष्ठा, 19. मूल, 20. पूर्वा आषाढा, 21. उत्तरा आषाढा, 22. श्रवण, 24. धनिष्ठा, 24. शतभिषक्, 25. पूर्वा भाद्रपद, 26. उत्तरा भाद्रपद, 27. रेवती।

कलामास संज्ञा उस अवधि की द्योतक है जिसमें चन्द्र अपनी किसी कला से आरम्भ कर पुन: उसी कला को प्राप्त हो जाता है। इसमें 29.530589 सौर दिवस होते हैं।

कलामास का ज्ञान व व्यवहार नाक्षत्र मास की अपेक्षा प्राचीन है क्योंकि रात्रि में नक्षत्रों की अपेक्षा चन्द्र सहज दृश्य होता है। नक्षत्रों की पहचान बाद में की गई। इसी कारण कहा गया है –
नक्षत्राणामहं शशी। (गीता 10-21)
मैं नक्षत्रों में चन्द्र हूँ।

कलामास के पक्षार्ध नामक चार भाग हैं जिनका आरम्भ क्रमश: अमावास्या, शुक्लाष्टमी, पूर्णिमा व कृष्णाष्टमी से होता है। प्रथम दो पक्षार्धों का समुच्चय आपूर्यमाण पक्ष अथवा शुक्ल पक्ष कहलाता है क्योंकि इसमें चन्द्र का आलोकित भाग क्रमश: बढ़ता जाता है। शेष दोनों का समुच्चय अपक्षीयमाण पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष अथवा बहुल पक्ष कहलाता है क्योंकि इसमें चन्द्र का आलोकित भाग क्रमश: घटता जाता है।

चन्द्रगोल के आलोकित (शुक्ल) व अनालोकित (कृष्ण) भागों में से जो भी पश्चिम की (दायीं) ओर हो वही पक्ष जानना चाहिए।

कृष्ण पक्ष में सूर्यास्त के उपरान्त चन्द्रोदय होता है जबकि शुक्ल पक्ष में सूर्यास्त होने के पहले ही आकाश में चन्द्र उपस्थित होता है और दृश्य भी हो सकता है।

कलामासों का नामकरण पूर्णिमा की नक्षत्रीय स्थिति पर आधारित है। पूर्ण चन्द्र जिस नक्षत्र के निकट होता है प्रायः उसी नक्षत्र के नाम वाला कलामास समझना चाहिए। क्रमश: चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ व फाल्गुन कलामास होते हैं। कलामासों के नामों के नक्षत्र प्राय: एकान्तर क्रम से (मध्य में एक नक्षत्र छोड़ते हुए) आते हैं क्योंकि कलामास नाक्षत्र मास की अपेक्षा प्राय: 2 दिन बड़ा होता है। पूर्णिमा जिस नक्षत्र में होती है उसी नक्षत्र में चन्द्र के पुनः पहुँचने पर नाक्षत्र मास तो पूर्ण हो जाता है किन्तु पूर्णिमा होने में प्रायः 2 दिन और लगते हैं। अतः पूर्णिमा के 2 दिन बाद (कृष्ण पक्ष की द्वितीया को) चन्द्र जिस नक्षत्र के निकट होता है प्रायः उसी नक्षत्र के नाम वाला अगला कलामास समझना चाहिए।

विचार कीजिए कि नाक्षत्र मास अथवा कलामास में से कोई एक 28 दिन अथवा 28·5 दिन का होता तो क्या होता!

व्यवहार में कलामास के 2 रूप हैं – अमान्त व पूर्णिमान्त। अमान्त रूप प्रमुख है। मलमास व अधिमास हेतु अमान्त रूप का ही प्रयोग होता है। जिस कलामास में सूर्य का संक्रम (अगली राशि में प्रवेश) नहीं होता उसी को मलमास बनाया जाता है। मलमास से अगला मास अधिमास होता है। मलमास व अधिमास समान नाम वाले होते हैं। नाक्षत्र सौर वर्ष से चान्द्र वर्ष का समन्वय करने के लिए अधिमास बनाया जाता है। अमा में सूर्य व चन्द्र एक ही नक्षत्र में होते हैं अत: अमान्त कलामास ही अधिमास बनाने हेतु अधिक उपयुक्त है।

