आयु घट भी सकती है और बढ़ भी सकती है
सामान्यत: किसी भी दुर्घटना या चोट आदि के पश्चात जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो लोग उसे अकाल मृत्यु कहते हैं। लोग पीडि़त परिवार को सांत्वना देते हुए ऐसा भी कहते सुने जाते हैं कि ईश्वर ने ऐसा ही करना था, सो हो गया, इसलिए दु:ख किस बात का?
ऐसी बातों के बीच जो धारणा हमारे समाज में प्रचलित हो गयी है, वह यह है कि‘आयु निश्चित है’, और उसे तिल भर भी घटाया बढ़ाया नही जा सकता। इस दोषपूर्ण विचार को बढ़ाते-बढ़ाते लोगों ने ‘हत्या’ को भी ईश्वरीय व्यवस्था के अंतर्गत प्रायोजित मान लिया है। अब यहां प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि हत्यारे ने हत्या ईश्वरीय प्रेरणा से की थी तो इसमें उसका दोष क्या था? क्योंकि तब कत्र्ता वही माना जाएगा जिसने प्रेरणा दी, इसलिए ईश्वर ही उस हत्या के लिए दोषी होगा। पर ऐसी परिस्थिति में ईश्वर का न्यायकारी स्वरूप समाप्त हो जाएगा, तब पाप पुण्य का भेद भी समाप्त हो जाएगा।
समाज में ऐसी भ्रांत धारणाओं ने वैदिक संस्कृति की मान्यताओं को भारी क्षति पहुंचाई है। इस प्रकार की धारणाओं ने हमारी कर्मशीलता और पुरूषार्थ भरी उद्यमशीलता को छीन लिया, व्यक्ति की कर्म करने में स्वतंत्रता और फल भोगने में परतंत्रता की वैदिक व्यवस्था को छीन लिया। हम ये भूल गये कि-
‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्।’’
अर्थात हे जीव तेरा अधिकार केवल कर्म करने पर है उसके फल पर कदापि नही। वेद ने आदेश दिया-‘‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:’’ अर्थात हमारी जिजीविषा (जीने की इच्छा) कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने तक की हो। इस जिजीविषा पर प्रतिबंध है कि-‘‘सत्यं वद् और धर्मम् चर’’ अर्थात सत्य बोल और धर्म का आचरण कर। कर्म सत्य और धर्म के दो पाटों के बीच चलना चाहिए। कर्मरूपी गंगा की धारा के दो किनारे हों-‘सत्य और धर्म।’ अच्छे कर्मों के करने से आयु वृद्घि होती है और बुरे कर्मों के करने से आयु क्षीण होती है, ऐसा माना जाता है।
अल्पायु में मृत्यु होना अकाल मृत्यु कहलाती है। परंतु इसका अभिप्राय यह नही कि वह मृत्यु लिखी ही इस प्रकार थी और उसे इस प्रकार होने से टाला नही जा सकता था। अकाल का अभिप्राय केवल असमय मृत्यु हो जाना ही है, यदि आवश्यक और अपेक्षित सावधानी बरती जाए तो बहुत संभव होगा कि ऐसी अकाल मृत्युओं पर विजय प्राप्त की जा सके। इस सिद्घांत को महर्षि दयानंद ने भी यथावत स्वीकार किया है, और यह वैदिक सिद्घांत है।
