जितेन्द्रिय ब्राहणत्व का मार्ग

देवेन्द्र सिंह आर्य

वेद का संदेश कि मनुष्य जितेन्द्रिय बने अर्थात अपनी इंद्रियों पर विजय पाए, लेकिन इंद्रियों को जीतने की बात करने से पहले इंद्रियों के बारे में जानलेना भी अच्छा होगा। प्राय: सभी जानते हैं कि इंद्रियां दस प्रकार की हैं-पांच ज्ञानेन्द्रियां एवं पांच कमेन्द्रियां। कमेन्द्रियों के भिन्न-भिन्न कार्य हैं। वाक अर्थात वचन करना। पाणि का अर्थ हाथ है जो संसार में विभिन्न कार्य करते हैं। पाद का अर्थ है पैरों से है जो हमको एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। उपदस्थ एवं गुदा गुप्तेन्द्रियां हैं। कमेन्द्रियों की उत्पत्ति कैसे है-वाक की उत्पत्ति आकाश से है और आकाश के भी रजोगुण से है। पाणि कमेन्द्री की उत्पत्ति वायु से है। पाद की उत्पत्ति तेज के रजोगुण से है। उपस्थ जल से पैदा होती है। गुदा पृथ्वी से पैदा है। कमेन्द्रियों के जिस प्रकार निश्चित स्थान और कर्म है उसी प्रकार से उनके देवता भी निश्चित स्थान और कर्म है उसी प्रकार से उनके देवता भी निश्चित है। वाक इंद्री के देवता अग्नि देव हैं। पाणि का देवता इंद्र है। पाद का देवता विष्णु है। उपास्थ का देवता प्रजापति है। गुर्दा का देवता यमराज है।

कर्मेन्द्रियों की तरह पांच ज्ञानेन्द्रियों के कार्य भी होते हैं। श्रोत्र-श्रावण एवं श्रवणोपरात प्रिय-अप्रिय का बोध करती है त्वचा, गर्म, सर्द अनुकूल प्रतिकूल वातावरण को बोध करती है। रसास्वादन कराती है घ्राण गंध का बोध कराती है। ये सभी दसों इंद्रियां हमारे शरीर में विद्यमान हैं। शरीर से भी तात्पर्य यहां इस शरीर से नही है जो हम देख रहे हैं, बल्कि शरीर भी तीन प्रकार के होते हैं। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर तो वह है जो हम देख रहे हैं। इसके अंदर एक और शरीर जिसका दर्शन ज्ञानी एवं आप्त पुरूष किया करते हैं। तीसरे कारण शरीर की उत्पत्ति कैसे है क्या है? कारण शरीर इसके मूल में अज्ञात है अर्थात कारण शरीर अज्ञात है। मनुष्य का अज्ञात ही जन्म और मृत्यु का कारण होता है और मनुष्य के अज्ञात ने चेतन को भ्रमित करके जीव भाव प्राप्त किया है अन्यथा वह कुछ नही है। मात्र परमात्मा का अंश है यदि इसी का ज्ञान हो जाए तो जीव मुक्ति पा जाए। जन्ममरण के बंधन से छूट जाए। सूक्ष्म शरीर की संरचना पांच प्राण, दस इंद्रियां तथा उन्नीस तत्व मिलकर हुई है। पांच प्राण कौन कौन से है-प्राण, अपान समान ब्यान उदान पांच कमेन्द्रियां 5 ज्ञानेन्द्रियां अंत:करन्ण मन बुद्घि चित्त एवं अहंकर पंच भूत के सतोगुण के अंश प्राण वायु आदि में मिलकर सूक्ष्म शरीर की रचना करते हैं। कारण के बिना जीव की योनि का निर्धारण एवं शरीर का धारण नही हो सकता है। जो शरीर हम प्राप्त कर रहे होते हैं वह कोई न कोई कारण से प्राप्त होता है। यहां तक कीसंसार में बंधु बांधव माता पिता सगे संबंधी सभी के प्राप्त होने के पीछे भी कारण होता है। जिनसे हमारा पूर्व जनम का कर्मफल भी जुड़ा होता है। जिनसे हमारा पूर्व जन्म का कर्मफल भी जुड़ा होता है और प्रारब्ध भी साथ साथ चलता है। पूर्व का भाग्य प्रारब्ध भी साथ साथ चलता है। पूर्व का भाग्य प्रारब्ध बनता है। उसके बाद शरीर बनता है।

एक वास्तविकता है कि जिस मनुष्य ने दसों इंद्रियों को वश में किया हो वह साधारण मनुष्य नही, बल्कि देवता लोग उसी को ब्राह्मण की संज्ञा देते हैं। भारत वर्ष राष्ट्र की उच्चस्थ परंपराओं रीति रिवाजों में वास्तव में मौलिकता का दर्शन होता है और प्रभु से मिलने की चाह व राह के लिए प्राणी एवं मनुष्य आयुपर्यंत प्रयत्न करता है। यह कहना अतिश्योक्ति नही होगी कि हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित उच्चकोटि के आदर्श विश्व में कही परिलक्षित नही होते यह हमारे लिए गौरव का विषय है। हर मनुष्य भी अपने जीवन में ऐसे ही उच्च आदर्शों का पालन करते हुए सिर्फ एक ही शब्द जो उक्त श्लोक का प्रथम शब्द जितेन्द्रिय है का अनुकरण करे तो हर मनुष्य भी महापुरूष बन जाएगा। सभी को यह प्रेरणा लेनी चाहिए तभी संसार से छल कपट, धोखा बेइमानी पाप और अधर्म समाप्त हो पाएगा।

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