ओ३म् “संसार के एक सर्वशक्तिमान राजा ईश्वर का कहीं कोई प्रतिद्वंदी नहीं है”

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ओ३म

हम इस ब्रह्माण्ड के असंख्य व अनन्त गृहों में से एक पृथिवी नामी ग्रह पर रहते हैं। इस ब्रह्माण्ड को सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, नित्य तथा सृष्टिकर्ता परमेश्वर ने बनाया है और वही इसका संचालन वा पालन कर रहा है। ईश्वर के समान व उससे बड़ी उस जैसी कोई सत्ता नहीं है। उसका अपना स्वभाव है। वह दयालु, न्यायकारी, जीवों को उनके कर्मों का फल देने वाला, मनुष्यों का माता के गर्भ में निर्माण करने वाला आदि अनेकानेक गुण, कर्म व स्वभाव वाला है। राजा उसे कहते हैं जिसका अपना कोई विधान या संविधान होता है। उसके अनुसार वह शासन करता है। ईश्वर का भी एक संविधान है जिसे वेद कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ में ही ईश्वर अपने इस वेद ज्ञान वा संविधान से सब मनुष्यों को परिचित कराता है। उसकी प्रेरणा से ही उसके वेदज्ञानी भक्त वा ऋषि उसके विधान का अन्य मनुष्यों में प्रचार करते व उसे उनके लिए हितकारी एवं सबसे अधिक लाभप्रद सिद्ध करते हैं। हमारी इस सृष्टि को बने हुए 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 121 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इस अवधि में वह ईश्वर नियमपूर्वक इस सृष्टि का संचालन कर रहा है। सूर्य समय पर उदित व अस्त होता है। ऋतुयें समय पर आती व जाती हैं। संसार में मनुष्य व अन्य प्राणियों की जन्म व मृत्यु की व्यवस्था भी सुचारू रूप से चल रही है। वेदों में जो ज्ञान की बातें हैं वह सब सत्य सिद्ध हो रही हैं। वेद की किसी बात में सृष्टि के विपरीत वर्णन व कथन नहीं है। संसार के सभी मनुष्य क्या वेदानुयायी आर्य क्या अन्य हिन्दू, ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, जैन, सिख आदि सभी उसमें विश्वास रखते व उसके द्वारा प्रदत्त सुख रूपी पुरस्कार तथा दण्ड रूपी सजाओं को हंस व रो कर स्वीकार करते हैं। वह ऐसा राजा व न्यायाधीश है जिसके निर्णय व नियमों में सुधार व परिवर्तन की कहीं कोई अपील नहीं करता। दुःखी व गम्भीर रूप से रोगी मनुष्य भी उसके न्याय को स्वीकार करता है। जो लोग स्वीकार नहीं करते वह नास्तिक कहलाते हैं। नास्तिक भी आस्तिक के समान ईश्वर के द्वारा ही जन्म प्राप्त करते हैं। वह शिशु से बालक, फिर किशोर, युवा तथा प्रौढ़ावस्था से होते हुए वृद्धावस्था में पहुंच कर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। नास्तिक कम्यूनिस्ट लोग भी उस परमेश्वर के नियमों में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं करा पा रहे हैं। ईश्वर ऐसा राजा है जो मनुष्यों से अपनी प्रशंसा व स्तुति आदि की किंचित अपेक्षा नहीं करता। कोई उसकी स्तुति व प्रशंसा करे या न करे, वह सबके साथ अपने विधान के अनुसार समान रूप से व्यवहार करता है। विश्व विजेता भी उसके सम्मुख नतमस्तक हुए हैं। विश्व वन्दनीय राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य आदि भी सभी ईश्वर के आदर्श भक्त व अनुयायी थे। इन महापुरुषों का यश आज भी संसार में व्याप्त है। आज भी इन्हें महान पुरुषों के रूप में पूजा जाता है। इनके जीवन चरित्र पढ़कर संसार के अधिकांश लोग प्रेरणा ग्रहण करते हैं और अपने जीवन में इन महापुरुषों के गुणों के अनुरूप बनाने का प्रयास करते हैं। भारतवासियों का सौभाग्य है कि राम, कृष्ण, दयानन्द व चाणक्य आदि सभी इसी भारत भूमि में उत्पन्न हुए थे।

