वर्तमान परिस्थितियों में संतुलित विकास ही है समाधान
विश्वनाथ सचदेव
देश की विदेशमंत्री पर एक ‘भगोड़े अपराधी’ की सहायता का आरोप लगा है; एक राज्य की मुख्यमंत्री भी आरोपों के घेरे में है; एक पश्चिमी राज्य के चार मंत्री कथित घोटालों के विवादों में घिरे हैं; एक अन्य राज्य में परीक्षाओं को लेकर चल रहे विवाद की आंच से सरकार झुलस रही है- ये सारे उदाहरण भाजपा-शासित प्रदेशों के हैं। ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि संसद के मानसून सत्र में विपक्ष, भले ही वह कितना कमज़ोर क्यों न हो गया है, सरकार को लगातार मुश्किल में डाले रखेगा। जो महत्वपूर्ण विधेयक इस सत्र में सदन में रखे जाने हैं, उनमें वह भूमि अधिग्रहण विधेयक भी है, जिसे सरकार पिछले सत्र में पारित नहीं करवा पायी थी। आसार जो बन रहे हैं, उनके संकेत तो यही हैं कि इस सत्र में भी शायद ही यह महत्वपूर्ण काम पूरा हो सके। वैसे भी, इस विधेयक पर विचार कर रही समिति ने निर्णय के लिए कुछ और समय मांग लिया है। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि देश में इस विवादास्पद विधेयक पर चर्चा न हो।
पिछली सरकार ने काफी विचार-विमर्श और तत्कालीन प्रमुख विरोधी दल भाजपा की सहमति से 2013 में भूमि अधिग्रहण संबंधी विधेयक पारित करवाया था। लेकिन अब, जबकि भाजपा सत्ता में है, उसे उस विधेयक में ‘गंभीर खामियां’ नजऱ आ रही हैं। सत्ता में न होने और सत्ता में आने के बीच आखिर ऐसा क्या हो गया कि भाजपा को इस संदर्भ में नया विधेयक लाना पड़ा? संघ-परिवार के अपने सहयोगी संगठनों के विरोध के बावजूद केंद्र की भाजपा सरकार अड़ी हुई है कि भूमि-अधिग्रहण संबंधी परिवर्तित विधेयक पारित हो जाए? हालांकि विरोध के चलते कुछ संशोधन सरकार मानने के लिए तैयार है, पर सहमति बन नहीं रही। बड़ा विरोध जिन दो मुद्दों पर है, उनका संबंध उन लोगों से है, जिनकी ज़मीन का अधिग्रहण होना है। सन 2013 के तत्संबंधी विधेयक में दो महत्वपूर्ण बातें थीं- पहली तो यह कि उन लोगों से सहमति ली जाए, जिनकी ज़मीन अधिगृहीत की जानी है। दूसरी, अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव को भी निर्णय का आधार बनाया जाए। ये दोनों बातें जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप हैं। लेकिन, भाजपा सरकार को लगता है कि इनसे विकास का रास्ता रुकने की आशंका है! सवाल उठता है, क्या सचमुच जनतंत्र और विकास परस्पर-विरोधी हैं?
