जब भारतवर्ष में मात्र 26 वर्ष में ही हो गये थे 20 स्वतंत्रता आंदोलन
आर्यधर्म की विशेषताएं
जिस आर्य (हिन्दू) धर्म की रक्षार्थ लड़े गये लंबे स्वातंत्र्य समर की कहानी हम लिख रहे हैं उसके विषय में स्वामी विज्ञानानंद जी महाराज ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू नाम की प्राचीनता और विशेषताएं’ के पृष्ठ भाग पर लिखा है कि-‘‘यह धर्म (अपने मूल स्वरूप में) जनतंत्रवादी है- अधिनायकवादी नही, बुद्घिवादी है-पैगंबरवादी नही, अध्यात्मवादी है-प्रकृतिवादी नही, श्रद्घावादी है-अंधभक्तिवादी नही, आशावादी है-निराशावादी नही, उत्थानवादी है-जड़तावादी नही, कर्मवादी है-भाग्यवादी नही, त्यागवादी है-भोगवादी नही, समतावादी है-विभेदवादी नही, मानवतावादी है-रंगनस्ल भेदवादी नही, सौहार्दवादी है-आतंकवादी नही, विवेकवादी है-मतांधवादी नही और विकासवादी है-कूपमंडूकतावादी नही।’’
अपने इन दिव्य गुणों के कारण यह धर्म दूसरों के प्रति अत्यंत सहिष्णु रहा है, समतावादी रहा है और समय आने पर इस धर्म ने दूसरों का कलेजा खाया नही है-अपितु दूसरों के कल्याणार्थ अपना कलेजा उन्हें खिलाने की आवश्यकता पड़ी है, तो वह भी बड़े प्रेम से खिलाया है। इतना उदार और इतना महान मानवतावादी धर्म समस्त भूमंडल पर कही नही है। पर जब बात देशधर्म की आती है तो आर्य धर्म के ये सभी दिव्य गुण हर हिंदू को पहले देशधर्म को बचाने के लिए प्रेरित करने लगते हैं, क्योंकि देश और धर्म यदि बचे रहे तो ही इन गुणों की रक्षा संभव है।
मुरली मनोहर का आदर्श
महात्मा हंसराज जी की पुस्तक ‘प्रेरक प्रवचन’ में उन्होंने एक वीर बालक मुरली मनोहर के विषय में लिखा है कि उसे धर्मांतरण कर मुसलमान होना प्रिय नही था, इसके लिए वह प्राण देने तक को भी उद्यत था। जब माता -पिता ने समझाया कि तू मुस्लिम हो जाएगा तो हमें भी दिखता रहेगा। इसलिए पुत्र मान जाओ, हठ मत करो। तब वह धर्मवीर महाभारत के इस श्लोक को बोलता है :-
एकाकी जायते जन्तुरेक एवं प्रलीयते।
एक एव सुहृद धर्मो निधनेअप्यनुयातिय:।।
अर्थात मुझको धर्म से वियुक्त करके पाप के भागी मत बनो। आप मेरे लिए पूज्य हैं, आप मेरे देवता हैं। मेरे बहन और भाई भी मुझे अत्यंत प्यारे हैं, परंतु मैं अपने धर्म की पूजा और अपने धर्म से प्यार इन सबकी अपेक्षा अधिक करता हूं। मैं उसकी रक्षा करना चाहता हूं।’’
मुरली मनोहर के ये शब्द मानो भारत के उन असंख्य मुरली मनोहरों के हैं, जिन्होंने केवल और केवल धर्म के लिए ही शीश दे दिये।
पारसियों का आदर्श उदाहरण
जहां तक भारत के आर्य हिंदू धर्म के उदार और मानवतावादी होने का प्रश्न है तो इसका बहुत ही सुंदर उदाहरण प्रो. रामविचार एम.ए ने अपनी पुस्तक ‘वेद संदेश’ के पृष्ठ 102 पर दिया है। वह लिखते हैं कि ईरान में जब यज्दगर्द का राज्य था, तब अरबी मुसलमानों ने उस देश पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने तलवार के बल से सारे ईरान को मुसलमान बना लिया। जो संपन्न पारसी थे वे जलयानों के द्वारा गुजरात में आ गये।
गुजरात नरेश जाधव राणा के दरबार में पारसी शरणार्थियों का एक प्रतिनिधिमंडल उपस्थित हुआ। राजा ने उनसे आने का कारण पूछा। शरणार्थियों का प्रतिनिधि एक वृद्घ पुजारी था। वह बोला-हम पूजा की स्वतंत्रता चाहते हैं। अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों के अनुसार अपने बच्चों का पालन-पोषण करने का अधिकार हमें मिले। हमें आप जमीन का एक टुकड़ा दीजिए। जिस पर खेती कर अपना पेट भर सकें।
राजा ने कहा-‘‘आपको सब कुछ मिलेगा, लेकिन इसके बदले में आप हमारे देश को क्या दोगे?’’