वेद ने कहा है कि-‘‘शंयोरभिस्रवन्तु न:’’। अर्थात हमारे जीवन में सुखों के रस का झरना धीमे-धीमे बहता रहे, शुभ कर्मों के सुखों की,फुहारों की,धीमी-धीमी और भीनी-भीनी वर्षा हम पर जीवन भर अथवा आयु पर्यन्त होती रहे। हमारा जीवन जितना संयमित, अनुशासित और मर्यादित रहेगा हम उतने ही अनुपात में सुखों की भीनी-भीनी वर्षा का अनुभव अधिक समय तक करते रहेंगे। इसीलिए हमारे ऋषियों ने मनुष्य को ईश्वर भक्त बनने की प्रेरणा दी, जिससे कि मनुष्य शांत और निभ्र्रांत मन का स्वामी बन सके। इससे आज का वैज्ञानिक भी सहमत है कि हमारा मन जितना शांत होगा हम उतने ही अधिक स्वस्थ और दीर्घायु वाले होंगे।
यदि यह माना जाए कि सभी कुछ पूर्व में निश्चित कर दिया गया है और सब कुछ निश्चित कालक्रम के अनुसार घटित हो रहा है, तो कुछ प्रश्न खड़े हो जाएंगे, यथा-(1) यदि ऐसा है तो हमारे ऋषियों ने आयुर्वेद की खोज क्यों की? (2) ईश्वर ने वनस्पति जगत जो प्रकटत: हमारे स्वास्थ्य और दीर्घायुष्य के लिए उपयोगी है, उसकी रचना क्यों की? (3) शत्रु और वन्य हिंसक जीवों से बचने के लिए मानव ने प्रारंभ से ही सुरक्षात्मक उपाय क्यों अपनाए? (4) आज भी जीवनरक्षक औषधियों की खोज क्यों जारी है? (5) बहुत सी महामारियों यथा प्लेग, हैजा, चेचक आदि पर विज्ञान नियंत्रण कर चुका है, जिससे व्यक्ति की सामान्य आयु में वृद्घि हुई है, ऐसा क्यों?
(6) मध्य काल में राजाओं और बादशाहों के साम्राज्य विस्तार के लिए होने वाले युद्घों में बहुत से लोग मारे जाते थे, इसलिए जनसंख्या कम थी। आज ऐसा नही है तो जनसंख्या अधिक हो गयी, ऐसा क्यों? (7) यदि सभी कुछ पूर्व निर्धारित है तो हम सडक़ के नियमों का पालन क्यों करते हैं? (8) इसी प्रकार हमें बीमार होने पर चिकित्सक का सहारा नही लेना चाहिए। बीमारी हुई है तो पूर्व निर्धारित कालक्रम के अनुसार हुई है और यदि जाएगी तो भी पूर्व निर्धारित कालक्रम के अनुसार ही जाएगी, तब हमारी व्यर्थ की भागदौड़ किस काम की? व्यर्थ का तनाव और पैसा खर्च करना किस काम का है? (9) हमें मनु महाराज ने ऐसा क्यों बताया-
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्घोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वद्र्घन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।।
(मनुस्मृति)
महर्षि दयानंद जी ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है कि-जो नम्र सुशील है, जो ऐसा नित्य करते हैं (अपने वृद्घों की सेवा और अभिवादन) उनके बल, आयु, विद्या और यश सदा बढ़ते हैं, जो ऐसा नही करते उनकी आयु आदि नही बढ़ती। वास्तव में यदि व्यक्ति ने आयुर्वेद की खोज की है, ईश्वर ने वनस्पति जगत में जीवों के कल्याणार्थ औषधियां प्रदान की हैं, हमने शत्रु से बचने के लिए अपने सुरक्षाबल और सैन्यबल बनाये हैं, सडक़ों पर चलने के लिए यातायात के नियम बनाये हैं, और माता-पिता आदि वृद्घों के प्रति सेवाभाव और सत्कार की भावना के नैतिक प्राविधान किये हैं, तो स्पष्ट है कि आयु का बढऩा या घटना मानव के क्रिया कलापों और कार्यों पर भी निर्भर है। इसके लिए हमारे ऋषियों ने हमें अष्टांग योग का रास्ता बताया है, जिसमें मनुष्य मोक्षाभिलाषी बनकर जीवन की साधना करता है और मृत्यु पर विजय प्राप्त करके जीवन को विस्तार देता है। महर्षि चरक का यह कथन भी उल्लेखनीय है-
