“मोदी हार भी गए तो भाजपा अभी कुछ दशक तक जानेवाली नहीं”- प्रशांत किशोर

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गाजियाबाद। (ब्यूरो डेस्क) “मोदी हार भी गए तो भाजपा अभी कुछ दशक तक जानेवाली नहीं”- अपने इस बयान से “चुनावी-रणनीतिकार” प्रशांत किशोर ने भले कांग्रेस के एक धरे को नाखुश कर दिया हो, लेकिन इस सच्चाई से मुंह मोड़ना कांग्रेस या किसी भी अन्य विपक्षी दल के लिए आत्मघाती सिद्ध हो सकता है. भाजपा को पराजित किया जा सकता है, उसके सीटों की संख्या को कम की जा सकती है, लेकिन भाजपा-मुक्त राजनीति की कोई सम्भावना अभी कुछ दशकों तक संभव होता नहीं दिखता. भारतीय राजनीति में भाजपा एक कडवे सत्य की तरह लम्बे समय तक रहने वाली है, इस तथ्य को स्वीकारते हुए ही किसी अन्य दल को अपनी रणनीति तय करनी चाहिए. उसे किसी भी प्रकार के भ्रम से बाहर निकल जाना चाहिए कि भाजपा अनगिनत मुद्दो पर ख़राब प्रदर्शन करने के बाद जनता द्वारा एक सिरे से खारिज कर दी जायेगी; जैसा कि प्रशांत किशोर ने भी बताया कि तीस प्रतिशत मतों से सत्ता में आया कोई राजनीतिक दल इतनी आसानी से बेदखल नहीं किया जा सकता. भाजपा के बनने और बने रहने के लिए कई ऐसी परिस्थितियां हैं जिसे अनदेखा करके इसे चुनौती देना आसान नहीं है. भाजपा का यह उभार अचानक से पैदा हुई स्थिति नहीं है और न ही यह मात्र कांग्रेस विरोध से उपजी एक सत्ता है, बल्कि यह कई स्तरों पर धीरे-धीरे विकसित हुई है जिसका राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों से गहरा सम्बन्ध है और उन घटनाक्रमों का अध्ययन करके ही इसके एकाधिकार पर अंकुश लगाया जा सकता है.

किसी अन्य दलों की तुलना में आप गौर करें तो इनके पास पारंपरिक “चमत्कारिक” नेतृत्व हैं जो बदलाव या सुधार के चमत्कारिक तरीकों की बात करते हैं; जैसे प्रधानमंत्री मोदी या उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को छोड भी दें तो इनके पास ऐसे नेताओं की एक लम्बी लिस्ट है जो इसी तरह की राजनीति करते हैं और जनता में यह विश्वास पैदा कर देने में सक्षम होते हैं कि इनके नेतृत्व में राष्ट्र में रातो-रात बदलाव लाये जा सकते हैं. ऐसे नेतृत्व व्यवस्था की कमियों को अपना एक मजबूत हथियार बना लेते हैं या यूँ कहें कि व्यवस्था से मोहभंग ने ऐसे नेतृत्व को जन्म दिया. ये अक्सर व्यवस्था से ऊपर अपना स्थान बनाते हैं, या फिर कभी-कभी व्यवस्था के पर्याय भी बन जाते हैं.

भाजपा के आर्थिक तंत्र को देखें तो पूंजी पर इनकी पकड़ किसी भी राजनीतिक दल से अधिक है. वर्तमान राजनीति जो पिछले कुछ दशकों से पूंजी केन्द्रित हो गई है उसमें भाजपा और इनके सहयोगी दलों की पूंजी पर सबसे अधिक पकड़ है जिसके द्वारा ये भारतीय राजनीति की दशा और दिशा को निर्धारित कर देने में किसी भी अन्य दल से अधिक समर्थ हैं भाजपा का मतदाता आमतौर पर शहरी मध्य वर्ग है. उनका मानना है कि अन्य विपक्षी दलों के द्वारा मध्य वर्गों के हितों को पूरा नहीं किया जा सकता और ऐसा समझाने में भाजपा एक हद तक सफल रही है, उसने शहरी मध्यवर्ग की उपभोक्तावादी मानसिकता का ठीक तरीके से इस्तेमाल किया है.