यह सुनकर पारसी लोगों के मुखिया ने एक खाली पात्र मंगाया। उसे दूध से भरा, फिर उसमें शक्कर मिलाकर बोला-देखिए दूध में कहीं शक्कर नजर आ रही है? हम भी देश में आपकी मानवीय करूणामयी दूध में न दिखाई देने वाली शक्कर की भांति महत्वहीन बनकर रहेंगे, और जीवनभर समाज मेंं मिठास प्रवाहित करने की चेष्टा करेंगे।
जो बात एक पारसी वृद्घ ने कही थी, वही भावना आज भी पारसियों में विद्यमान है। पारसी समुदाय यद्यपि संख्या की दृष्टि से नाममात्र है, परंतु भारत के प्रति उसकी निष्ठा अटूट है।
भारत के परम उदार हिंदू धर्म ने पारसी समाज के अति अल्पसंख्यक होते हुए भी उसे समस्त मानवाधिकार प्रदान ही नही किये हैं, अपितु उसके मूल अधिकारों की रक्षा भी की है। यदि यह धर्म समन्वयवादी नही होता तो पारसी समाज को अपने भीतर (उनकी समस्त परंपराओं को उन्हें पालने देने के उपरांत भी) समाहित न कर लेता?
मुस्लिम आक्रांताओं का उद्देश्य
परंतु मुस्लिम आक्रांताओं की बात यह नही थी। उनके आक्रमण का उद्देश्य इस देश को और इस देश के धर्म को मिटाना था, इसलिए उसने कभी भी पारसी समाज की भांति दूध में शक्कर जैसी मिठास उत्पन्न करके ना जीना चाहा और ना ही उसके लिए यहां के समाज से कभी अनुमति चाही। इसलिए यहां ‘मुरली मनोहरों की परंपरा’ मुस्लिमों के पहले आक्रमण के पहले दिन से चल निकली और सैकड़ों वर्षों तक बिना थके चलती रही।
इसी बलिदानी स्वतंत्रता आंदोलन की परंपरा पर हम अब आगे विचार करते हैं।
कांगड़ा पर मुस्लिम आक्रमण
कांगड़ा का कटोच राजवंश भारत के प्राचीनतम राजवंशों में से एक रहा है। महाभारत काल में यहां सुसरमन नामक शासकका शासन था। उस समय जालंधर को त्रिगर्त कहा जाता था। यह त्रिगर्त का राज्य सतलुज और रावी नदियों के मध्य फैला हुआ था। त्रिगर्त का सामंजस्य कुछ विद्वानों ने कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश की एक घाटी) के साथ भी स्थापित करने का प्रयास किया है। सुसरमन राजा का नाम हमें कहीं सुशर्मचंद भी मिलता है। यहां नगरकोट नाम का दुर्ग है, जिसमें लक्ष्मीनारायण मंदिर के अतिरिक्त अम्बिका जी और आदिनाथ तीर्थंकर के प्रसिद्घ देवालय हैं।
महमूद गजनवी की लूट और नगरकोट
महमूद गजनवी ने भी अपने समय में 1009 ई. में नगरकोट पर आक्रमण किया था। मुस्लिम लेखक अल ने गजनवी की लूट के विषय में लिखा है-‘‘नगरकोट की धनराशि इतनी अधिक थी कि उसे ढोने के लिए ऊंटों के काफिले भी कम पड़ गये। जितना ऊंटों पर लादा जा सकता था, लादा गया, शेष को सेना के अधिकारियों ने ले लिया। केवल सिक्के ही सात करोड़ शाही दिरहम के बराबर थे तथा सोना चांदी के सामान का भार सात लाख चार सौ मन था। अन्य मूल्यवान वस्त्रादि अलग थे। इस लूट में उसे एक चांदी का मकान भी मिला जो संपन्न लोगों जैसा ही था, उसकी लंबाई 30 गज तथा चौड़ाई 15 गज थी, जिसे खोलकर ले जाया जा सकता था। लेखक लिखता है कि इस लूट में महमूद गजनवी को इतना धन मिला जिसका वर्णन न तो किया ही जा सकता है और न अभी तक किसी पुस्तक में ही पढ़ा।’’ (इलियट भाग-2 पृष्ठ 24-25)
