गिलगित बलतीस्तान को लेकर जाँच आयोग की जरुरत- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

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        केन्द्र शासित लद्दाख क्षेत्र का बहुत बड़ा भूभाग गिलगित और बलतीस्तान पाकिस्तान के कब्जे में है जो उसने 1948 में भारत पर आक्रमण कर हथिया लिया था । उसके बाद इस क्षेत्र को पाकिस्तान के कब्जे से छुड़ाने का भारत सरकार ने कोई उपक्रम नहीं किया । अलबत्ता देश की जनता के आक्रोश को शान्त करने के लिए उस समय के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जाकर जरुर निवेदन करना शुरु कर दिया कि आप हमारा यह इलाक़ा पाकिस्तान से छुडवा कर वापिस हमें दीजिए । अब जवाहर लाल नेहरु इतने भोले तो नहीं थे कि वे जानते न हों कि जिन शक्तियों ने गिलगित बलतीस्तान भारत से छीन कर पाकिस्तान के हवाले किया था , वही शक्तियाँ संयुक्त राष्ट्र संघ का संचालन कर रही थीं । सुरक्षा परिषद ने भारत को गिलगित बलतीस्तान वापिस दिलवाने की बजाए , भारत को ही आदेश देना शुरु कर दिया कि लोगों की राय ले ली जाए । पंडित नेहरु तो लगभग इस बात पर सहमत ही हो गए थे लेकिन लोगों के ग़ुस्से को देखते हुए , उन्हें पीछे हटना पड़ा । मृत्यु से पहले उन्होंने एक बार फिर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को लाहौर भेज कर यह प्रयास किया कि गिलगित बलतीस्तान पाकिस्तान को ही देकर , शान्ति संधि कर ली जाए । लेकिन इस तथाकथित शान्ति सन्धि से पूर्व ही नेहरु का स्वर्ग वास हो गया ।
                    उसके बाद पाकिस्तान ने गिलगित बलतीस्तान का अस्तित्व ही समाप्त करने के लिए नई नीति अपनाई । दरअसल  गिलगित बलतीस्तान में इस्लाम मजहब को मानने वालों की संख्या तो नगण्य है , वहाँ के अधिकांश निवासी  शिया मजहब को मानने वाले  हैं । शिया मजहब के लोग क़ुरान शरीफ़ को तो मानते हैं लेकिन हज़रत मोहम्मद के उन तीन उत्तराधिकारियों यानि अबू बकर, उमर और उस्मान को स्वीकार नहीं करते जिन्हें इस्लाम मजहब को मानने वाले मुसलमान स्वीकारते हैं । शिया मजहब को मानने वाले हज़रत मोहम्मद के बाद हज़रत अली को उत्तराधिकारी मानते हैं और उसके बाद शिया मजहब में इमामों की लम्बी परम्परा चलती है । यह कुछ कुछ उसी प्रकार है जिस प्रकार यहूदी मजहब को मानने वाले ओल्ड टैसटामैंट को तो मानते हैं लेकिन न्यू टैसटामैंट को नहीं मानते । लेकिन ईसाई मजहब को मानने वाले ओल्ड टैस्टामैंट और न्यू टैसटामैंट दोनों को ही मानते हैं । शिया मजहब को मानने वाले लोग हज़रत  हुसैन की शहादत की स्मृति में ताजिया निकालते हैं , जिसे इस्लाम मजहब को मानने वाले मुसलमान  मूर्ति पूजा कहते हैं ।लेकिन शिया मजहब को मानने वाले इस मूर्ति पूजा को किसी भी हालत में छोड़ने को तैयार नहीं हैं ।  ध्यान रहे हुसैन को मुसलमानों की सेना ने कर्बला के मैदान में पूरे परिवार सहित मार डाला था ।
