बाबासाहेब के निर्वाणकाल की व्यथा: नेहरुजनित विषाद का परिणाम
कबीर तहां न जाइए, जहाँ सिद्ध को गाँव
स्वामी कहे न बैठना, फिर फिर पूछे नांव
इष्ट मिले अरु मन मिले मिले सकल रस रीति
कहैं कबीर तहां जाइए, जंह संतान की प्रीति
बाबासाहेब अम्बेडकर के कांग्रेस से जुड़ाव को कबीर के इन दोहों के माध्यम से पुर्णतः प्रकट किया जा सकता है. बाबा साहेब के निर्वाण दिवस को नेहरु गांधी केंद्रित कांग्रेस से उनके जुड़े हुए अध्यायों के बिना देखना अनुचित होगा. बाबासाहेब के निर्वाण दिवस को उनके द्वारा उनके राजनैतिक व सार्वजनिक जीवन में सहन की गई कांग्रेस जनित व्यथा, यंत्रणा, व संत्रास का उल्लेख किए बिना व्यक्त करना असंभव है. बाबासाहेब को लगता था कि उनका ज्ञान ही उनकी जाति व उनकी पीड़ा के उच्छेद का माध्यम बनेगा किंतु कांग्रेस में नेहरुजी पर गांधीजी के वरदहस्त के चलते बाबासाहेब की यह कल्पना असत्य सिद्ध हुई. गांधीजी द्वारा बाबासाहेब अंबेडकर के सामाजिक, राजनैतिक व वैचारिक मार्ग में निरोध, गतिरोध, प्रतिरोध, उत्पन्न करने के कई कई अध्याय भारतीय राजनीति में यहां वहां बिखरे पड़े हैं. गांधीजी व बाबासाहेब के इन अंतहीन किंतु अनावश्यक (नेहरू-गांधी द्वारा अनावश्यक उपजाए गए) अंतर्विरोधों को मैंने गांधीजी के परिप्रेक्ष्य में एक अलग आलेख में विस्त्तार से लिखा भी है. यहां उल्लेखनीय यह है कि स्वतन्त्रतापूर्व भी व पश्चात भी जवाहरलाल नेहरु अम्बेडकर जी की उपेक्षा न केवल स्वयं कर रहे थे अपितु गांधीजी से साशय करवा भी रहे थे. अम्बेडकरजी की अतुलनीय, लेखकीय व अकादमिक विद्वता से नेहरूजी भय पाले रहते थे. उन्हें लगता था कि कहीं अंग्रेजों या भारतीय जनता की दृष्टि में उनकी योग्यताओं को बाबासाहेब की योग्यता से कम न आंका जाने लगे.
नेहरूजी ने भी कई कई बार बाबासाहेब को कमतर आंकने के सफल प्रयास किए. 26 फरवरी, 1955 को बाबा साहब भीम राव आंबेडकर ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में गांधीजी के व्यक्तित्व की तीखी आलोचना की थी. इसके बाद नेहरूजी ने चाय से अधिक केतली गर्म वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए कई कई विचित्र से सार्वजनिक व्यक्तव्य दे डाले थे. बीबीसी का एक इंटरव्यू बाबासाहेब के सदर्भ में महत्वपूर्ण साक्ष्य है. इस साक्षात्कार में अम्बेडकर जी ने उनके स्वयं के प्रति नेहरू प्रेरित गांधीजी के व्यवहार की बड़ी मुखर चर्चा की है. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी नई किताब ‘गांधीः द इयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड’ ने इस इंटरव्यू का यह कहते हुए जिक्र किया है कि “1930 और 1940 के दशक में लिखे उनकी विवादित रचनाओं में भी उन्होंने (डॉक्टर आंबेडकर) गांधी की निंदा की है.” गांधीजी के प्रति आग्रही रहे रामचंद्र गुहा द्वारा अम्बेडकर जी की पुस्तकों को विवादित कहना भी उनके नेहरूवादी गांधियन होने का एक बड़ा प्रमाण देती है. सात दशक पूर्व साल पहले की गई उनकी आलोचनाओं में बाबासाहेब ने अपनी राय, ऐतिहासिक दावों और विश्लेषण को शामिल किया था.