इसी नगरकोट पर आक्रमण कर लूट मचाने की योजना मुहम्मद बिन तुगलक ने बनाई। सुल्तान की योजना अपने हर पूर्ववर्ती की भांति लूट मचाना तो थी ही, साथ ही हिंदू विनाश भी उसकी योजना का एक अंग था। यहां सदियों से हिंदू शासन करते आ रहे थे, जो सुल्तान को अच्छा नही लग रहा था। के. एन. निजामी का मानना है कि कराजल अभियान के पश्चात सुल्तान ने 1338 ई. में नगरकोट अभियान की योजना बनाई थी। इस अभियान का नेतृत्व सुल्तान ने स्वयं ने किया था।
पृथ्वीचंद था उस समय नगरकोट का शासक
नगरकोट को बलबन ने भी अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया था। परंतु तब वह कुछ काल उपरांत ही अपनी स्वतंत्रता को पुन: प्राप्त करने में सफल हो गया था। (अमीर खुसरो) इस आक्रमण के समय इतिहासकारों की मान्यता है कि नगरकोट पर पृथ्वीचंद नामक शासक शासन कर रहा था। बद्रेचाच नामक मुस्लिम लेखक का कहना है कि सुल्तान ने यहां के लिए भी एक लाख सैनिकों की सेना तैयार की और अपने नेतृत्व में इस नगर पर आक्रमण किया। वह केवल इतना लिखता है कि यह दुर्ग सुल्तान के अधिकार में आ गया था। जितनी सरलता से सुल्तान के दुर्ग पर आधिपत्य की सूचना बद्रेचाच देता है, उतना संभव नही था, क्योंकि इसी दुर्ग को विजय करने में आगे चलकर फिरोज तुगलक को छह माह का समय लगा था। (तारीखे फीरोजशाही)
हिंदुओं ने फिर करा लिया नगरकोट स्वतंत्र
माना जा सकता है कि सुल्तान ने इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया था, परंतु यह भी सत्य है कि उसने इस किले की दुर्गमशीलता को देखते हुए इसे हिंदुओं को ही दे दिया। परंतु संघर्षशील हिंदुओं ने पुन: हुंकार भरी और कुछ काल पश्चात ही अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। जब फीरोज तुगलक दिल्ली के सिंहासन पर बैठा था तो उस समय यहां के हिंदुओं ने अपनी शक्ति में इतनी वृद्घि कर ली थी कि वे सल्तनत के भागों पर ही नियंत्रण स्थापित करने के लिए उन्हें लूटने लगे थे। जिसके कारण फीरोज तुगलक को भी नगरकोट पर आक्रमण करना पड़ा था।