                  अब पाकिस्तान सरकार ने पिछले कुछ अरसे से गिलगित बलतीस्तान की पहचान , संस्कृति  और भाषा को ही समाप्त करने पर ज़ोर देना शुरु कर दिया है । सबसे पहले उसने 1970 में गिलगित बलतीस्तान का नाम ही बदलकर उसे नार्दर्न एरिया या उत्तरी क्षेत्र का नया नाम दे दिया । लेकिन सरकार की इस करतूत का बलतियों और गिलगितियों ने डट कर विरोध किया । अन्तत सरकार को झुकना पड़ा और 2009 में इस क्षेत्र का नाम पुन: गिलगित-बलतीस्तान किया गया । उसके बाद पाकिस्तान ने नई चाल चली , यानि जनसांख्यिकी परिवर्तन । पंजाब और खैवर पखतूनख्वा से इतने मुसलमानों को लाकर गिलगित बलतीस्तान में  बसा रही है ताकि वहाँ मुसलमानों की संख्या ज्यादा हो जाए और शिया मजहब को मानने वाले गिलगिती और बलती अल्पसंख्यक हो जाएँ। । यह वही नीति है जो चीन सरकार तिब्बत को समाप्त करने के लिए उपयोग में ला रही है । तिब्बत में साठ लाख तिब्बती हैं । चीन की नीति है कि वहाँ तीन चार करोड़ चीनी लाकर बसा दिए जाएँ तो स्वभाविक ही तिब्बत अल्पसंख्यक हो जाएँगे और कालान्तर में उनकी पहचान समाप्त हो जाएगी । चीन यह नीति मंचूरिया में सफलता पूर्वक अपना चुका है । अब पाकिस्तान उसी नीति: को गिलगित बलतीस्तान में अपनाना चाहता है । लेकिन इसके साथ साथ शिया मजहब के मानने वालों को डरा धमका कर शिया मजहब से इस्लाम मजहब में दीक्षित किया जाए । सप्त सिन्धु क्षेत्र पिछली कई शताब्दियों से इस नीति का शिकार हो रहा है । लगता है अब पाकिस्तान सरकार आधुनिक युग में भी यही नीति आज़माना चाहती हैं ।
            इसी नीति के अन्तर्गत गिलगित बलतीस्तान में शिया मजहब के लोगों पर हमले हो रहे हैं । पूजा पाठ या इबादत कर रहे शियाओं को उनके इबादतखानों में ही बम फेंक कर मारा जा रहा है , ताकि वे भय से शिया मजहब छोड़ कर इस्लाम मजहब को अपना लें ।
         इतना ही नहीं चीन की वन बैल्ट वन रोड योजना के अन्तर्गत इस क्षेत्र में चीनियों का जमावड़ा भी लग रहा है । पिछले कुछ समय से गिलगित-बलतीस्तान के लोगों का आक्रोश सड़कों पर उतर आया है । वे पाकिस्तान सरकार के ख़िलाफ़ सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे हैं । वहाँ यह माँग बराबर उठ रही है कि यह हिस्सा भारत का है तो भारत सरकार अपने नागरिकों की मुक्ति के लिए कोई प्रयास क्यों नहीं कर रही ? ख़ास कर जो चक और बलती अमेरिका इत्यादि देशों में जाकर बस गए हैं वे यह माँग बड़े ज़ोर से उठा रहे हैं । आशा करना चाहिए की भारत सरकार इस दिशा में गम्भीरता से सोच विचार करेगी ही ।
                 लेकिन गिलगित बलतीस्तान को पाकिस्तान के हवाले करने का जो षड्यन्त्र 1947-48 में रचा गया , उसकी जाँच करवाना जरुरी हो गया है , क्योंकि गिलगित बलतीस्तान पाकिस्तान के हाथों में दे दिए जाने के कारण ही आज भारत मध्य एशिया से कट गया है और इसी कारण से चीन को कराकोरम राज मार्ग बना कर बलूचिस्तान में गवादर बंदरगाह बनाने का अवसर प्राप्त हो गया है । दर असल पंडित नेहरु का वह पत्र एक बार फिर चर्चा में आ गया है जो उन्होंने  अपनी बहन श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित को उन दिनों लिखा था , जब जम्मू को लेकर भारत का पाकिस्तान के साथ विवाद चल रहा था  । इस पत्र में उन्होंने कहा था कि यदि पाकिस्तान से समझौता करने की नौबत आ ही गई तो मैं गिलगित