“ऋषि दयानन्द न आये होते तो हम दीपावली न मनाते होते”
ओ३म्
=========
देश भर में व विदेश में भी जहां भारतीय आर्य हिन्दू रहते हैं, वहां कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दीपवली का पर्व मनाया जा जाता है। अमावस्या के दिन रात्रि में अन्धकार रहता है जिसे दीपमालाओं के प्रकाश से दूर करने का सन्देश दिया जाता है। इस दिन ऐसा क्यों किया जाता है, इसका अवश्य कोई कारण होगा। प्राचीन काल में भारत का हर उत्सव व पर्व यज्ञ वा अग्निहोत्र करके मनाया जाता था। बाद में यज्ञ में पशु हिंसा होने लगी। इसके विरोध में बौद्ध मत व जैन मत का आविर्भाव हुआ जो पूर्ण अहिंसा पर आधारित मत थे। यज्ञों में होने वाली हिंसा के कारण वैदिक काल में किये जाने वाले अहिंसात्मक यज्ञ भी समाप्त हो गये। इनसे वायुमण्डल व वर्षा जल की शुद्धि और स्वास्थ्य आदि को होने वाले लाभों सहित जो आध्यात्मिक लाभ होते थे, वह भी बन्द हो गये। अब पूजा दीप जलाकर की जाने लगी। सम्भव है यह यज्ञ का ही एक विकृत रूप था। यज्ञ में घृत की आहुति से घृत को जलाया जाता है। इसके जलने से वायु के अनेक दोष व दुर्गुन्धादि कुछ मात्रा में दूर होते हैं। वायु में विद्यमान हानिकारक किटाणुओं पर भी इसका प्रभाव पड़ता है और उनकी संख्या में कमी आती है। दीप की ज्योति की उपमा अनेक स्थानों पर जीवात्मा से भी दी जाती है। किसी घर में किसी की मृत्यु हो जाती है तो उस परिवार में वहां कुछ दिनों तक दिवंगत व्यक्ति के शयन कक्ष में एक दीपक जला कर रखा जाता है। यह एक प्रकार से आत्मा का प्रतीक माना जाता है। वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन करने पर इसका कोई लाभप्रद उद्देश्य प्रतीत नहीं होता अपितु यह एक अन्धविश्वास व मिथ्या परम्परा ही प्रतीत होती है। ऋषि दयानन्द जी ने भी इस विषय में कुछ नहीं लिखा परन्तु स्पष्ट किया है कि मृत्यु होने पर अन्त्येष्टि कर्म करने के बाद मृतक व्यक्ति के लिये कोई कर्म करना शेष नहीं है। हां, घर की शुद्धि जल से व दीवारों पर चूने तथा गोबर के लेपन आदि से की जा सकती है। इससे हानिकारक किटाणुओं का नाश होता है। जहां जितनी अधिक स्वच्छता होती हैं, वहां हानिकारक किटाणु उतने ही कम होते हैं। वायुमण्डल विद्यमान हानिकारक सूक्ष्म किटाणुओं को नष्ट करने का प्रभावशाली उपाय अग्निहोत्र यज्ञ ही है। पं. लेखराम जी ने भी एक बार एक ऐसे घर में यज्ञ कराया था जहां सर्पो का वास था और जहां रात्रि में सर्प निकला करते थे। पं. लेखराम जी ने वहां जाकर शुद्ध गोघृत से यज्ञ कराकर उस कमरे को पूर्णतया बन्द कर दिया था जिससे रात्रि के बाद जब उसे खोला गया तो वहां सभी सर्प बेहोश पड़े हुए थे। इससे अनुमान लगता है कि यज्ञ का विषैले जीव-जन्तुओं पर प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार कार्बन-डाइ-आक्साइड गैस से हमें हानि होती है उसी प्रकार से यज्ञ की गन्ध व वायु से मनुष्यों पर अनुकूल तथा विषैले जीव-जन्तुओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