नगरकोट की ऊपरलिखित परिस्थितियों और तथ्यों से स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में भी सदियों तक स्वतंत्रता संघर्ष चलता रहा। हारे पिटे, फिर खड़े हुए और आगे बढ़े यही कहानी स्वतंत्रता का संघर्ष बनकर इस क्षेत्र की हिंदू जनता का मार्ग दर्शन करती रही। फलस्वरूप व्यापक धनहानि और जनहानि कराने के उपरंात भी ये लोग धर्म की हानि कराने से बच गये और यह भी उस संघर्ष का ही परिणाम था जो सदियों तक चला। जिसमें कभी धनहानि और जनहानि का आंकलन करना किसी हिंदू वीर ने उचित ही नही माना। मेवाड़ के राणा हमीर का उल्लेख हम पूर्व में ही कर चुके हैं कि किस प्रकार उस हिंदू वीर ने पराधीनता की बेडियां काटकर योजनाबद्घ ढंग से मेवाड़ को 1338 ई. में स्वतंत्र कराया था। राणा हमीर की मृत्यु के पश्चात उसका लडक़ा क्षेत्रसिंह 1365 ई. मेवाड़ के राज्य सिंहासन पर बैठा। क्षेत्रसिंह में अपने पिता के सभी गुण विद्यमान थे, इसलिए वह पूर्णत: देशभक्त राजा था। कर्नल टॉड हमें बताते हैं कि राणा क्षेत्रसिंह ने अपने शासनकाल में अजमेर, जहाजपुर पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की और माण्डल गढ़, देसूरी एवं चंपन को अपने राज्य में सम्मिलित किया। इस पराक्रमी शासक ने दिल्ली के एक तुगलक सुल्तान (जिसका नाम हुमायूं था) की विशाल सेना को परास्त किया था। एल्फिंस्टन का कहना है कि यह हुमायूं सुल्तान नसीरूद्दीन तुगलक का बेटा हुमायूं था। यह अपने पिता नसीरूद्दीन की मृत्यु के पश्चात दिल्ली के राज्यसिंहासन पर बैठा था। इसी हुमायूं से क्षेत्रसिंह का संघर्ष उस समय हुआ होगा जब वह एक राजकुमार था। क्योंकि जब वह 1394 ई. में दिल्ली का बादशाह बना था तो उसके और क्षेत्रसिंह के शासन काल में अंतर हो जाता है।
परंतु राणा क्षेत्रसिंह ने हुमायूं की विशाल सेना को परास्त कर हिंदू की वीरता का लोहा अवश्य मनवा दिया था। इस घटना को लेकर विदेशी इतिहासकारों ने तो इस पर प्रकाश डाला है, परंतु हमारे इतिहास में इसे एक पंक्ति का भी स्थान भी नही मिला। क्षेत्रसिंह जैसे कितने ही वीरों के वीरोचित कृत्य इसी प्रकार भुला दिये गये हैं।
हम काट दिये गये अपनी जड़ों से
योगी श्री अरविंद का यह कथन कितना सार्थक है-‘‘भारत में…हम एक स्वार्थी और निर्जीव शिक्षा के द्वारा अपनी प्राचीन संस्कृति और परंपरा की सभी जड़ों से काट दिये गये हैं।’’ (भारत का पुनर्जन्म पृष्ठ 67)
स्वातंत्रय वीर सावरकर अपनी हिन्ंदुत्व नामक पुस्तक के पृष्ठ 111 पर लिखते हैं-‘‘आज इस नाम (हिंदुत्व) का जो अभिप्राय है, उस अभिप्राय की अभिव्यक्ति की शक्ति इसे चालीस शताब्दियों में उपलब्ध हुई है। अनेक महानतम योद्घा, इतिहासज्ञ, दार्शनिक कवि, विधिज्ञ और विधि निर्माता, शास्त्रों के प्रकाण्ड पंडित इसी नाम के लिए संघर्ष करते रहे हैं, उन्होंने इसके लिए संग्राम ही नही किया, अपितु सर्वस्व समर्पित भी किया है। क्या यह नाम हमारी जाति के असंख्य महान कार्यों का ही प्रतिफल मात्र नही है?’’
