भाजपा, नैतिकता और गोविन्दाचार्य
भाजपा जब अस्तित्व में आयी थी तो इसने ‘पार्टी विद डिफरेंस’ का नारा दिया था। उसका अभिप्राय लोगों ने यह लगाया था कि यह पार्टी अन्य पार्टियों की राह को न पकडक़र राजनीति में अपना रास्ता अपने आप बनाएगी और वह रास्ता ऐसा होगा जो अन्य पार्टियों के लिए और इस देश की भविष्य की राजनीति के लिए एक आदर्श स्थापित करेगा।
समय व्यतीत होता गया और पार्टी आगे बढ़ती गयी। पार्टी बढ़ते-बढ़ते सत्ता के निकट ही नही पहुंची अपितु सत्तासीन भी हुई और आज स्पष्टï बहुमत के साथ सत्ता में बैठी भी है। पर ‘पार्टी विद डिफरेंस’ कुछ लोगों के लिए आज भी मृग मरीचिका बना हुआ है। लोग समझ नही पाये हैं कि भाजपा के ‘पार्टी विद डिफरेंस’ के वास्तविक अर्थ क्या हैं? इसका एक कारण तो यह है कि भारतीय राजनीति अपने आप में बहुत सी विसंगतियों का शिकार है, इसमें कई पेंच ऐसे हैं, जिन्हें खोलना हर किसी के वश की बात नही है। दूसरे भारत के राजनीतिज्ञों का चरित्र भी दोगला रहा है। यद्यपि ‘उजली चादरें’ भी राजनीति में रही हंै, और आज भी हंै, परंतु उनका अनुपात बहुत ही कम है। ऐसी परिस्थितियों में भाजपा अपने कहे के अनुसार एक आदर्श पार्टी नही बन पायी। इस पार्टी में भी दोगले लोगों ने प्रवेश करने में सफलता प्राप्त कर ली।
अब गोविन्दाचार्य ने भाजपा पर आरोप लगाया है कि यह पार्टी नैतिकता से मुंह मोड़ रही है। यह वही गोविन्दाचार्य हैं जो कभी भाजपा के ‘थिंक टैंक’ कहे जाते थे। उनसे उचित रूप से पूछा जा सकता है कि जब वह भाजपा के ‘थिंक टैंक’ थे तो उस समय यह पार्टी नैतिकता के कौन से आदर्श स्थापित कर रही थी? या उन्होंने भाजपा के लिए ऐसे कौन से मानदण्ड नियत कर दिये थे कि जिनसे वह आज मुंह फेर रही है? गोविन्दाचार्य स्वयं में एक ‘हवाई नेता’ हैं, और वह भीड़ को अपनी ओर आकर्षित करने वाले नेता कभी नही रहे। इसलिए जनता के बीच रहकर जनता का होकर, जनता के लिए काम करने का अनुभव उनके पास नही है।
निश्चय ही गोविन्दाचार्य की अपेक्षा भाजपा का वह हर एक नेता बड़ा है जो जनता का नेता है और जनता के लिए समर्पित है। गोविन्दाचार्य के विचार महान हो सकते हैं, पर जनता में अपने प्रति आकर्षण पैदा न कर पाना उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है। जिससे वह एक स्थापित राजनेता नही बन पाए। गोविन्दाचार्य ने कोई भी ऐसी नीति नही बताई है कि जिसे अपनाकर भाजपा नैतिकता के मार्ग पर आ जाए। इसलिए लगता है कि गोविन्दाचार्य भी सुषमा-वसुंधरा ललित मोदी प्रकरण में मोदी सरकार की आलोचना करके केवल सुर्खियां बटोरने की लालसा से ही ग्रसित हंै। वह खींझ मिटा रहे लगते हैं, इसलिए लालकृष्ण आडवाणी का अनुकरण करते हुए वह अनावश्यक आलोचना कर रहे हैं।
लोगों को स्मरण होगा कि एक बार गोविन्दाचार्य ने अटल जी के लिए भी ‘मुखौटा’ शब्द का प्रयोग कर दिया था। जिससे अटल जी को बुरा लगा था, और जब गोविन्दाचार्य को यह पता चला कि अटल जी उनकी टिप्पणी से नाराज हैं तो वह अटल जी के सामने आने से भी बचते रहे थे, यानि कह तो दिया था ‘मुखौटा’ पर थोड़ी देर में ही पता चल गया था कि मुखौटा तो वह स्वयं हैं जो भाजपा का नाम लेकर चल रहे हैं, वह इसलिए जाने जाते हैं कि वह भाजपा के चेहरे हैं। कुछ समय बाद जब वह भाजपा से अलग चले गये तो अब जनाब बड़े कार्यक्रमों के लिए आमंत्रण मिलने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। उन्हें पता चल गया कि ‘पार्टी चलाना’ एक अलग बात है और पार्टी चलाने के लिए ‘क्लर्क’ बनकर (थिंक टैंक) कार्य करना एक अलग बात है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अभी देश को बहुत उम्मीदें हैं,उन्हें भाजपा की गलत नीतियों और नेताओं दोनों में सुधार करना होगा, तभी देश का आम आदमी उनके लिए दिल से कह सकेगा………‘हमारे मोदी’।
मुख्य संपादक, उगता भारत