प्राचीन ईरान व यूरोप में वैदिक सूर्योपासना

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प्रो. भगवती प्रकाश

प्राचीन ईरान के पारसी मत के धर्म ग्रंथ ‘अवेस्ता’ में वैदिक देवताओं पर विमर्श के अतिरिक्त सूर्य के मित्र या मिथ्र नाम से प्रचलित प्राचीन मन्दिरों के प्रचुर अवशेष हैं। यूरोप के समस्त पुरातात्विक उत्खनन एवं संग्रहालयों में भी मित्र य मिथ्र के प्राचीन पुरावशेषों की प्रचुरता है। आज भी यूरोप में 400 से अधिक मिथ्री मन्दिरों के खण्डहर विद्यमान हैं। मूर्त्तिपूजक पगान सम्प्रदायों में ईसापूर्व कालीन सूर्य सहित कई द्यू-स्थानीय, अन्तरिक्ष स्थानीय व पृथ्वी स्थानीय वैदिक देवताओं का चलन रहा है। वैदिक मित्र देवता सूर्य ओडिशा में 5,000 वर्ष पूर्व कोणार्क व पाकिस्तान के मुल्तान में श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारा बनाए सूर्य मन्दिरों से लेकर ईरान, आर्मेनिया, अजरबैजान व यूरोप तक सूर्य की मित्र, मिथ्र, मिथ्रास और मिहिर आदि अनेक वैदिक व पौराणिक नामों से पूजा होती रही है। ईसा पूर्व 14वीं सदी के शिलालेखों में सूर्य, इन्द्र, अग्नि, अश्विनी कुमार आदि के आह्वान हैं। अफगान-ईरानी कैलेण्डर में आज भी मिहिर व मिहर आदि नामों से सूर्य का महीना है। आर्मेनिया में प्रतिमाह आठवां दिन सूर्य का है, जो ‘मिथ्रि’ कहलाता है। ईरानी प्राचीन जोरास्ट्रियन संस्कृति में मित्र, सत्य, न्याय, सौहार्द, सन्धि और ऋत (स्वैच्छिक धर्म पालन) का देवता था। आर्मेनिया व अजरबैजान में भी मित्र के ये ही विशेषण रहे हैं। जरथुस्त्र या जोरास्टर द्वारा प्रवर्तित हिन्द-ईरानी मत के ग्रंथ अवेस्ता व संस्कृत में अनेक समानार्थक शब्द प्राचीन ईरानी अर्थात् पारसी व आर्य सभ्यताओं में साझे हैं। हिन्द व ईरानी यज्ञ परम्परा भी साझी है। प्राचीन ईरान में सूर्योपासना ईरान के प्राचीन 4 भव्य सूर्य मन्दिरों में वर्जुवी का सूर्य मन्दिर है, जिसे इस्लाम के प्रसार पर मस्जिद में बदल दिया गया। अनेक कक्षों से युक्त ईरानी मारागेह शहर के इस मन्दिर के बारे में ‘मारागेह के सांस्कृतिक विरासत संगठन’ ने 16 मई, 2004 को ‘ईरान’ दैनिक पत्र में लिखा है,‘‘इस्लाम के पूर्व यह सूर्य उपासना का स्थल था, जहां मित्र के उपासकों के अनेक धार्मिक पर्व सासानी साम्राज्य काल से मनाए जाते रहे हैं।’’ ईरान के निवासियों में इस्लाम के प्रसार के पूर्व पारसी परम्परा में सूर्य को सूर्य, विवस्वान व मिथ्र नामों से पूजा जाता था। भारतीय पुराणों में सूर्य को यम का पिता एवं विवस्वान् कहा गया है। ईरान मे ‘स’ का उच्चारण ‘‘ह’’ होने से पारसी धर्मग्रंथ अवेस्ता में उसे ‘विवाहवन्त’ कह ‘यिम’ का पिता बताया गया है। इसी उच्चारण भेदवश सप्त सिन्धु को अवेस्ता में ‘हफ्त हिन्दु’ लिखा है। यम को ‘यिम’ कहने से भगवान विष्णु का नाम ‘यिमक्षायेत’ भी है, जिसका अपभ्रंश ‘जमशेद’ है। ईरान में मध्य युग के पूर्व सौर उत्सवों की सुदीर्घ परम्परा के अंतर्गत वैदिक सूर्य का स्वरूप रूपान्तरित हुआ है और टर्की व सीरिया में सूर्य या मिथ्र का स्वरूप और बदला था। यूरोप की ग्रीको-रोमन संस्कृति में मित्र या सूर्य या अपोलो का रूप और बदल गया। यूरोप में मिथ्र सम्प्रदाय व मिथ्र मन्दिर ‘‘यूरोप में कोई संग्रहालय ऐसा नहीं है जिसमें इस हिन्द-ईरानी देवता (मित्र) का कोई न कोई चिन्ह, धातु या पत्थर में उभरा हुआ या खुदा हुआ न हो अथवा कोई न कोई शिलालेख या चित्र या कोई न कोई देखने योग्य स्मृतिचिन्ह न हो।’’ (मित्राईज्म-लेखक डब्लू, जे़ फिथिएन व एडम्स एम़ए़ पृष्ठ-4)। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार तीसरी व चौथी सदी तक रोम के सैनिक मिथ्र के उपासक थे। ईस्वी 307 में सम्राट डाओक्लेशियन ने मिथ्रक मन्दिर का लोकार्पण किया था। रोमन सम्राट कोमोडस व जूलिअन मिथ्र के उपासक थे। ‘‘ईसा पूर्व चौथी सदी से 500 ईस्वी तक पश्चिमी एशिया, मिस्र और अफ्रीका के उत्तरीय देशों के अलावा यूनान, बलकान, इटली, पोलैंड, जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम, आस्ट्रिया, हंगरी, स्विट्जरलैंड, स्पेन और समस्त यूरोप में मित्र के असंख्य मन्दिर थे और मित्र ही की पूजा होती थी। इंग्लैण्ड के नार्थमब्रलैंड, राचस्टर, कैम्बकफोर्ट, आक्सफोर्ड, यार्क, मैनचेस्टर और लंदन में मित्र के मन्दिर और उसकी मूर्तियां भरी थीं। रोम और शेष इटली मित्र के उपासकों से भरे पडेÞ थे।’’ (मित्राईज्म इन यूरोप-लेखक फिथिएन एवं एडम्स)। ‘‘जूलियन की हत्या के बाद मित्री मत रोमन साम्राज्य एवं यूरोप में लुप्त होना शुरू हो गया। पांचवीं सदी तक इस सम्प्रदाय के लाखों अनुयायी स्विट्जरलैंड, हंगरी और जर्मनी के दक्षिण में पाए जाते रहे थे। उनकी टूटी हुई मूर्तियां, आलेख और टूटे हुए मंदिरों के पत्थर अभी तक संग्रहालयों में देखने को मिलते हैं। धीरे-धीरे ईसाई मत ने यूरोप में मित्री मत की जगह ले ली। इसकी एक दर्दनाक कहानी है। इंगलिस्तान में पुरातत्व विभाग के अनेक मित्री मंदिरों के उत्खनन में मित्र की मूर्ति के साथ मजबूत जंजीरों में जकड़े हुए दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह मित्री उपासकों के नरकंकाल मिले हैं, जिन्हें मतांध लोगों ने मित्र की मूर्ति के साथ जिंदा दफन कर दिया था। इतिहास के मतांध प्रकरण की ऐसी कोई दूसरी मिसाल नहीं है।’’ (भारत और मानव संस्कृति, खण्ड-2, लेखक विशम्भरनाथ पाण्डे, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली पृष्ठ 33 से साभार) पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, आर्मेनिया और रोम सहित यूरोप के अनेक सूर्य मित्र/मिथ्र मन्दिरों, सूर्य प्रतिमाओं के क्रमांक 1-7 के चित्रों में सूर्य मन्दिर के बाहर उत्कीर्णित नृसिंह की प्रतिमा वहां पौराणिक देवताओं के चलन की द्योतक है। वरुण, शनि, बृहस्पति आदि की प्रतिमाओं और संक्रान्ति सौर उत्सव स्थलों की चर्चा इस स्तम्भ में हो चुकी है। इस प्रकार अधिकांश प्राचीन सभ्यताएं सनातन वैदिक संस्कृति की अंगभूत प्रतीत होती हैं। प्राचीन ईरानी भाषा पहलवी और वैदिक संस्कृत में मित्र या मिथ्र की स्तुतियां समान शब्दों में हैं।

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