हमारा मानना है कि जब तक क्षेत्रसिंह जैसे महान योद्घाओं को हम इतिहास में उचित स्थान और सम्मान नही दिला देते हैं, तब तक स्वातंत्रय वीर सावरकर का आशय पूर्ण होने वाला नही है।
हिंदू विद्रोहों से मौहम्मद बिन तुगलक हो गया था निराश
एक बार मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने राज्य में होने वाले नित्य प्रति के विद्रोही स्वतंत्रता आंदोलनों से दुखी होकर अपने दरबारी लेखक जियाउद्दीन बर्नी से कहा था कि-‘‘मेरा राज्य रूग्ण हो गया है। कोई औषधि इसका उपचार नही कर पा रही है। यदि सिर के दर्द का उपचार किया जाता है तो बुखार आ जाता है और बुखार का उपचार किया जाता है तो कोई और रोग हो जाता है।’’
सुल्तान का यह कथन सत्य था। उसके साम्राज्य में लगभग बीस विद्रोह हुए, यद्यपि उसने दक्षिण की ओर अपने साम्राज्य का कुछ सीमा विस्तार भी किया, परंतु जितना वह लाभ प्राप्त करता था, उससे अधिक उसे हानि उठानी पड़ती थी। इससे वह झुंझलाहट भरी व्याकुलता का अनुभव करता था और जितने अधिक विद्रोह होते, उतना ही अधिक क्रूर हो उठता। उसने इस संबंध में भी बरनी से कहा था-‘‘मैं लोगों को विद्रोह और विश्वासघात के संदेह पर दण्ड देता हूं। मैं छोटी सी भी भूल पर तथा धृष्टतापूर्ण कार्य के करने वाले को छोटा सा दण्ड नही, अपितु सीधे मृत्युदण्ड देता हूं। मैं अपनी मृत्यु तक ऐसा करता रहूंगा। तब तक जब तक कि लोग विद्रोह तथा धृष्टता छोडक़र मेरे प्रति निष्ठावान नही हो जाते हैं। मेरा ऐसा कोई मंत्री नही है जो मेरे द्वारा किये जाने रक्तपात को रोकने के लिए नियम बना सके। मैं लोगों को इसलिए दण्ड देता हूं कि वे सब एकसाथ मेरे शत्रु तथा विरोधी हो गये हैं।’’
हरिहर-बुक्का ने कर दी स्वतंत्र राज्य की स्थापना
सुल्तान का यह कथन उसकी विवेकहीनता और निराशा को दर्शाता है। सुल्तान की कठोरता और क्रूरता बढ़ती जा रही थी और उधर दक्षिण में स्वतंत्र हिन्दू राज्यों की स्थापना होती जा रही थी। मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में प्लेग की बीमारी फैल गयी थी, तब सुल्तान प्लेग के आघात को झेल रही अपनी सेना के साथ दक्षिण से अपनी राजधानी दिल्ली लौट आया। यह 1335 ई. की घटना है। तब वहां के हिंदूवीर हरिहर और बुक्का नामक दो भाईयों ने हिंदुओं की स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए 1336 ई. में अपने स्वतंत्र हिंदू राज्य की स्थापना कर दी। विजयनगर राज्य के नाम से प्रसिद्घ यह हिंदू राज्य सैकड़ों वर्ष तक स्वतंत्र रूप से शासन करता रहा। इन दोनों हिंदू वीरों की स्वतंत्रता के प्रति वचनबद्घता और समर्पण देखिए कि उन्होंने अपने राज्य की राजधानी भी विजयनगर बनाई। जिसका नाम ही विजय नगर हो। वह स्वतंत्रता के अपहत्र्ताओं के विरूद्घ मिली विजय की प्रसन्नता की अभिव्यक्ति नही तो और क्या थी?