ईश्वर संसार का राजा व न्यायाधीश है। वह दयालु एवं कृपालु भी है। वह किसी मनुष्य को अपने राजा या न्यायाधीश होने का विज्ञापन नहीं देता। वह सभी मनुष्यों व जीवात्माओं के हृदय में रहते हुए भी बिना प्रयत्न किये अपनी ओर से किसी को अपने अस्तित्व तथा उपस्थिति का अनुभव व ज्ञान नहीं कराता। वह अपना कर्म वा कार्य करता रहता है। उसने हमें बुद्धि व स्वाभाविक ज्ञान दिया है। हम यदि प्रयत्न करते हैं तो हम उसे जान पाते हैं। उसने सृष्टि के आरम्भ में ही अपने गुण, कर्म, स्वभाव तथा स्वरूप का ज्ञान करा दिया था। इसके लिये उसने चार ऋषियों को वेद ज्ञान दिया था। वह ज्ञान आज भी शुद्ध रूप में उपस्थित है। हम चाहें व प्रयत्न करें तो हम वेदाध्ययन कर ईश्वर, जीवन व संसार सहित ब्रह्माण्ड के अधिकांश रहस्यों को जान सकते हैं। उसको जानने का प्रयत्न करने के लिये हमें उसका ध्यान करना होता है। जो मनुष्य उसका ध्यान करते हैं, उन्हें वह दुःख से दूर कर अपने निज आनन्दस्वरूप के अनुरूप आनन्द का अनुभव समाधि अवस्था में कराता है। निद्रा तथा सुषुप्ति अवस्थाओं में भी हम जिस सुख का अनुभव करते हैं वह परमात्मा द्वारा प्रदत्त सुख ही होता है। जो लोग सत्य ज्ञान की खोज नहीं करते वह मत-मतान्तरों के अनुयायी बन जाते हैं अथवा नास्तिक बन जाते हैं। ऐसे मनुष्य ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को प्राप्त नहीं हो पाते। उनका मनुष्य जीवन वृथा हो जाता है। जिस प्रारब्ध के कारण उन्हें जाति, आयु व भोग मिला होता है, वह कुछ व अधिकांश का भोग कर लेते हैं तथा मनुष्य जन्म में कुछ पाप व कुछ पुण्य भी कर लेते हैं। मुक्ति का मार्ग पूर्वजन्मों के कर्मों का भोग कर तथा इस जीवन में पाप न कर वेदाध्ययन से ज्ञान की वृद्धि तथा उसके अनुरूप कर्म करने सहित योगाभ्यास द्वारा समाधि को प्राप्त होकर ईश्वर का साक्षात्कार करने पर प्राप्त होता है। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य होता है। इसे प्राप्त होकर मनुष्य दुःखों से युक्त जन्म-मृत्यु के चक्र से लम्बी अवधि तक के लिये मुक्त हो जाता है। मुक्तावस्था में जीव अर्थात् मनुष्य का आत्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहता है और ईश्वर के आनन्द से युक्त होकर जीवात्मा अलौकिक दिव्य आनन्द को प्राप्त होकर ईश्वर व मुक्त जीवों से सम्पर्क एवं लोक-लोकान्तरों का भ्रमण कर मोक्षावस्था का अपना काल आनन्दपूर्वक व्यतीत करता है।