दक्षिण भारत में अमान्त कलामास का व्यवहार होता है जबकि उत्तर भारत में पूर्णिमान्त का। फलत: उत्तर भारत में कलामास दक्षिण भारत की अपेक्षा एक पक्ष पूर्व ही आरम्भ हो जाता है।

प्राचीन काल में कलामास का आरम्भ अमा के उपरान्त प्रथम चन्द्रदर्शन से किया जाता था अर्थात् तब पूर्णिमा को मासमध्य माना जाता था। मासों के चैत्र, वैशाख आदि नक्षत्राधारित नामों का प्रचलन होने पर कुछ स्थानों पर पूर्णिमा को मासमध्य नहीं प्रत्युत मासान्त माना जाने लगा।

कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तक प्रायः 3 रात्रियों का ‘अदर्शन’ होता है जिसमें चन्द्र के दर्शन नहीं होते। ‘नवचन्द्र’ (new moon) का दर्शन होते ही अदर्शन समाप्त हो जाता है। नवचन्द्र को प्रथम रात्रि मानने पर 14वीं रात्रि में पूर्णिमा होती है जिसमें चन्द्र सूर्य से 180° पर होता है। सूर्य व चन्द्र का समान अंश पर होना अमा है जो अदर्शन केे मध्य में होती है। अदर्शन में साधना की जाती थी तथा नवचन्द्र होने पर उत्सव मनाया जाता था। सम्प्रति पाश्चात्य ज्योतिषी अमा को ही नवचन्द्र कहने लगे हैं क्योंकि अमाबोधक कोई शब्द उनके पास नहीं है!

नाक्षत्र मास की तुलना में कलामास प्रायः 2 दिन 5 घण्टे बड़ा होता है अत: 13 नाक्षत्र मासों में प्रायः 12 कला मास होते हैं।

सौर मास केवल कृत्रिम आयोजन मात्र है और कलामास की अवधि के अनुकरण (नकल) पर आधारित है!

सौर मास के तीन भेद हैं —
राशिमास, ऋतुमास व अहर्गणीय मास।
इनको वर्ष प्रकरण में बताएँगे।


निरपेक्षरूपेण वर्ष केवल सौर ही होता है जिसके दो प्रधान भेद हैं— नाक्षत्र वर्ष व ऋतुवर्ष।

नाक्षत्र वर्ष संज्ञा उस अवधि की द्योतक है जिसमें पृथ्वी द्वारा सूर्य के परिक्रमण के कारण सूर्य एक नक्षत्र की सीध से आरम्भ कर पुन: उसी नक्षत्र की सीध में प्रतीत होने लगता है। इसमें 365.256363 सौर दिवस होते हैं।

नाक्षत्र वर्ष को कृत्रिमतया 12 राशिमासों में विभक्त किया गया है। भचक्र के तारों को राशि नामक 12 तारा-समूहों में विभक्त किया गया है। सूर्य की एक राशि में स्थिति एक राशिमास कहलाती है।

एक पूर्णिमा जिस तारे के निकट होती है उससे अगली पूर्णिमा उस तारे से पूर्व के किसी तारे के निकट होगी। पहले तारे से दूसरे तारे तक के क्षेत्र का कोणीय विस्तार 30° से किञ्चित् न्यून होता है। ऐसे 12 क्षेत्र बनेंगे। यही राशि की आरम्भिक संकल्पना है।

पूर्णिमा में चन्द्र जिस नक्षत्र में होता है उसके लगभग 180° दूर का नक्षत्र जिस राशि का भाग होता है उसी नाम का राशिमास चल रहा होता है क्योंकि पूर्णिमा सूर्य से 180° के अन्तर पर होती है।

ऋतुवर्ष संज्ञा उस अवधि की द्योतक है जिसमें पृथ्वी के अक्षीय नति के कारण मध्याह्न का लम्बवत् सूर्य उत्तरायणान्त रेखा (लगभग 23.5 अंश उत्तर अक्षांश) व दक्षिणायनान्त रेखा (लगभग 23.5 अंश दक्षिण अक्षांश) के मध्य एक दोलन पूर्ण कर लेता है। इस अयन-दोलन में 365.24219 सौर दिवस होते हैं।

ऋतुवर्ष के वर्षपाद नामक क्रमश: चार भाग हैं जिनके आरम्भ-बिन्दु हैं —
1. उत्तरगोलवासारम्भ (21 मार्च)
2. उत्तरायणान्त (21 ज्यून)
3. दक्षिणगोलवासारम्भ (23 सैप्टैम्बर)
4. दक्षिणायनान्त (22 डिसैम्बर)