‘‘हितोपचारमूलं जीवितमतो विपर्ययो हि मृत्यु:’’
अर्थात मनुष्य का जीवन हितकारी चिकित्सा पर निर्भर है, इसके विपरीत उचित चिकित्सा न होने से मृत्यु अवश्य होती है। हम अपने शरीर रूपी यंत्र (मशीन) की जितनी अधिक सुरक्षा व सेवा करेंगे उतना ही यह दीर्घजीवी बनेगा।
समाज में लोग बड़े सहज भाव से कह देते हैं कि श्वास और ग्रास सब पूर्व निर्धारित हैं। मनुष्य अपने श्वासों को काम, क्रोध और दूसरी व्याधियों में फंसकर तेज-तेज लेकर शीघ्रता से समाप्त कर सकता है, और प्राणायाम के माध्यम से श्वासों की गति को सामान्य और सुंदर बना सकता है, उन्हें दीर्घ कर सकता है। हमारे समाज में ‘‘कम खाना और गम खाना’’ वाला मुहावरा बहुत प्रचलित है, इसका महत्वपूर्ण अर्थ है क्योंकि इन दोनों से ही आयु बढ़ती है। हम भय, चिंता, शोक आदि से दूर होते हैं। मनुस्मृति अध्याय 4 श्लोक 157 में कहा गया है-
दुराचारो हि पुरूषोलोकेभवति निंदित:।
दु:ख भागी-च सततं व्याधितोअल्पायुरेव च।।
अर्थात जो दुष्टाचारी पुरूष होता है वह सर्वत्र व्याधित और अल्पायु होता है। अत: स्पष्ट है कि सदाचार से आयु बढ़ती है और दुराचार से आयु घटती है।
सत्यार्थ प्रकाश के दूसरे समुल्लास में महर्षि दयानंद कहते हैं-‘‘बालक अभिज्ञात जलाशय में जाकर स्नानादि न करें, क्यों जल जंतुओं के हानि पहुंचाने से वह मर सकता है और डूबकर भी मर सकता है।’’ इसका अभिप्राय है कि मृत्यु किसी भी समय संभव है, इसलिए सावधानी बरती जानी आवश्यक है।
ईश्वर-सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी है,उसको सब कुछ पता है,वह कालातीत है। जबकि ईश्वर के इन गुणों के विपरीत जीव अल्पज्ञ है। जीव नही जान सकता कि उसकी आयु का परिमाण, नापतोल अथवा उसका ओर छोर क्या है? ईश्वर के ज्ञान में आयु का निश्चित होना इसलिए है कि वह हमारे शुभाशुभ कर्मों का फल प्रदाता है। जिसका ज्ञान ईश्वर ही अपनी सर्वज्ञता से जानता है मनुष्य को तो अपने सुख दुख के फल की परिमाण तक का भी ज्ञान नही है। उसे नही मालूम है कि सुख अथवा दुख की अनुभूति कब तक रहेगी? अत: मनुष्य की आयु उसके अपने ज्ञान में अनिश्चित है। सत्यार्थ प्रकाश के 8वें समुल्लास में ‘आयु निश्चित है’ ये नही कहा गया है, अपितु जीवों का जन्म पूर्वकृत कर्मों के आधार पर ईश्वर करता है यह कहा गया है। इसलिए मानवीय ज्ञान में आयु को निश्चित मानना संभव नही है।
भारतवर्ष के अन्य प्राचीन ऋषियों की भांति महर्षि दयानंद जी ने भी ब्रह्मचर्य और सदाचरण पर मानव के लिए विशेष बल देकर दीर्घायुष्य प्राप्त करने और सप्रमाण संकेत किया है। यदि आयु मानवीय ज्ञान में निश्चित होती तो महर्षि दयानंद जी महाराज ऐसा नही करते। देखिए मनुस्मृति में भी कहा गया है कि-