पाकिस्तान को देने को तैयार हूँ । अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ने से कुछ दिन पहले तीन जून 1947 को गिलगित एजेंसी की लीज़ समाप्त कर  गिलगित एजेंसी महाराजा हरि सिंह के सुपुर्द कर दी थी । महाराजा हरिसिंह ने तो घनसारा सिंह को गिलगित का राज्यपाल भी नियुक्त कर दिया था और उन्होंने वहाँ कार्यभार भी संभाल लिया था । अंग्रेज़ों ने गिलगित एजेंसी में गिलगित स्काऊटस के नाम से सुरक्षा बल की स्थापना कर रखी थी । पच्चीस वर्षीय मेजर विलियम एलकजैंडर ब्राउन इसके प्रमुख थे  । घनसारा सिंह द्वारा कार्यभार संभाल लेने के बाद गिलगित स्काऊट्स भी रियासत की सेना का हिस्सा हो गए थे और मेजर ब्राउन भी रियासत के कर्मचारी हो गए थे । 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान की सेना ने जम्मू कश्मीर को बलपूर्वक हथियाने के लिए भारत पर आक्रमण कर दिया । उसके नौ दिन बाद ही मेजर ब्राउन ने राज्यपाल घनसारा सिंह और वज़ीरे वजारत को गिरफ़्तार कर लिया और एजेंसी के मुख्यालय पर पाकिस्तान का झंडा फहरा दिया । पाकिस्तान सरकार ने तुरन्त वहाँ अपना  रैजीडैंट कमिश्नर नियुक्त कर दिया था ।
                           दरअसल  गिलगित स्काऊट्स के सैनिक महाराजा से अपना वेतन बढ़ाने की माँग कर रहे थे । वहाँ कुछ दूसरी स्थानीय समस्याएँ भी थीं ।  घनसारा सिंह ने उनकी ये माँग स्वीकार कर लेने का आग्रह भी रियासत के प्रशासन से किया था । लेकिन दरबारियों ने घनसारा सिंह के पत्र महाराजा हरि सिंह तक पहुँचने ही नहीं दिए । आख़िर महाराजा हरि सिंह के ही प्रशासन में कौन सी शक्तियाँ थीं , जो घनसारा को कामयाब नहीं होने देना नहीं चाहती थीं । प्रधानमंत्री के पद से हटाए जा चुके  रामचन्द्र काक फिर एक बार संदेह के घेरे में आते हैं । लार्ड माऊंटबेटन ने तो बाद में इस बात को छुपाया भी नहीं कि वे जम्मू कश्मीर पाकिस्तान को देना चाहते थे । जब वे इसके लिए किसी भी तरह महाराजा हरि सिंह को तैयार नहीं कर सके तब जितना हाथ आ सके ,उतना ही लाभदायक हो सकता है , ही विकल्प बचा था । क्या मेजर ब्राउन की गिलगित पाकिस्तान के हवाले करने की योजना उसी विकल्प का नतीजा था ? क्या  पंडित नेहरु  माऊंटबेटन की इस योजना को जानते थे ? यदि वे जानते थे तो उन्होंने इस षड्यन्त्र को निष्फल करने का प्रयास करने की बजाए , इसमें भागीदारी का रास्ता क्यों चुना ? उस वक़्त यह  संदेह और भी गहरा हो जाता है जब भारतीय सेना कारगिल को तो दुश्मन के कब्जे से छुड़वा लेती है परन्तु गिलगित तक जाने से रोक दी जाती है ।ये सभी प्रश्न ऐसे हैं जिनका सही उत्तर जानना भारत के भविष्य और सुरक्षा से जुड़ा हुआ है ।लेकिन ऐसे तमाम प्रश्नों का उत्तर कोई निष्पक्ष जाँच आयोग ही दे सकता है । अब वैसे भी उस समय के बहुत से दस्तावेज जो  इंग्लैंड ने अब तक डीकलासीफाई कर दिए हैं , इस जाँच को आगे बढ़ा सकते हैं । भारत सरकार यदि ऐसा आयोग नियुक्त करती है तो निश्चय ही कई चेहरों से पर्दा उठ जाएगा ।  गिलगित बलतीस्तान के लोग भी शायद इस जाँच आयोग का स्वागत करेंगे ।

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