अन्य राज्यों ने पकड़ी स्वतंत्रता की राह
जिस समय विजय नगर अपनी आंखें खोल रहा था और दिल्ली सल्तनत को दक्षिण से भागने के लिए विवश कर रहा था, लगभग उसी समय दक्षिण के अन्य राज्य वारंगल ने भी 1335 ई. में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। अपनी इस स्वतंत्रता की घोषणा के पश्चात वारंगल पुन: सुल्तान के नियंत्रण में नही आ सका था। बरनी ने वारंगल की स्वतंत्रता के विषय में लिखा है-‘‘जब सुल्तान दिल्ली में था वारंगल में हिंदुओं का विद्रोह हुआ। इस प्रदेश में कन्हैया नामक व्यक्ति शासक बन बैठा। वारंगल का राज्यपाल इस विद्रोह का दमन नही कर सका, और वह दिल्ली भाग गया। वारंगल और निकटवर्ती क्षेत्र में हिंदुओं की सत्ता स्थापित हो गयी और वारंगल पूर्ण रूप से सुल्तान के हाथों से निकल गया।’’
यह अदभुत संयोग था कि दक्षिण में जिस समय स्वतंत्रता की धूम मची थी तो उसी से प्रेरणा पाकर कम्पिला ने भी सुल्तान के विरूद्घ स्वतंत्रता का ध्वज फहरा दिया। इसे ‘दक्षिण की क्रांति’ कहा जाए और इसी रूप में इतिहास में सम्मिलित किया जाए तो कोई त्रुटि नही होगी। कम्पिला का राज्यपाल (1335 ई.) में कन्हैया नाम के उपरोक्त वारंगल नरेश का संबंधी था। जब उसने देखा कि वारंगल और विजयनगर स्वतंत्र होकर मां भारती के ऋण से उऋण हो गये हैं तो उसके हृदय में भी ‘हिन्दुत्व’ ने मचलना आरंभ कर दिया। यद्यपि उसे धर्मांतरित कर मुस्लिम बनाकर ही कम्पिला भेजा गया था। परंतु क्रांति की ज्वाला ने मुस्लिम होने की भ्रांति को समाप्त कर दिया और उसका शौर्य उसे ही ललकार बैठा। वह उठा और पुन: हिन्दू बन गया। हिंदू बनकर इसने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इसे भी मुहम्मद बिन तुगलक पुन: परास्त करने में असफल रहा था।
किसानों ने भी किया विद्रोह
जब सुल्तान के विरूद्घ स्वतंत्रता आंदोलनों और विद्रोहों की झड़ी लग रही थी तो सुनम तथा समाना में जाट तथा भटटीराजाओं ने भी विद्रोह की पताका उठा ली। के.ए. निजामी ने इस विद्रोह को केवल कुछ किसानों का विद्रोह माना है। किसानों ने अपने ऊपर लगाये गये किसी भी प्रकार के कर के भुगतान करने से इंकार कर दिया।
सुल्तान ने यद्यपि स्वयं जाकर इस विद्रोह का दमन कर दिया था, परंतु एक बात तो स्पष्ट हो ही गयी थी कि इस सुल्तान के विरूद्घ साधारण हिन्दू भी उठकर राज्यों की स्वतंत्रता की घोषणा कर रहे थे। तब इस बात का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सुल्तान के शासनकाल में अराजकता का सर्वत्र बोलबाला हो गया था।
मुस्लिम शासक भी हो गये विद्रोही
हिंदुओं के अतिरिक्त बीदर में शिहाब सुल्तानों ने 1338 ई. में अलीशाह नाथू ने गुलबर्ग में 1339-40 ई. में निजाम मुईन ने 1338 ई. में कड़ा में, आइनुल मुल्क ने 1340-41 ई. में अवध में, शाहू अफगान ने 1341 ई. में मुल्तान में विद्रोह किया। जिससे स्पष्ट होता है कि इस सुल्तान का अधिकांश समय विद्रोहों से संघर्ष करने में ही व्यतीत हुआ।
बरनी के अनुसार सुल्तान का चरित्र ही उसकी असफलता का एक मात्र कारण था। सुल्तान की नास्तिकता, अहंकार तथा क्रूरता ऐसे चारित्रिक दोष थे जिन्होंने उसे सफल नही होने दिया। बरनी चाहता था कि जो कुछ भी हो रहा है, उसके विषय में सच-सच अपने स्वामी से कह दे कि इसके लिए उत्तरदायी आप ही हैं। बरनी स्वयं कहता है कि-‘‘वह चाहता था कि सुल्तान से कह दिया जाए कि ये सभी हुजूरे आला की अत्यंत निर्ममता के परिणाम हैं। परंतु राजा के क्रोध से डरकर मैंने नही कहा। मैं वह नही कह सका जो मुझे कह देना चाहिए था।’’
यद्यपि नित्य प्रति के विद्रोहों का सामना करते सुल्तान ने अपने विश्सनीय बरनी से कई बार ऐसी बातें कहीं कि जब बरनी को अपना मौन तोड़ देना चाहिए था? जैसे बरनी कहता है-सुल्तान ने मुझे बुलाया और कहा-‘‘तू देखता है, न किस प्रकार विद्रोह पैदा होते जा रहे हैं?’’