पुन: वर्षपादों को भी कृत्रिमतया तीन-तीन ऋतुमासों में विभक्त किया गया है जो इस प्रकार हैं—
प्रथम वर्षपाद ⇒ माधव शुक्र शुचि
द्वितीय वर्षपाद ⇒ नभस् नभस्य इष
तृतीय वर्षपाद ⇒ ऊर्ज सहस् सहस्य
चतुर्थ वर्षपाद ⇒ तपस् तपस्य मधु

इन ऋतुमासों को युग्म में लेने पर क्रमश: 6 ऋतुएँ होती हैं –
1. मधु-माधव ⇒ वसन्त
2. शुक्र-शुचि ⇒ ग्रीष्म
3. नभस्-नभस्य ⇒ वर्षा
4. इष-ऊर्ज ⇒ शरद्
5. सहस्-सहस्य ⇒ हेमन्त
6. तपस्-तपस्य ⇒ शिशिर

भारतवर्ष में मुख्यत: वसन्त ऋतु के आरम्भ के साथ वर्ष का आरम्भ किया जाता था। अत: मधु मास प्रथम मास था।

वर्षपाद ही ऋतुओं के नियामक हैं। अत: ईरान में प्रथम वर्षपाद के आरम्भ के साथ ही वर्ष का आरम्भ किया जाता था। इस प्रकार वहाँ मधु मास नहीं प्रत्युत माधव मास प्रथम ऋतुमास था। भारतवर्ष में भी कुछ स्थानों पर माधव मास के आरम्भ के साथ ही वर्ष का आरम्भ किया जाता था।

अहर्गणना (दिनों की संख्या अथवा गिनती) पर आधारित मासों को अहर्गणीय मास कहते हैं। ये मूलत: ऋतुमासों पर आधारित होते हैं क्योंकि इन्हें माधव ऋतुमास से समञ्जित किया जाता है अर्थात् माधव ऋतुमास के साथ ही भारत में दूसरे तथा ईरान में पहले अहर्गणीय मास का आरम्भ होता है।

ग्रेगोरिअन कैलेण्डर के मास अहर्गणीय हैं किन्तु उनमें 2 दोष हैं–
1. 11 दिन का विलम्ब है अर्थात् 21 मार्च का दिनांक 1 ऍप्रिल होना चाहिए।
2. ऋतुवर्ष में औसत ऋतुमासावधि 30·5 दिन होने के कारण अहर्गणीय मास 30 दिन से छोटा नहीं होना चाहिए तथा न्यूनातिन्यून ऐसे 6 मास अवश्य होने चाहिए किन्तु ग्रेगोरिअन कैलेण्डर में 30 दिन के केवल 4 मास हैं तथा एक मास 28-29 दिन का है।

ऋतुमासों व अहर्गणीय मासों की तुलना करें –

  1. मधु = मार्च
  2. माधव = ऍप्रिल
  3. शुक्र = मे
  4. शुचि = ज्यून
  5. नभस् = जुलाइ
  6. नभस्य = ऑगस्ट
  7. इष = सेप्टेम्बर
  8. ऊर्ज = ऑक्टोबर
  9. सहस् = नोवेम्बर
  10. सहस्य = डिसेम्बर
  11. तपस् = जेन्युअरि
  12. तपस्य = फेब्रुअरि

मधु ऋतुमास के सहवर्ती अहर्गणीय मास मार्च को प्रथम अहर्गणीय मास मानने पर सेप्टेम्बर, ऑक्टोबर, नोवेम्बर व डिसेम्बर क्रमशः 7वें, 8वें, 9वें व 10वें क्रमांक पर आते हैं जिससे इनके नामों के संख्यावाची पूर्वलग्नों (prefixes) की सार्थकता सिद्ध होती है।

भारतीय अहर्गणीय मास-व्यवस्था में प्रथम 11 मास 30 दिन के तथा 12वाँ मास 35 दिन का रखा गया था। प्रति चौथे वर्ष में 12वाँ मास 36 दिन का हो जाता था। मिश्र में भी यही व्यवस्था प्रचलित थी।