अपनी सारी खामियों के बावजूद जनतंत्र शासन की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है। हम इसे छोड़ नहीं सकते। और विकास को भी स्थगित नहीं किया जा सकता। इसलिए, जो भी रास्ता निकले, उसमें जनतंत्र और विकास दोनों से कोई समझौता नहीं होना चाहिए।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शासन की चाहे जो भी प्रणाली हो, उसमें केंद्रीय बात जनता का हित है। और सच्चाई यह भी है कि पिछले 68 सालों में विकास के सारे दावों के बावजूद आज भी देश का आम आदमी स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। ऐसा नहीं है कि विकास नहीं हुआ। बहुत कुछ हुआ है, पर विकास का लाभ जनता में बराबर-बराबर बंटा नहीं। देश की बहुसंख्यक जनता, यानी सत्तर प्रतिशत जनता अभी भी अभावों में जी रही है। देश की अस्सी प्रतिशत संपत्ति देश के बीस प्रतिशत लोगों के पास है। देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, पर गरीबी की रेखा से नीचे का जीवन जीने वालों की संख्या कम नहीं हो रही। देश के विधायकों, सांसदों की सम्पत्ति हर पांच साल बाद दुगनी-चौगुनी हो जाती है, पर जिनका प्रतिनिधित्व वे करते हैं, उनकी विवशताएं कम नहीं हो रहीं! स्पष्ट है, विकास की हमारी अवधारणा में ही कहीं कोई गड़बड़ है और विकास की हमारी कोशिशों में भी कहीं न कहीं ईमानदारी की कमी है।
भूमि-अधिग्रहण की बात करें। निस्संदेह विकास के लिए भूमि का अधिग्रहण ज़रूरी है। पर कैसे हो रहा है यह काम? सरकारी अनुमान के अनुसार सन 2006 से लेकर 2013 के बीच विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के लिए 60 हज़ार हेक्टेयर से अधिक ज़मीन अधिगृहीत की गयी थी। इसमें से 53 प्रतिशत, अर्थात आधी से भी अधिक ज़मीन का अभी तक कोई उपयोग नहीं हुआ है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि आज़ादी प्राप्त होने के बाद से लेकर अब तक विकास-कार्यों के नाम पर छह करोड़ लोगों को अपनी ज़मीन से हटाया गया था। इनमें से एक-तिहाई को भी समुचित तरीके से पुनस्र्थापित नहीं किया गया है। और बेदखल होने वाले ये लोग कौन हैं? ग्रामीण, गरीब, छोटे किसान, मुछआरे, खानों में काम करने वाले। इनमें 40 प्रतिशत आदिवासी हैं और 20 प्रतिशत दलित। ये आदिवासी और दलित विकास के पिरामिड में सबसे नीचे हैं और यही विकास के लिए विस्थापित किये जाने वाले लोग नगरों-महानगरों में रोजग़ार के लिए अमानवीय स्थितियों में जी रहे हैं, ‘स्मार्ट सिटी’ के सपने देखना ग़लत नहीं है, पर यह भी देखा जाये कि हमारे नगरों-महानगरों की संरचना किस तरह चरमरा रही है। इसके साथ ही जुड़ा है यह तथ्य कि पिछले बीस सालों में देश में दो लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। जानना यह भी ज़रूरी है कि हमारी नब्बे प्रतिशत के लगभग कोयला खदानें और पचास प्रतिशत के लगभग अन्य खानें आदिवासी इलाकों में हैं। स्पष्ट है, हमारे विकास के लिए सबसे ज़्यादा कीमत यही चुकायेंगे। इसीलिए ज़रूरी है भूमि अधिग्रहण के काम में इनकी पूरी भागीदारी। और इसीलिए ज़रूरी है यह आकलन करना भी कि भूमि-अधिग्रहण की किसी भी योजना का सामाजिक प्रभाव क्या होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि जब भी यह विधेयक संसद में आयेगा, इस प्रक्रिया से जुड़े मानवीय पहलुओं को नजऱअंदाज़ नहीं किया जायेगा।
औद्योगिकीकरण और नगरीकरण की प्रक्रियाओं को रोका नहीं जा सकता। विकास के लिए ज़रूरी हैं ये दोनों। पर यह काम कैसे हो, कैसे देश की गरीबी और विकास की आवश्यकताओं में संतुलन बनाये रखा जा सके, इसके बारे में नीयत की ईमानदारी और नीति की पारदर्शिता का होना ज़रूरी है। दुर्भाग्य है कि हमारी राजनीति में यही दोनों कम दिखाई देती हैं। इसीलिए राजनीति और राजनेताओं में जनता का भरोसा नहीं रहा। जनतंत्र स्वस्थ रहे, पनपे, इसकी पहली शर्त यह भरोसा है।