नेहरुनीत कांग्रेस ने बाबासाहेब को संविधान सभा में जाने से रोकने की हर मुमकिन कोशिश की. अम्बेडकरजी की समाज सुधारक वाली छवि कांग्रेस के लिए चिंता का कारण थी, इससे नेहरूजी को भारत में उनकी बौद्धिक प्रासंगिकता ही संकट में दिखने लगती थी. यही कारण है कि नेहरुनीत कांग्रेस ने उन्हें संविधान सभा से दूर रखने की योजना बनाई. संविधान सभा में भेजे गए शुरुआती 296 सदस्यों में आश्चर्यजनक तरीके से बाबासाहेब का नाम नहीं था. बाबासाहेब कांग्रेस के झांसे में आकर सदस्य बनने के लिए मुंबई के अनुसूचित जाति संघ का साथ भी नहीं ले पाए थे.
तत्कालीन मुंबई के मुख्यमंत्री बीजी खेर ने कांग्रेस से मिले संकेतों के आधार पर सुनिश्चित किया कि बाबासाहेब सदस्य न चुने जाएं. अंततः येन केन प्रकारेण दलित नेता जोगेंद्रनाथ मंडल के प्रयासों से वे संविधान में सम्मिलित हो पाए थे.
नेहरूजी बाबासाहेब से इतने भयभीत रहते थे व राजनैतिक रूप से उन्हें उलझाए रखने में इतने धारदार बने रहते थे कि उन्होंने चार हिंदू बहुल जिलों को कुटिलतापूर्वक पाकिस्तान की भेंट चढ़ाने में भी कोई संकोच नहीं किया. बाबासाहेब को चुनने वाले चार हिंदू बहुल जिलो को नेहरू ने पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बना दिया. परिणामस्वरुप बाबासाहेब इस आधार पर भारतीय संविधान सभा की उनकी सदस्यता रद्द हो गई और वे पाकिस्तान के सदस्य कहलाए. अंततः बाबासाहेब ने नेहरूजी द्वारा उत्पन्न की जा रही तमाम बाधाओं को पारकर किसी प्रकार से राजनैतिक दबाव बनाकर संविधान सभा की सदस्यता प्राप्त की थी.
बाद में नेहरू सरकार द्वारा अनुसूचित जाति क्षेत्र की सतत उपेक्षा के कारण ही बाबासाहेब ने सितंबर 1951 में नेहरू कैबिनेट से त्यागपत्र दे दिया. नेहरू सरकार से उनके त्यागपत्र का एक बड़ा कारण हिंदू कोड बिल भी था. 1947 में प्रस्तुत हिंदू कोड बिल हिंदू समाज हेतु व विशेषतः उसकी आन्तरिक एकात्मता की रक्षा हेतु एक मील का पत्थर सिद्ध होता किंतु इसे कांग्रेस द्वारा विफल किया गया. यहां यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि कांग्रेस बाबासाहेब के इस बिल को पारित कराने हेतु उन्हें वचन भी दे चुकी थी. बाद में इस घटना को बाबासाहेब ने कांग्रेस की आत्मघाती घटना कहा था और आज उनकी कही वह बात चरितार्थ हो रही है. बाबासाहेब ने कहा कि प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद ये बिल संसद में गिरा दिया गया.