भारतीय अहर्गणीय मास-व्यवस्था की एक अन्य विशेषता यह है कि यह कलामासों से भी समन्वय रखती है। कलामास की अवधि लगभग 29·5 दिन है। अत: 30 दिन के अहर्गणीय मास होने पर उनके समान दिनांकों पर प्राय: समान तिथि पड़ेगी जिससे किसी भी दिनांक पर पड़ने वाली तिथि का अनुमान करना अति सरल होगा।

नाक्षत्र वर्ष की तुलना में ऋतुवर्ष प्रायः 20 मिनट छोटा होता है अर्थात् पृथ्वी द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा पूर्ण होने से प्रायः 20 मिनट पूर्व ही ऋतुवर्ष पूर्ण हो जाता है। पृथ्वी की अक्षीय नति की दिशा सतत पश्चिम की ओर गति कर रही है अतः यदि अक्षीय नति की दिशा के बिन्दु से पृथ्वी की परिक्रमा का आरम्भ माना जाए तो उसी बिन्दु पर पहुँचने के प्रायः 20 मिनट पूर्व ही पृथ्वी पुनः अक्षीय नति की दिशा पर पहुँच जाती है क्योंकि तब तक अक्षीय नति की दिशा आरम्भिक बिन्दु से पश्चिम की ओर हट चुकी होती है।

12 कलामासों का एक चान्द्र वर्ष होता है जिसकी अवधि लगभग 354 दिन है। सर्वप्रथम इसी अवधि को ऋतुवर्ष माना गया था।

गुरु द्वारा भचक्र की एक परिक्रमा करने में 12 वर्ष से कुछ न्यून समय लगता है अत: गुरु की एक राशि में स्थिति एक वर्ष से कुछ न्यून अवधि की होती है जो गौरव वर्ष कहलाती है। इसकी अवधि का मध्यम मान लगभग 361 दिन है। जब यह जाना गया कि ऋतुवर्ष की अवधि चान्द्र वर्ष से अधिक है तब गौरव वर्ष को ही ऋतुवर्ष मान लिया गया।

चान्द्र वर्ष व गौरव (बार्हस्पत्य) वर्ष केवल कृत्रिम आयोजन मात्र हैं जिनका ज्योतिषीय व ऐतिहासिक महत्त्व है किन्तु अयन-दोलन ही वास्तविक ऋतुवर्ष है और नाक्षत्र वर्ष ही पूर्ण परिक्रमण है।


मन्वन्तर संज्ञा उस अवधि की द्योतक है जिसमें सतत पश्चिम की ओर डोलता हुआ पृथ्वी का अक्ष अपना एक डोलन पूर्ण कर लेता है। इसमें प्रायः 25800 ऋतुवर्ष होते हैं।

पृथ्वी के डोलते हुए अक्ष का उत्तरी ध्रुव उत्तरी खगोलार्ध में जिस-जिस तारे की सीध में आता जाता है उस-उस तारे का नाम ध्रुव पड़ता जाता है।

यदि नाक्षत्र वर्ष व ऋतुवर्ष का आरम्भ एक साथ किया जाय तो मन्वन्तर पूर्ण होने पर पुन: एक साथ दोनों वर्षों का आरम्भ होगा।


हैमयुग संज्ञा उस अवधि की द्योतक है जिसमें पृथ्वी का अक्ष अपनी न्यूनतम नति (22 अंश) अथवा अधिकतम नति (24.5 अंश) की स्थिति से आरम्भ कर पुन: उसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है। इसमें लगभग 41040 ऋतुवर्ष होते हैं।

अक्षनति अधिकतम होने पर ध्रुवों पर हिम की चादर न्यूनतम हो जाती है तथा वर्षाक्षेत्रों में सर्वत्र वृद्धि होती है। ऐसे ही काल में ऍफ्रीका का विशाल सहारा मरुस्थल हरा-भरा था। इसके विपरीत अक्षनति न्यूनतम होने पर ध्रुवों पर हिम की चादर अधिकतम होती है जो फैलकर उष्ण कटिबन्ध तक आ जाती है तथा वर्षाक्षेत्रों में सर्वत्र ह्रास होता है। ऐसे ही काल में ऍफ्रीका का हरा-भरा सहारा क्षेत्र मरुस्थल हो गया था जो बढ़ते-बढ़ते पश्चिमी भारत तक आ पहुँचा और इसी काल में प्राचीन योरोपीय सभ्यताएँ नष्ट हो गई थीं।
✍🏻प्रचंड प्रद्योत

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