सर्वलक्षण हीनोअपि य: सदाचार वान्नर:।
श्रद्धानोअनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति।।
इसकी व्याख्या करते हुए महर्षि दयानंद जी लिखते हैं-जो सबसे अच्छे लक्षणों से हीन होकर भी सदाचारयुक्त, श्रद्घा और निंदा आदि दोषों से रहित होता है, वह सुख से सौ वर्ष पर्यन्त तक जीता है। ‘‘महामृत्युजंय मंत्र’’-
‘‘त्र्यंबकम् यजामहे……..मृत्योर्मुक्षीय माअमृतात्’’ में भी कहा गया है कि मुझको मृत्यु से छुड़ाओ अमृत से नही, मृत्यु से छुड़ाने की प्रार्थना तभी की जा सकती है जबकि उससे छूटा जा सकता है। बच्चे के नामकरण संस्कार पर भी हम प्राचीनकाल से उसे आशीर्वाद के रूप में कहते चले आ रहे हैं कि-‘‘त्वं आयुष्मान, वर्चस्वी, तेजस्वी, श्रीमान भूया:।।’’
हे बालक-तू आयुष्मान विद्यावान, यशस्वी, धर्मात्मा पुरूषार्थी, प्रतापी, परोपकारी और श्रीमान हो।
विवाह संस्कार में वर अपनी पत्नी से कहता है-‘‘……….ममेयमस्तु पोष्या: शं जीव ‘शरद:’ शतम्।। अर्थात मुझ पति के साथ (शरद:शांत) सौ शरद ऋतुओं तक शत वर्ष पर्यन्त ‘‘शं जीव’’ सुखपूर्वक जीवन धारण कर। लाजा होम के दूसरे मंत्र में कहा है-
‘‘…………..आयुष्मानस्तु मे पति:।। वधू कहती है कि मेरा पति लंबी आयु वाला हो, उसका दीर्घ जीवन हो। उपरोक्त कथन के प्रत्युत्तर में वर बोलता है-
‘‘ओउम् तच्चक्षुर्देवहितं…..स्याम शरद: शतम् भूयश्च शरद: शतात्।।
अर्थात मुझ पति के साथ प्रजावती होकर सौ वर्ष पर्यन्त आनंद पूर्वक जीवन धारण कर। ‘‘इमं जीवेभ्य: परिधिं दधामि……………।।
स्वामी महामुनि जी के अनुसार बहुत सुख प्राप्त कराने वाली सौ सर्दियों तक जीवित रह,पूर्ण करने के साधन वाले ब्रह्मचर्य रूप पर्वत के द्वारा मृत्यु को अंतर्हित लुप्त करें, अर्थात नष्ट करें। अर्थात मुमुक्षु के लिए ईश्वर नियत परिधि बनाता है, कोई भी मुमुक्षु उसमें रहकर शीघ्र मृत्यु का ग्रास नही बनता। किंतु सौ या बहुत वर्षों तक वह जीता है। ब्रह्मचर्य रूपी पर्वत को मृत्यु लांघ नही सकती है। ऐसे अनेकों प्रमाण हमारे वैदिक वांड्मय में हैं। जिनमें लंबी आयु की कामना हमने ईश्वर से की है। अथवा ईश्वरीय वाणी वेद ने हमें दीर्घजीवन की प्राप्ति के रहस्य बताते हुए उसकी ओर बढऩे के लिए प्रेरित किया है।
उपरोक्त प्रमाणों से यह सिद्घ है कि ‘‘आयु घट बढ़ सकती है। आयु को तनाव, भय, चिंता, विषय विकार काम क्रोधादि घटाते हैं। पश्चिमी जगत इन सभी बातों से तंग आकर आज भारत की संस्कृति की ओर बढ़ रहा है। वह योग से जुड़ रहा है। भारत की सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर को अपनाकर अपने आचार-विचार और आहार-विहार को च्भारतीयज्बना रहा है। वह शाकाहार की ओर आ रहा है। उसने समझ लिया है कि जीवन का वास्तविक आनंद च्लॉफिंग क्लबोंज् में नही है अपितु स्वाभाविक और तनावमुक्त हंसी के हंसने और स्वाभाविक जीवन जीने में है। इसलिए वह अपने आप भारत की ओर खिंच रहा है।
