रेलवे में हादसों की रफ्तार बनाम सुरक्षा की पटरी
प्रमोद भार्गव
रेलवे में सुरक्षा इंतजामों के तहत वाइफाइ व्यवस्था शुरू करने से पहले उन ग्यारह हजार चार सौ तिरसठ पार-पथों पर भूतल और उपरिगामी पुलों की जरूरत है, जो मानव रहित हैं। इनके अलावा सात हजार तीन सौ बाईस फाटक वाले पार पथ भी हैं। इन सभी पुलों पर आए दिन हादसे होते रहते हैं।
भारतीय रेल परिवहन तंत्र विश्व का सबसे बड़ा व्यावसायिक प्रतिष्ठान है, पर विडंबना है कि यह किसी भी स्तर पर विश्वस्तरीय मानकों को पूरा नहीं करता। हां, इसे विश्वस्तरीय बनाने का दम जरूर सरकारें लंबे समय से भरती रही हैं। हर बजट में रेल परिवहन को विश्व मानकों के अनुरूप बनाने की बढ़-चढ़ कर घोषणाएं होती हैं, लेकिन उन पर जमीनी अमल दिखाई नहीं देता।
जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार ने कामकाज संभाला है, तभी से वह रेल को विश्वस्तरीय और आधुनिक बनाने का दम भर रही है। इस बहाने वह रेलवे के ढांचागत सुधार और सुरक्षा संबंधी उपाय लागू करने के नाम पर तकनीक, गति और भोगवादी सुविधाओं को कुछ ज्यादा बढ़ावा देने की प्रक्रियाओं में उलझती दिखाई दे रही है। यही वजह है कि पिछले ड़ेढ़ साल में न सिर्फ रेल दुर्घटनाएं, बल्कि दुर्घटनाओं के कारणों का दायरा भी बढ़ा है। जाहिर है, ये हादसे रेल संगठन की देशव्यापी विशाल संरचना के क्रमिक क्षरण का संकेत दे रहे हैं।
मध्यप्रदेश के हरदा शहर के निकट कालीमचान नदी के पुल से गुजरने वाली दोहरी रेल लाइन पर विपरीत दिशाओं से आने वाली एक साथ दो रेलगाडिय़ों का नदी में गिर जाना रेल दुर्घटनाओं के इतिहास की पहली अनूठी घटना है। लाचार और लापरवाह सूचना तंत्र कामायनी एक्सप्रेस के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद भी दूसरी पटरी पर विपरीत दिशा से आ रही रेलगाड़ी के चालक को कोई सर्तकता की सूचना नहीं दे पाया और न ही हादसा स्थल के निकटतम रेलवे स्टेशनों को सूचनाएं दे पाया। यही वजह रही कि दस मिनट बाद इसी पुल से गुजरती हुई राजेंद्र नगर-मुंबई जनता एक्सप्रेस का इंजन और चार डिब्बे नदी में समा गए।
रेल महकमे की लापरवाही का आलम यह है कि जिला मुख्यालय हरदा से घटना स्थल महज बत्तीस किलोमीटर है, बावजूद इसके राहत और बचाव दल को घटना स्थल तक पहुंचने में चार घंटे लग गए। अगर ग्रामीण लोग बचाव का मोर्चा नहीं संभालते तो पैंतीस से कहीं ज्यादा यात्रियों की मौत हो गई होती। गोया, यह हादसा तात्कालिक मानवीय लापरवाही के साथ-साथ रेल सुरक्षाकर्मियों की दीर्घकालिक नजरअंदाजी का परिणाम भी है, क्योंकि रेल पटरियों के नीचे मिट््टी का क्षरण एकाएक नहीं हुआ होगा। उसे क्षरण में लंबा समय लगा होगा। रेलवे की यह लापरवाही इसलिए भी है कि हरदा क्षेत्र में पिछले दो सप्ताह से सामान्य से कहीं अधिक बारिश हो रही थी। ऐसे में आशंका थी कि रेल लाइनों को गंभीर क्षति पहुंच सकती है। लिहाजा, सुरक्षाकर्मियों की जबावदेही बनती थी कि वे नदियों और नालों पर बने पुलों और पटरियों पर निगाह रखते। इससे यही जाहिर है कि रेलवे के न केवल संरचनात्मक ढांचे का क्षरण हो रहा है, बल्कि व्यवस्था जन्य ढांचा भी चरमराया हुआ है।