सबसे अहम् बात जो भाजपा को अन्य मुख्य राजनीतिक दलों से अलग करती है वह है कि यह मात्र विकास की राजनीति नहीं करती है, बल्कि खुले तौर पर स्वीकारती है कि इसकी राजनीति की धुरी संस्कृति है और जिसे कई बार इसके वरिष्ठ राजनेता और आर्थिक चिन्तक सुब्रमन्यम स्वामी सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी चुके हैं. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजनीति ने विदेशों में रहने वाले प्रवासी भारतीय को भी इस दल से बड़े पैमाने पर जोड़ा है और ये अनेक रूपों में भाजपा की मदद करते हैं. उन्हें लगता है कि भाजपा के समर्थन से वे भारतीय परंपरा और संस्कृति की रक्षा कर रहें हैं. इनके मदद केवल आर्थिक नहीं होते, बल्कि वैश्विक राजनीतिक लामबंदी में भी ये निर्णायक भूमिका में होते हैं जिसे अमेरिका आदि देशों में मोदी के भव्य कार्यक्रमों के सन्दर्भ में देखा जा सकता है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजनीति ने व्यापक जनसमुदाय को विकास से अधिक अपने सांस्कृतिक पक्षों की तरफ मोड़ा. लोग मोदी की आर्थिक मोर्चे पर भयंकर विफलता के बावजूद अपना समर्थन सांस्कृतिक सन्दर्भों का हवाला देकर देते हैं. इसने छोटे-बड़े सांस्कृतिक या धार्मिक मुद्दों को उठाकर हरेक प्रान्त या राज्य में अपना एक समर्थक वर्ग बना लिया. इनके समर्थक ये मानते हैं कि वोट तो मोदी को ही दिया जाएगा.

आधिकारिक रूप से भाजपा और आरएसएस के बीच तो कोई सम्बन्ध नहीं है, लेकिन सही अर्थों में देखें तो आरएसएस मुख्यतः भाजपा और इसके सहधर्मी दलों के वैचारिकी के श्रोत हैं. भाजपा के नेतृत्व पर संघ के प्रभाव को किसी भी सूरत में नहीं नकारा जा सकता. अगर संघ की सांगठनिकता को देखें तो साफ तौर पर दिखता है कि ये सांगठनिक रूप से किसी भी संगठन से अधिक मजबूत और अनुशासित हैं. इनके बारे में मशहूर है कि चीन युद्ध के बाद जब नेहरु ने संघ के कार्यकर्ताओं को स्वतंत्रता दिवस के परेड में शामिल होने का न्योता दिया तो केवल तीन दिनों के पूर्व नोटिस पर इनके तीन हजार प्रशिक्षित कार्यकर्त्ता पहुँच गए थे. एक दो बार मैंने व्यक्तिगत रूप से भी संघ के कार्यक्रमों में बनारस में भाग लिया था और अनुभव किया कि इतना अनुशासन और अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण शायद ही किसी संगठन में हो. संघ प्रत्यक्ष राजनीति में न रहकर भी अपने संगठन के माध्यम से भाजपा और अन्य सहधर्मी दलों का पोषण करती रहती हैं. यह भाजपा के लिए एक अतिरिक्त शक्ति की तरह कार्य करता है जिसका किसी भी अन्य दलों के पास अभाव है.

अगर भाजपा की तुलना में अन्य दलों में राजनीतिक नेतृत्व को देखें तो शायद ही राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ा सर्वमान्य नेता मिलेगा. और अगर हैं भी तो निहीत स्वार्थों के कारण उसके अपने संगठन के भीतर ही अनगिनत विरोधी हैं. क्षेत्रीय स्तर पर कुछ नेता हैं जो अपने-अपने राज्यों में अपनी शाख रखते हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्वीकृति का अभी अभाव दिखता है. जहाँ तक गठबंधन की सरकार की बात है तो इसे जनता अब बहुत ज्यादा गंभीरता से नहीं लेती, गठबंधन की सरकार उन्हें एक घनघोर अवसरवादी राजनीति की तरह लगती है, जैसा कि बिहार के महा-गठबंधन में देखा गया था.

साथ ही वैश्वीकरण के इस युग में देश के बाहर होने वाले राजनीतिक घटनाक्रमों का भी सीधा असर भारतीय राजनीति पर पड़ता है. जैसे बांग्लादेश में वहाँ के धार्मिक अल्पसंख्यकों पर किये गए हमलों ने एक तरह से भाजपा को मजबूत ही किया. साथ ही इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हाल के वर्षों में दुनिया की राजनीति से तेजी से सेक्युलर मूल्यों का पतन हुआ है. अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देशों में दक्षिणपंथी राजनीति अपने मुखर रूप में है. यह कैसे संभव हो सकता है कि मिडिल ईस्ट में इस्लामिक मूल्यों को केंद्र में रखकर राजनीति हो और उसका प्रभाव अन्य देशों पर नहीं पड़े. विपक्ष की सबसे बड़ी भूलों में से एक यह भी रही है कि उसने वैश्विक राजनीति के भारतीय राजनीति पर पड़ने वाले प्रभावों पर खुलकर बहश नहीं किया; वह एक संकोच या दुविधा की स्थिति में रही जिसने भाजपा को भरपूर मौका दिया अपने राजनीतिक विमर्शों को सेट करने का. राजनीति केवल पक्ष-विपक्ष के घोषित मेनिफेस्टों से तय नहीं होती. असली राजनीति मेनिफेस्टों के बाहर होती है जिसे विपक्ष अबतक समझ पाने में असमर्थ है. 

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