मांसाहार व्यक्ति के लिए वर्जित है। क्योंकि यह आयु को क्षीण करने वाला है। आजकल चिकित्सा विज्ञान में मांसाहार पर काफी शोध की जा रही है। वाशिंगटन के दैनिक समाचार पत्र में मांसाहार के संदर्भ में कुछ तथ्य प्रकाशित हुए हैं-यथा-‘‘मांसाहार करने वालों को जानलेवा बीमारियां ज्यादा होती हैं’’। अमेरिका की प्रतिष्ठित रिसर्च संस्था ‘वल्र्ड वाच’ ने अपनी रिपोर्ट में यह जानकारी दी है कि-इसके अनुसार मांस खाने वालों को दिल के दौरे, मधुमेह, आंतों का कैंसर और दूसरी घातक बीमारियां आसानी से हो जाती हैं।
जार्ज बर्नार्डशा के शब्दों में देखिए-मांसाहार क्रूरता को जन्म देता है।
यही कारण है कि मानव आज हिंसक बनकर ७५००० जीव जंतुओं की प्रजातियों को नष्ट कर चुका है। इतने बड़े पाप का एक ही कारण है कि हमने यह मान लिया है कि होनी बलवान होती है। जो भी हम कर रहे हैं उसमें किसी अदृश्य शक्ति की प्रेरणा कार्य कर रही है। फलस्वरूप मानव अधर्मी बनकर क्रूर हो गया है, हिंसक हो गया है। अपने ही पैंरों पर कुल्हाड़ी मारे जा रहा है और फिर बड़ी बेशर्मी से स्वयं को सभ्य कहता है। हमें स्मरण रखना होगा कि परिस्थितियों का निर्माता मानव स्वयं होता है। वास्तव में सच यह है कि परिस्थितियों का भंवर जाल हो हमें बहा ले गया हमारी ही मूर्खताओं का परिणाम था। अत: जो होनी होती है उसे हम अपने विवेक, बुद्घिकौशल और विचारपूर्ण कार्यशैली से टाल सकते हैं। हम अपने भाग्य निर्माता स्वयं हैं। रास्ता कौन सा चुनना है विवेक का अथवा अविवेक का? उसके चयनकर्ता हम स्वयं हैं। विवेक का रास्ता आयुवर्धक है और अविवेक का रास्ता आयु घटाता है।
अधिकांश जानलेवा अथवा आयु को क्षीण करने वाले रोग भी हमारी अपनी भूलों के ही परिणाम होते हैं। उसका फल ईश्वर देता है जो कभी कभी मृत्यु के रूप में भी हमें देखने को मिलता है।
अत: यह कहना भी सर्वथा अज्ञानमय है कि-ईश्वर को करना ही ऐसा था, जो हो गया है। अपितु सही रूप में यह कहना चाहिए कि हमारे कर्म ही ऐसे थे कि जो ईश्वर ने यह फ ल हमें दिया है। तब ईश्वर के प्रति दुखों में रहकर भी कृतज्ञता बढ़ेगी, आस्तिक भाव बढ़ेगा और दुखों को सहन करने की शक्ति बढ़ेगी। जबकि फल देने को मात्र ईश्वर का अन्याय मानने से उसके प्रति नास्तिक भाव बढ़ेगा। दुख पहाड़ बन जाएंगे और जीवन बोझ बन जाएगा।
अत: हमें किसी प्रकार के मिथकों में चित्त को न भरमाकर अपने जीवन और अपनी आयु का पोषक,संरक्षक और शुभचिंतक बनना चाहिए। ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस मशीनरी की देखभाल और रख रखाव हम अपने बुद्घि कौशल और विवेक से करते रहें। अपने आचार विचार और आहार विहार पर ध्यान दें, क्योंकि यही ‘दीर्घायुष्य’ का रहस्य है।
मुख्य संपादक, उगता भारत