दीपावली पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि यह शरद ऋतु के आगमन पर मनाया जाने वाला पर्व है। इससे पूर्व हम गर्मी व वर्षा ऋतु का सुख ले रहे थे। अब शरद ऋतु आरम्भ होने पर हमें अपने स्वास्थ्य की रक्षा करनी है। शरद ऋतु भी पर्वतों व पर्वतीय प्रदेशों में अधिक तथा मैदानी क्षेत्रों में न्यून व दक्षिण भारत के कुछ स्थानों पर बिलकुल नहीं होती। शीत ऋतु में वहां का तापक्रम कुछ कम अवश्य रहता है परन्तु वहां जनवरी के महीने में जब उत्तर भारत के सभी पर्वतों पर हिमपात होता है और लोगों के शरीरों मे ठिठुरन होती है, ऐसे में वहां किसी गर्म व ऊनी वस्त्र की आवश्यकता नहीं होती। अतः उत्तर भारत के लोगों को शीत ऋतु के कुप्रभावों से स्वयं को बचाने के लिये सावधान होना होता है। भोजन में ऐसे पदार्थों का सेवन करना होता है जिससे कि शीत से होने वाले रोग न हो। दीपावली के दिन प्राचीन काल में नवान्न से वृहद यज्ञों का विधान था। जिसका बिगड़ा रूप ही दीप जलाने को देखकर प्रतीत होता है। हम समझते हैं कि वृहद यज्ञ व ईश्वरोपासना करके, नये वस्त्र पहनकर, मिष्ठान्न व पकवान बनाकर व अपने प्रियजनों व निर्धन बन्धुओं में उसका वितरण करके तथा रात्रि में सरसों के तेल व घृत के दीपक जलाकर यदि दीपावली मनायें तो यह दीपावली मनाने का उचित तरीका है। इसके विपरीत पटाखों में धन का अपव्यय करके, वायु प्रदुषण करके तथा अनावश्यक हुड़दंग करके पर्व को मनाना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। इससे तो हमारी मानसिक अवस्था व सोच का पता चलता है। हमारी सोच स्वयं को स्वस्थ व प्रसन्न रखने वाली, अपने स्वजनों का कल्याण करने वाली तथा देश व समाज को आर्थिक व सामाजिक रूप से सशक्त करने वाली होने वाली चाहिये। महर्षि दयानन्द जी के जीवन पर दृष्टि डाले तो वह यही सन्देश देते हुए प्रतीत होते हैं कि जीवन में कोई भी ऐसा कार्य न करें जिसका वेदों में विधान न हो और जिसके करने से हमें व समाज को कोई लाभ न होता हो। प्रदुषण उत्पन्न करने वाले किसी कार्य को किसी भी मनुष्य को कदापि नहीं करना चाहिये। यह कार्य यज्ञीय भावना के विरुद्ध होने से निषिद्ध व त्याज्य है। हमें अबलों व निर्धनों के जीवन को भी सुखमय बनाने के लिये कुछ दान अवश्य करना चाहिये। उनको भी अच्छा भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा व चिकित्सा सहित सुखमय जीवन व्यतीत करने का अधिकार है। यदि समाज में किसी व्यक्ति को शोषण, अन्याय, अपराध, पक्षपात, उपेक्षा, छुआछूत, अभाव व अज्ञान का सामना करने पड़े तो वह देश व समाज अच्छा या प्रशंसा के योग्य नहीं होता। वेद और महर्षि दयानन्द के जीवन से हमें यही शिक्षा प्राप्त होती है।
ऋषि दयानन्द ने अपने विद्या गुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से सन् 1863 में दीक्षा लेकर उनकी ही प्रेरणा से देश व समाज से अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, मिथ्या परम्पराओं को हटाने के लिये वेदों व उनकी मान्यताओं तथा सिद्धान्तों का प्रचार आरम्भ किया था। वह समाज को अज्ञान से मुक्त कर उसे ज्ञान व विद्या से पूर्णतः सम्पन्न व समृद्ध करना चाहते थे। मत-मतान्तरों का आधार भी अविद्या ही है। धर्म केवल वेद व उसकी सत्य मान्यताओं का ज्ञान व आचरण को कहते हैं। मत-मतान्तरों की अविद्या के कारण ही संसार में मनुष्य दुःखी व पीड़ित हैं। ऋषि दयानन्द के समय व उससे पूर्व मुसलमान व ईसाई हिन्दुओं का छल, भय, लोभ व ऐसे अनेक प्रकार के उपायों से अज्ञानी, ज्ञानी, निर्धन, पीड़ित लोगों का धर्मान्तरण करते थे। औरंगजेब के उदाहरण से ज्ञात होता है कि वह प्रतिदिन हिन्दुओं को भयाक्रान्त कर सहस्रों हिन्दुओं का धर्मान्तरण करता था। ऋषि दयानन्द के समय में हिन्दुओं की संख्या कम हो रही थी व दूसरे