बाबा साहेब के निर्वाण दिवस पर यह भी स्मरणीय है कि 1952 में जब वे उत्तर मुंबई लोकसभा सीट से लड़े तो नेहरूजी ने षड्यंत्रपूर्वक बाबासाहेब के ही निकट सहयोगी एनएस काजोलकर को कांग्रेस से बाबासाहेब के विरुद्ध चुनाव लड़वाकर कर व उन्हें हरवाकर एक छुद्र राजनीतिक सोच का परिचय दिया था. नेहरूजी ने बाबासाहेब के विरुद्ध इस चुनाव में भीषण अभियान चलाया था व बाबासाहेब को हारने हेतु तमाम नैतिक अनैतिक उपाय किए थे. बाबासाहेब संसद में प्रवेश पाने हेतु पुनः 1954 में बंडारा से प्रत्याशी बने किंतु नेहरूजी ने यहां भी अनैतिकता पूर्वक चुनाव अभियान चलाया व बबासाहेब को चुनाव हरवा दिया. उस कालखंड की कई कई ऎसी घटनाएं हैं जिनसे सिद्ध होता है कि नेहरुनीत कांग्रेस बाबासाहेब को किसी भी प्रकार से राजनीति से बाहर ही रखना चाहती थी. बाबासाहेब के मित्र अक्षय कुमार जैन की पुस्तक “अम्बेडकर स्मृति” में नेहरूजी व बाबासाहेब के मध्य हुए ऐसे कई अंतर्विरोधों का उल्लेख है. ऐसी ही एक घटना से हमें स्वतंत्रता के पश्चात देश की पहली सरकार द्वारा किए जा रहे अवांछित व अनुचित आचरण का पता चलता है. देश की पहली सरकार को जहाँ परस्पर राजनैतिक विद्वेष को भूलकर देश के विकास में रत रहना चाहिए थी वहीँ नेहरू सरकार अपने विरोधियों को सबक सिखाने में रूचि लेने लगी थी. एक दिन इसी प्रकार का आचरण करते हुए नेहरू जी ने बाबासाहेब को अपने घर पर बुलाया और कहा – “अम्बेडकर जी, पालिटिक्स इज द गेम एंड वी आर आनली द प्लेयर्स”. स्पष्ट था कि देश की नेहरू नेतृत्व वाली प्रथम केंद्र सरकार जिसे सभी दलों व विचारधाराओं का समन्वय बनाकर देश चलाने का उत्तरदायित्व मिला था वह सरकार केवल नेहरू विचार केंद्रित सरकार बनकर रह गई थी. नेहरूजी की पालिटिक्स इज द गेम वाली बात सुनकर बाबासाहेब ने सहजतापूर्वक उन्हें उत्तर दिया कि राजनीति खेल या प्रतिस्पर्धा नहीं अपितु देश व समाज जो बदलने की एक कुंजी है और देश तभी आगे विकसित होगा जब समाज एक होगा, अतः हमें समाज को एक करने का प्रयास करना होगा. यह बात सुनकर नेहरूजी अपमानजनक व्यवहार करते हुए बाबासाहेब को कमरे में ही छोड़कर अन्यत्र चले गए. वस्तुतः बाबासाहेब की यह समाजसुधारक वाली छवि ही नेहरूजी के भय का एक बड़ा कारण थी.
लार्ड माउंटबैटन की पत्नी एडविना के साथ देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरूजी के संबंधों की भी स्वतन्त्रतापूर्व व स्वातंत्र्योत्तर राजनीति में उल्लेखनीय किंतु नितांत अनावश्यक व विवादित भूमिका रही है. लेडी एडविना को नेहरूजी द्वारा लिखे गए एक बड़े ही लंबे पत्र में 1952 में मुंबई चुनाव में बाबासाहेब की हार का बड़ा व्यंग्यपूर्ण उल्लेख किया है. एक देश के प्रधानमंत्री द्वारा स्वयं को गुलाम बनाकर रखने वाले देश की एक आम महिला नागरिक को इस प्रकार का पत्र लिखना भी देश को बड़ी ही असुविधाजनक स्थिति में लाकर खडा करता है. बुद्धिजीवी कहलाए जाने वाले नेहरूजी ने इस पत्र में लिखा है कि अम्बेडकर अब इस देश की राजनीति से बाहर हो गए हैं और यह भी लिखा है कि इस चुनाव में उन्होंने (नेहरू ने) मुद्दों के स्थान पर पर्सनल अटैक का अधिक उपयोग किया. नेहरूजी ने इस पत्र में देश के उत्तरी भाग की हिंदू व सिक्ख राजनीति का भी असुविधाजनक व असहज उल्लेख किया है. देश के प्रधानमंत्री द्वारा एक विदेशी महिला को भारत की आंतरिक राजनैतिक परिस्थितियों पर लिखे गए इस पत्र के विषय, सामग्री व शैली आज भी हमारे लिए बड़ी ही असहज स्थिति को उत्पन्न करती है.
बाबासाहेब के निर्वाण दिवस पर यह विषय हमें बाबासाहेब के निर्वानकाल में उनके अंतस, मानस व कृतित्व पर नेहरू द्वारा उत्पन्न किये गए विषाद, दुःख व संताप को प्रकट करता है.