गरीबों के साथ भद्दा मजाक करने का पुराना इतिहास रहा है कांग्रेस का
मौत को मौका बनाकर गरीब जनता के साथ खतरनाक विश्वासघात करने, उसके साथ भद्दा सामाजिक राजनीतिक मजाक करने का कांग्रेसी इतिहास 41 बरस पुराना है।
6 अक्टूबर को अपने कांग्रेसी मातम की राजनीतिक मजलिस करने लखीमपुर गयी राहुल प्रियंका भूपेश और चन्नी की कांग्रेसी चौकड़ी समेत पूरी कांग्रेसी फौज भूल गयी है या भूलने का नाटक कर रही है.? यह तो वही जानें। लेकिन इतिहास के पन्ने कभी भी कुछ भी नहीं भूलते।
कहानी लगभग 42 वर्ष पहले की है। उस समय भी उत्तरप्रदेश के एक गांव में उपद्रव हुआ था। उस उपद्रव के बाद राहुल प्रियंका की जोड़ी की तरह ही राजनीतिक ड्रामा करने संजय गांधी और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरागांधी उस गांव पहुंच गयी थीं। घटना के केन्द्रीय पात्र दो अनाथ बच्चों को गोद मे लेकर दुलराते हुए जमकर फ़ोटो खिंचवाई थी। इंदिरा गांधी ने दोनों बच्चों को गोद लेकर उनकी जिम्मेदारी उठाने, उन्हें दिल्ली के अपने घर में रख कर उनका पालन पोषण करने और पढ़ाई कराने का जिम्मा लेने का ऐलान भी कर दिया था। इंदिरा गांधी की वह फोटो और ऐलान सुपरहिट हो गए थे। लेकिन उन दोनों बच्चों ने उस दिन के बाद दोबारा इंदिरा गांधी की शक्ल कभी नहीं देखी। दिल्ली जाना तो दूर, उनमें से एक बच्चा भुखमरी की हालत में उसी गांव में ही तालाब में डूब कर मर गया था। यह कभी पता नहीं चला कि उसकी मौत दुर्घटना थी या भुखमरी के कारण की गयी आत्महत्या.? उसकी बहन वर्ष भर पहले तक उसी गांव में ही भुखमरी की हालत में ज़िंदगी के दिन काट रही थी। सम्भवतः आज भी काट रही होगी। आखिर क्या थी वह घटना और क्यों घटी थी वह घटना.? आज आप मित्र भी जानिए वह कहानी।
वह तारीख थी 14 जनवरी 1980. उस दिन इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। लोकसभा का चुनाव भारी बहुमत से जीत चुकी कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश की तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार को बर्खास्त करने का बहाना युद्धस्तर पर ढूंढ़ना शुरू कर दिया था। कांग्रेस को यह मौका दिया था देवरिया जिले के नारायणपुर गांव की गरीब वृद्धा बसकाली की सड़क दुर्घटना में बस से कुचलकर हुई मौत ने। अपने माता व पिता को पहले ही खो चुके बसकाली के 8 वर्षीय अबोध पौत्र जयप्रकाश और 6 वर्षीय पौत्री सोनकलिया पूरी तरह अनाथ हो गए थे। उस गांव का नाम नारायणपुर जरूर था लेकिन दो तिहाई से अधिक जनसंख्या आसमानी किताब वालों की थी। बसकाली की मौत के बाद अफलातून सिद्दीकी उर्फ ‘फोरमैन’ ने अपने साथियों मुनव्वर और इरफान के साथ मिलकर गांव वालों को इकट्ठा किया था। बसकाली की लाश को सड़क पर रखकर जिले के प्रमुख मार्ग हाटा-कप्तानगंज को जाम कर दिया था। जाम को खत्म कराने पहुंची पुलिस पर अफलातून सिद्दीकी उर्फ ‘फोरमैन’ ने अपने गुर्गों के साथ भयंकर पथराव किया था। जवाब में पुलिस ने भी लाठीचार्ज किया था और जाम खत्म करा दिया था। उस लाठीचार्ज में कुछ लोगों को लगी हल्की फुल्की चोटों के अलावा कोई गम्भीर रूप से घायल नहीं हुआ था। एहतियात के लिए गांव में पीएसी तैनात कर दी गई थी। लेकिन दूसरे दिन गांव के खेत में एक महिला व पुरूष का शव मिला था। दोनों दलित वर्ग के निर्धन ग्रामीण थे। उनके सिर पर चोट के निशान थे। अफलातून सिद्दीकी उर्फ फोरमैन भी सवेरा होते ही सक्रिय हो गया था। दर्जनों महिलाओं के साथ बलात्कार करने व दो दलितों की हत्या करने और ग्रामीणों के साथ बर्बरता करने का आरोप उसने पीएसी व पुलिस के जवानों पर लगाना शुरू कर दिया था।
