भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में पुरोहितों का स्थान

रवि शंकर

समाज के नायक थे पुरोहित
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मंदिरों के पुजारियों और पुरोहितों की योग्यता को लेकर जो टिप्पणी की गई है उसके बाद हमारे समाज में पुरोहितों की भूमिका को लेकर एक बहस चल पड़ी है। सही बात तो यह है कि पुरोहितों का भारतीय समाज में महत्वपूर्ण स्थान है। वे समाज की मान्यताओं के रक्षक होते हैं। इन्होंने ही हमारी लाखों वर्षों से चली आ रही परम्पराओं को पीढ़ी दर पीढ़ी बचाया है। ईराक-ईरान जैसे देश अपनी अपुष्ट और लचर परम्पराओं की कमजोरी के कारण 28-30 साल में पूर्ण इस्लामिक हो गए पर भारत हजार वर्ष से भी अधिक के इस्लामिक तथा तीन सौ वर्षों के ईसायत के कहर को झेलता गया तो इसका श्रेय इन्हीं पुरोहितों को जाता है। पुरोहितों का काम भारत में एक संस्था के रूप में स्थापित है। वेदों में भी कहा गया है ”अग्निमीले पुरोहितं” यानि वेदों ने अग्नि को पुरोहित का स्थान दिया है। हमारे आस-पास जो सब कुछ जीवंत दिखाई देता है, उसका कारण अग्नि है। प्रत्यक्ष रूप से भले ही लकड़ी में अग्नि न दिखाई पड़ती हो पर दो लकडिय़ों को रगडऩे से अग्नि प्रज्वलित हो जाती है। दो मेघों के टकराने से अग्नि उत्पन्न होती है यानि पानी में भी अग्नि समाहित होती है। हर जगह वह अग्नि ही है जो जीवंतता बनाए रखती है।
यह भ्रम हो सकता है कि पुरोहितों का काम केवल मंदिरों एवं घरों में पूजा पाठ कराने का होता है। परंतु वह केवल कर्मकाण्डी नहीं होता, इससे इतर भी उनके अनेक काम वेदों में बताए गए हैं। वैदिक प्रणाली के अनुसार इनके कर्तव्यों में सेना का निरीक्षण तथा शस्त्रों को संभाल कर रखने एवं समय आने पर उनके संधान करवाने का भी वर्णन है। उदाहरण के लिए, ऋषि वशिष्ठ ने राजा भरत के पुरोहित बनकर उनका सम्मान बढ़ाने का काम किया था। पुरोहित सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र शत्रुओं के अस्त्र-शस्त्रों से अधिक प्रभावी हों ताकि उनकी ही सेना जीते इसका भी ध्यान रखते थे। एक बात तो तय है कि शस्त्रों को संभालकर रखना और समय आने पर सैनिकों को देना इनका ही काम था।
रामेश्वरम यात्रा करने के लिए प्रतिवर्ष लाखों लोग जाते हैं। रामेश्वरम से धनुष्कोटि जाकर पुरोहितों को धनुष, बाण, गंगाजल, रूपए आदि देने की प्रथा वहां आज भी प्रचलित है। वहां के पुरोहितों ने चांदी के छोटे-छोटे धनुष बाण बना रखे हैं, वे ही आज दिए जाते है। यह तो केवल परम्परा का निर्वहन मात्र है, पर जब यह प्रथा प्रारम्भ हुई थी, उस समय असली धनुष बाण दिए जाते थे। इस परम्परा की गहराई में जाएं तो ध्यान में आता है कि रावण को परास्त करके भगवान श्री राम वीरभद्र को सेना की कमान सौंप कर अयोध्या चले आए। फिर से राक्षस यहां उत्पात न मचा सकें, इसके लिए वहां की सेना का मजबूत होना अति आवश्यक था। वहां की सेना को अस्त्र-शस्त्र, पेयजल तथा धन की कमी न हो, सीमाएं सुरक्षित रहें, इसके लिए देशभर के लोग वहां असली अस्त्र-शस्त्र, पीने के लिए गंगाजल तथा धन समर्पित करते थे। वह परम्परा आज भी वहां चली आ रही है। हमें ऐसी परम्पराओं का सच समझने की आवश्यकता है।
सच तो यह है कि भारत की पुरोहित परम्परा केवल पूजा पाठ के लिए नहीं थी, अपितु समाजिक जीवन को गतिशील तथा सुरक्षित बनाए रखने के लिए थी। इसलिए आज आवश्यकता है कि मंदिरों में जिन पुरोहितों की नियुक्ति हो, उनकी योग्यता को जरूर परखा जाए। केवल सम्बन्धों के आधार पर नियुक्तियां नहीं की जाएं।
एक बात और, आज परम्परागत व्यवस्थाओं को बेहतर करने की जगह सुधारीकरण के बहाने शासन के द्वारा मंदिरों का जो सरकारीकरण किया जा रहा है, वह भी अनुचित है।

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