परम पिता परमेश्वर सृष्टि की उत्पत्ति करके 1.96 अरब वर्षों से इस संसार व ब्रह्माण्ड का राजा व न्यायाधीश बना हुआ है। कभी किसी ने उसे चुनौती नहीं दी कि यह स्थान अब उसे मिलना चाहिये। ईश्वर अकेला अर्थात् एकमात्र सत्ता है। उसके समान दूसरा कोई ईश्वर नहीं है। उसका अपना परिवार माता-पिता, आचार्य, मित्र, बन्धु, कुटुम्बी आदि भी नहीं है। जीवात्मायें संख्या में अनन्त हैं। उन अनन्त जीवों में से कभी किसी ने विश्व व संसार का राजा बनने का दावा प्रस्तुत नहीं किया। क्यों नहीं किया, कि वह या तो ईश्वर को जानते ही नहीं और यदि जानते भी हैं तो उन्हें पता है कि वह एक पल के लिये भी ईश्वर द्वारा किये जाने वाले संसार के कामों को नहीं कर सकते। ईश्वर विगत 1.96 अरब वर्षों से सोया नहीं है। वह हर क्षण और हर पल पुरुषार्थ करता चला आ रहा है। उसने वैध व अवैध साधनों से अपने उपयोग के लिये किसी प्रकार का धन व पूंजी भी इकट्ठी नहीं की है, भ्रष्टाचार का तो प्रश्न ही नहीं है। दूसरी ओर हम सत्ता का सुख चाहते हैं। उसके लिये हम कुछ भी उचित व अनुचित सब कुछ कर सकते हैं। हमें ईश्वर व उसके न्याय पर भरोसा नहीं है और न ही उसका भय है। हमारे भीतर जब स्वार्थ जागता है तो हम अपने देश, जिसकी मिट्ठी से हमारा शरीर बना है, जिसके वातावरण में हम हर पल श्वास लेते हैं, इसका जल पीते व अन्न खाते हैं, इसी भूमि में हमें माता, पिता, आचार्य, पत्नी, पुत्र, पुत्री, मित्र आदि का सुख मिला है, उससे भी धोखा करते हैं, इसे विडम्बना नहीं तो क्या कहें। महाभारत युद्ध के बाद हम अज्ञान व स्वार्थ का शिकार हो गये। इसके परिणामस्वरूप हम अपनी निजता व स्वतन्त्रता को खो बैठे। विदेशी विधर्मियों ने हमें एक नहीं असंख्य बार अपनानित किया, हमारे स्वत्व का हरण किया, फिर भी हम एकता के महत्व को न समझ सके। आज भी कहीं न कहीं हम उसी परतन्त्रता व अपमानित होने के मार्ग पर चल रहे हैं। हमें नहीं लगता कि हम सुधर सकते हैं। सुधरना तभी कहा जायेगा, जब हम अज्ञान को दूर कर एक विचारधारा व एक मत जो सत्य पर आधारित हो, संगठित हों तथा हमारे भीतर किसी प्रकार का स्वार्थ, लोकैषणा, वित्तैषण तथा पुत्रैषणा न हो। हम देश व समाज को अपना व अपना परिवार समझे। इसके लिये मर मिटने के लिये तैयार हों। अज्ञान को सत्साहित्य का अध्ययन व परस्पर तर्क वितर्क से दूर करें। वेदाध्ययन करें। सर्वथा स्वार्थ शून्य हो जायें। स्वप्न में भी हम स्वार्थ व सुविधा के लिये कोई अनुचित कार्य न करें। सच्चे ईश्वर भक्त बनें। ईश्वर एक ही है अतः उसी ईश्वर के सब भक्त बनें। समाज व देश ही नहीं अपितु समस्त विश्व एक परिवार की तरह से व्यवहार करे। तभी हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी बनेंगे। वेदों में हमें ‘मनुर्भव’ अर्थात् मनुष्य बनने की शिक्षा व प्रेरणा की गई है। यदि हम मनुष्य होते तो परमात्मा हमें मनुष्य बनने को क्यों कहता? मनुष्य बना बनाया पैदा नहीं होता अपितु मनुष्य बनना पड़ता है। सद्ज्ञान को धारण कर ही दो पैर वाला प्राणी मनुष्य बनता है अन्यथा यह पशुओं के समान ही रहता है। हमें मनुष्य बनना है। हमारा जन्म ईश्वर व आत्मा को यथार्थ रूप में जानने के लिये हुआ है। ऐसा कर ही हम मनुष्य जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं।

ईश्वर संसार का राजा तथा संसार के राजाओं का भी राजा है। उसके समान संसार व ब्रह्माण्ड में कोई राजा व न्यायाधीश नहीं है। संसार में उससे पहले कभी उसके जैसा कोई राजा नहीं हुआ। वह सदा सर्वदा इस गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित रहेगा। कोई उसे इस पद से हटा नहीं सकता। किसी में इतनी योग्यता नहीं है। ईश्वर सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है तथा जीवात्मा अल्पज्ञ एवं अल्पशक्तियों से युक्त हैं। जीव में जो शक्तियां हैं वह सब भी ईश्वर प्रदत्त हैं। हमें ईश्वर का सच्चा भक्त, अनुयायी व उपासक बनना है। तभी हमारा मानव जीवन सार्थक होगा। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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