मोदी सरकार बड़े-बड़े दावे करने के बावजूद व्यवस्था में कोई सुधार नहीं ला पाई, इसका प्रमाण है कि सरकार के महज सवा साल के कार्यकाल में ग्यारह बड़ी रेल दुर्घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें एक सौ बारह लोग हताहत और करीब पांच सौ यात्री घायल हुए हैं। जबकि बीते पांच सालों में दो सौ पच्चीस रेल दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें दो सौ सत्तानबे यात्री मारे गए। इन हादसों में करीब डेढ़ सौ करोड़ की संपत्ति का नुकसान भी हुआ। हादसों के बाद हुई जांचों से साबित हुआ कि इन घटनाओं में से एक सौ सड़सठ दुर्घटनाएं ऐसी थीं, जो रेलवे कर्मचारियों की गलती से हुईं। यानी रेल महकमा सतर्कता बरतता तो उन्हें आसानी से रोका जा सकता था। बावजूद इसके किसी भी कर्मचारी की नौकरी नहीं गई, किसी को दंडित नहीं किया गया। कर्मचारियों में नौकरी की सुरक्षा का यह भरोसा रेलवे में बढ़ रही लापरवाही की प्रमुख वजह है। केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद रेलवे में बड़े बदलावों के तहत आधुनिकीकरण, निजीकरण, ढांचागत सुधार और पुनर्रचनाओं की संभावनाओं की पड़ताल के लिए सितंबर, 2014 में विवेक देवराय समिति का गठन किया गया था। समिति ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट मार्च, 2015 में सरकार को सौंप दी थी। समिति की कई सिफारिशें ऐसी थीं, जिनमें यह दावा अंतर्निहित था कि अगर सिफारिशें मान ली जाती हैं, तो रेलवे के मौजूदा ढांचे और कार्यप्रणाली में अभूतपूर्व परिवर्तन आएगा। लेकिन हकीकत में ये बदलाव प्रत्येक मुसाफिर को बेहतर सेवा और सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय भेदभाव को रेखांकित करते हुए बाजारवाद को बढ़ावा देने के उपाय साबित हो रहे हैं।
गोया, बुलेट ट्रेन और राजधानी और शताब्दी जैसी विशेष रेल गाडिय़ों में संचार, खानपान और व्यक्तिगत सुरक्षा को बढ़ावा देने के दावे तो खूब हुए, लेकिन बुनियादी समस्याओं से जुड़ी आम आवश्यकताएं जस की तस हैं। जबकि इन रेलों में कुल यात्री संख्या के महज दो प्रतिशत मुसाफिर सफर करते हैं। रेलवे में सुरक्षा इंतजामों के तहत वाइफाइ व्यवस्था शुरू करने से पहले उन ग्यारह हजार चार सौ तिरसठ पार-पथों पर भूतल और उपरिगामी पुलों की जरूरत है, जो मानव रहित हैं। इनके अलावा सात हजार तीन सौ बाईस फाटक वाले पार पथ भी हैं। इन सभी पुलों पर आए दिन हादसे होते रहते हैं। हालांकि भू-तलीय पुलों के निर्माण में फिलहाल तेजी आई है। बिना रेल-मार्ग बाधित किए लोहे, सीमेंट और कंक्रीट से तैयार किए पुल पटरियों के नीचे बिठाए जा रहे हैं। रेलवे का यह प्रयास सराहनीय है। पर यह काम कछुआ चाल से आगे बढ़ रहा है, क्योंकि इस मद में पैसे की कमी है। जबकि रेलवे इन पुलों को अगर एक साथ युद्धस्तर पर बनाने का संकल्प ले तो दुर्घटनाओं में आशातीत कमी देखने में आएगी।
खुद सरकारी सर्वेक्षणों से अनेक बार जाहिर हो चुका है कि देर से चल रही परियोजनाओं में सबसे अधिक रेलवे से संबंधित हैं। इन परियोजनाओं में तेजी लाने का दम तो हर बार भरा जाता है, पर वे जस की तस चल रही हैं। इस तरह परियोजनाओं में होने वाली देरी के चलते न सिर्फ रेलवे को सुगम बनाने में मुश्किल पेश आती है, बल्कि उन पर निरंतर लागत बढ़ती जाती है। समझना मुश्किल है कि इस गति से रेलवे को किस तरह विश्व मानकों के अनुरूप बनाया जा सकेगा।