14 जनवरी को इंदिरा गांधी द्वारा प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही उत्तरप्रदेश के कांग्रेसियों ने इस मौके को जमकर भुनाने की ठान ली थीं। जबरदस्त उपद्रव शुरू हो गया था। अपने साथ बलात्कार किए जाने का आरोप लगा रहीं महिलाओं की परेड और उनके बयान दिल्ली, लखनऊ से लाये गए पत्रकारों के सामने कराए गए थे।प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी नारायण पुर गांव पहुंच गयी थीं। उनके पुत्र संजय गांधी ने 20 दिन में तीन बार गांव का चक्कर लगा डाला था। लुटियन मीडिया ने मामले को इतना गरमा दिया था कि नारायणपुर गांव की घटना के बहाने उत्तरप्रदेश की कानून व्यवस्था को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूरी तरह ध्वस्त घोषित कर दिया था। इसी के साथ 7 फरवरी 1980 को उत्तरप्रदेश की तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार को इंदिरा गांधी ने बर्खास्त भी कर दिया था। 4 माह बाद हुए उत्तरप्रदेश के चुनाव में नारायण पूर बलात्कार हत्याकांड के मुद्दे ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कांग्रेस चुनाव जीतकर सत्ता में आ गयी थी। हालांकि चुनाव के बाद कांग्रेसी सरकार की देखरेख में हुई जांच में पुलिस या पीएसी द्वारा किए गए तथाकथित बलात्कार की शिकार एक भी पीड़िता उस गांव में नहीं मिली थी। तब यह तथ्य भी उभर कर सामने आया था कि दिल्ली और लखनऊ से नारायणपुर गांव ले जाए गए पत्रकारों के समक्ष बलात्कार पीड़िता बनकर बयान देने, परेड कराने के लिए बिहार के एक जिले से पैसे देकर दर्जन भर से अधिक वेश्याओं को नारायणपुर लाया गया था। सच क्या था.? यह कभी उजागर नहीं हुआ। उस रात उन 2 दलितों की हत्या किसने की थी.? यह रहस्य भी कभी नहीं सुलझा। लुटियन मीडिया ने उस रहस्य को सुलझाने की कोशिश करने का पाप कभी नहीं किया। नारायणपुर की लाशों, बलात्कार के वेताली किस्सों के बल पर दो तिहाई बहुमत वाली उत्तरप्रदेश की तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार बर्खास्त हो चुकी थी। बहुत धूमधाम से कांग्रेस सत्ता पर काबिज हो चुकी थी। यानि लुटियन दलालों का उल्लू सीधा हो चुका था।
लेकिन उसके बाद जो हुआ वह शर्मनाक था। 8 और 6 बरस के अनाथ भाई बहन जयप्रकाश और सोनकलिया की जोड़ी को कुछ दिनों तक उसके एक रिश्तेदार ने अपने साथ रखकर इस उम्मीद से खाना खिलाया कि देश की प्रधानमंत्री कुछ दिनों इन बच्चों को दिल्ली ले जाकर उनके पालन पोषण पढ़ाई की व्यवस्था करेगी। लेकिन उन गरीब अनाथ बच्चों के साथ किए गए घातक विश्वासघात, भद्दे अश्लील राजनीतिक मजाक का सच 2-3 बरसों की प्रतीक्षा के बाद जब सामने आया तो उस रिश्तेदार ने भी जयप्रकाश और सोनकलिया को छोड़ दिया। दोनों अनाथ बच्चे गांव में भीख मांगते हुए अपनी दादी की झोपड़ी में दिन गुजारने लगे। उनकी दादी बसकलिया के पास जो थोड़ी सी जमीन थी। उस पर दबंगों ने कब्जा कर लिया था। इन्हीं हालातों में एकदिन जयप्रकाश की लाश गांव के तालाब में तैरती हुई मिली। सोनकलिया अकेली रह गयी। 1990 में उत्तरप्रदेश से कांग्रेस के सफाए के बाद आयी गैर कांग्रेसी सरकारों के शासनकाल में उसे कुछ सरकारी योजनाओं के तहत एक कमरे वाला भ्रष्टाचार का शिकार आवास आबंटित हुआ, जो जल्दी ही ढह गया। रिश्तेदारों ने एक दिहाड़ी खेतिहर मजदूर के साथ उसकी शादी करा दी। लेकिन उसकी दादी की जमीन पर दबंगों का कब्जा यथावत रहा। साल भर पहले तक वह सोनकलिया एक जर्जर खपरैल में लगभग भुखमरी की स्थिति में दयनीय व बेबस जिंदगी जी रही थी, जिस सोनकलिया को अपने साथ दिल्ली ले जाकर उसे पालने पोसने पढ़ाने की जिम्मेदारी लेने का ऐलान करते हुए देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था। (देखें पहला दूसरा कमेंट)।
इंदिरा गांधी ने जयप्रकाश और सोनकलिया को गोद मे लेकर वह ऐलान करते हुए जमकर फोटो खिंचवाई थी। लुटियन मीडिया ने उन फोटो, उस ऐलान को पहले पन्ने पर जमकर छाप के चुनावी मौसम को कांग्रेसी रंग में रंग दिया था।
आज सोनकलिया जयप्रकाश और इंदिरा गांधी की उपरोक्त कहानी का अत्यंत संक्षिप्त उल्लेख इसलिए किया ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि लखीमपुर जाकर किए गए कांग्रेसी मातम का शर्मनाक सच क्या है। ध्यान रहे कि नारायपुर के उपद्रव के 5 माह बाद उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव हुए थे। लखीमपुर के बवाल के भी 5 माह बाद उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव होने हैं। लेकिन कांग्रेस यह भूल गयी है कि 1980 में सोशलमीडिया का जन्म नहीं हुआ था। लेकिन 2021 में सोशलमीडिया हर राजनीतिक झूठ फरेब मक्कारी जालसाजी की धज्जियां उड़ाने के लिए उपस्थित है।
Satish Chandra Mishra