बिखरे मोती : वेद,तप,दान से, मिलते नहीं भगवान
वेद,यज्ञ,तप,दान से,
मिलते नहीं भगवान।
कृपा होय अहेतु की,
दर्शन दें भगवान॥1614॥
( उद्धरण-श्रीमदभगवद गीता, अध्याय 11/40)
व्याख्या:- वेदों का अध्ययन किया जाय, यज्ञों का विधि-विधान से अनुष्ठान किया जाय, शास्त्रों का अध्ययन किया जाय, बड़े-बड़े दान किए जाय, बड़ी उग्र तपस्या की जाय और तीर्थ,व्रत आदि शुभ कर्म किए जाय- ये सब के सब कर्म विश्वरूपदर्शन में हेतु नहीं बन सकते। कारण कि जितने भी कर्म किए जाते हैं, उन सबका आरंभ और समाप्ति होती है। अतः उन कर्मों से मिलने वाला फल भी आदि और अन्त वाला ही होता है। इसलिए ऐसे कर्मों से भगवान के अनन्त असीम, अव्यय, दिव्य विश्वरूप परमपिता परमात्मा के दर्शन कैसे हो सकते हैं?उसके दर्शन तो केवल भगवान की कृपा से ही होते हैं।
कौन किसका आधार ?
जितने भी रस-भूत हैं ,
सबका आश्रय ओंकार।
ब्रह्माण्ड में सूर्य,
पिण्ड में प्राण -आधार॥1615॥
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि
व्यक्ति के व्यक्तित्व को,
निर्मित करें विचार।
जैसी जिसकी सोच हो,
वैसा हो संसार॥1616॥
कैसे मिले आत्मसंतोष ?
बेशक दौलत से भरे,
मानव तेरे कोष।
हरि- सिमरन से ही मिले,
आत्मा को संतोष॥1617॥
साधन और साधना में तादात्म्य रखिए:-
विभूति कोई दे दे प्रभु,
मत करना अभिमान।
साधन के होते हुए,
साधना में कर ध्यानत॥1618॥
मानव के तीन पंख:-
ज्ञान कर्म उपासना,
मानव तेरे पंख।
इनसे ही ऊँचा उठै,
बजै विजय का शंख॥1619॥
संकल्पसिद्धि और सत्काम के संदर्भ में:-
संकल्पसिद्धि सत्काम तो,
विरला हो इन्सान।
ऐसी ऊँची आत्मा,
कारज करें महान॥1620॥
अजस्र ऊर्जा के स्रोत रवि और प्राण:-
रवि-प्राण संसार में,
ऊर्जा के बड़े स्रोत।
पिण्ड और ब्रह्माण्ड में,
दोनों जीवन-ज्योत॥1621॥
प्राण-अपान की संधि कहां होती है:-
संधि प्राण-अपान की,
करवाता है व्यान।
ज्यों ही वाणी उवाचती,
तब होता है भान॥1622॥
भावार्थ:-प्राण की शक्ति से भोजन-पानी,औषधि इत्यादि को निगलता जबकि वमन (उल्टी) मल-मूत्र विसर्जन ‘अपान’ नाम के प्राण की शक्ति से होता है किन्तु प्रभु की रचना देखिए जब प्राण- अपान न अन्दर आते हैं और नहीं बाहर निकलते हैं, दोनों ही व्यान नाम के प्राण में ठहर जाते हैं, कितने विस्मय की बात है ? उदाहरण के लिए जब हम अपनी वाणी से बोलते हैं अथवा गाते हैं, तो उस समय प्राण-अपान की संधि व्यान नाम के प्राण में होती है। जिस की अनुभूति तत्क्षण प्रत्येक इंसान को होती है।
क्रमशः