मतों की संख्या बढ़ रही थी। हिन्दुओं की कुछ मान्यतायें व कुरीतियां भी हिन्दुओं को अपने पूर्वजों के धर्म का त्याग करने के लिये बाध्य करती थीं। यदि दयानन्द न आते तो यह क्रम चलता रहता और आज हिन्दुओं की जो संख्या है वह इससे कहीं अधिक कम होती। ऋषि ने देश को आजाद कराने के जो विचार दिये थे, वह भी न मिलते। पता नहीं स्वदेशी व स्वतन्त्रता का आन्दोलन भी चलता या न चलता। ऐसी स्थिति में हिन्दुओं की स्थिति अत्यधिक चिन्ताजनक होती। जैसे पाकिस्तान व मुस्लिम देशों में हिन्दुओं को अपने धर्म पालन में स्वतन्त्रता नहीं है, वहां हिन्दू मन्दिरों का निर्माण नहीं कर सकते, वैसी ही स्थिति भारत में भी उत्पन्न हो जाती। ऐसी स्थिति कुछ विदेशी व विधर्मी शासकों के समय में रही भी है। भारत की मुस्लिम रियासत हैदराबाद आदि में तो हिन्दुओं की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। ऋषि दयानन्द ने इन सब बातों को जाना व समझा था। आर्य हिन्दुओं को इन आपदाओं व संकटों से बचाने के लिये उन्हें वेद-ज्ञान का प्रचार उचित प्रतीत हुआ था जिससे निःसन्देह सनातन वैदिक आर्य धर्म की रक्षा हुई है। हमें तो लगता है कि वर्तमान समय में ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के प्रभाव से ही हम आर्य हिन्दू देश में अपनी धर्म व संस्कृति को बचाये हुए हैं। यदि ऋषि दयानन्द न आये होते और उन्होंने जो कार्य किया है, वह न किया होता तो हम आर्य हिन्दू सुरक्षित रह पाते, इसमें सन्देह होता है। भारत के सभी विधर्मी आर्य हिन्दू पूर्वजों की ही सन्तानें हैं। पाकिस्तान व बंगला देश आदि में जो मुस्लिम बन्धु हैं उनके पूर्वज भी आर्य हिन्दू ही थे। इस तथ्य की उपेक्षा होती देखते हैं और जिस सुधार की अपेक्षा है, वह नहीं हो रहा है। ऋषि दयानन्द जी के आने के बाद धर्मान्तरण पर जो रोक लगी है उसका कारण ऋषि दयानन्द का वेदों का प्रचार, आर्यसमाज का संगठन व उसके समाज सुधार आदि कार्य हैं। इसी से आर्य हिन्दुओं की रक्षा हुई है।
कुछ लोग मानते हैं कि दीपावली के दिन राम रावण का वध करके अयोध्या लौटे थे। अयोध्यावासियों ने उनकी विजय व आगमन के उपलक्ष्य में अयोध्या में दीप जलाये थे। यह बात इतिहास के प्रमाणों से सिद्ध नहीं होती तथापि यदि हम इस दिन रामचन्द्र जी की विजय को स्मरण करते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है। हमें यह याद रखना चाहिये कि राम चन्द्र जी ने रावण को पराजित किया था परन्तु दीवाली की तिथि व उससे कुछ समय पूर्व नहीं। हमारा कर्तव्य है कि हम इतिहास की रक्षा करें। दीपावली वैदिक वर्णव्यवस्था के अनुसार वैश्य वर्ण का पर्व भी माना जाता है। आज सभी त्यौहार सभी लोग मिलकर मनाते हैं। यह एक अच्छी बात है।
आज हम, सारा आर्य हिन्दू समाज व विश्व के सभी लोग ऋषि दयानन्द जी द्वारा विश्व को वेदों का ज्ञान देने के लिये ऋणी हैं। हम ऋषि दयानन्द जी को उनके बलिदान दिवस वा कार्तिक अमावस्या (दीपावली) को कोटि-कोटि नमन करते हैं। हमारा सौभाग्य है कि हम ईश्वरीय ज्ञान वेदों से युक्त हैं। यही ज्ञान व इसके अनुरूप कर्म मनुष्य को जन्म-जन्मान्तर में लौकिक व पारलौकिक सुख प्राप्त कराते है। हमें अपनी सामर्थ्य के अनुसार वेदों का प्रचार अवश्य करना चाहिये। इसमें हमारा व अन्यों का कल्याण है। इसी से हमारी धर्म व संस्कृति सुरक्षित रह सकती है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य