सुल्तान की क्रूरता किस स्तर की थी, इस विषय में एक छोटा सा उदाहरण हम पी.एन. ओक की पुस्तक ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान’ भाग-1 के पृष्ठ 302 से देते हैं।
‘‘एक बार सुल्तान ने दिल्ली के समीप की पहाडिय़ों में हिन्दुओं से लडऩे के लिए अपनी एकसैन्य टुकड़ी मलिक युसूफ बुध्रा को दी। यूसुफ के कुछ व्यक्ति सेना के प्रस्थान के समय खिसक गये। कुछ दिल्ली क्षेत्र में पीछे ठहर गये। सुल्तान ने सभी को खोज निकालने का कड़ा आदेश दे दिया। तीन सौ आदमी पकड़े गये। सभी को हलाल कर दिया गया।’’
क्रूरता का एक उदाहरण और….
सुल्तान की बहन के लडक़ा बहाउद्दीन ने सुल्तान से विद्रोह कर दिया। जिसने पराजित पर राजपूत राजाओं से शरण मांगी। कम्पिला शासक ने उसे शरण दे दी। तब सुल्तान ने कम्पिला पर आक्रमण कर दिया। सुल्तान की क्रूरता से बचने के लिए वहां की नारियों ने जौहर कर लिया और राजपूत सेना लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गयी। केवल छोटे छोटे ग्यारह बच्चे बचे, जिनका खतना करके उन्हें मुसलमान बना दिया गया।
बहाउद्दीन को पकडक़र उसकी जीवितावस्था में ही चमड़ी उधेड़ ली गयी। तब उसकी चमड़ी को चावल में पकाकर पुलाव बनाया गया, जिसे बहाउद्दीन की पत्नी व बच्चों को खिलाया गया। शेष पुलाव को बड़ी तश्तरी में रखकर हाथियों के सामने रख दिया गया, परंतु उन्होंने उसे छुआ तक भी नही। तत्पश्चात बहाउद्दीन की लाश में घासफूस भरा गया, ऐसी कई अन्य लाशें भी थीं जिनमें घास फूस भरा गया था। तब इन सारी लाशों को सारे राज्य में प्रदर्शित करने के लिए भेज दिया। यह रोमांचकारी प्रदर्शनी सिंध पहुंची।
जिसे देखकर वहां का राज्यपाल किशलू खां द्रवित हो गया और उसने उन लाशों को दफन करा दिया।
तब उस सुल्तान ने उसे दरबार में उपस्थित होने की आज्ञा दी। इस पर किशलू खां बागी हो गया। तब सुल्तान ने उस पर आक्रमण कर दिया। सुल्तान को युद्घ में किशलू खां ने घेर लिया। तब सुल्तान ने अपने हमशक्ल इमामुद्दीन को राजछत्र सौंप दिया, इमामुद्दीन युद्घ में मारा गया। पर सुल्तान ने दूसरी ओर से आक्रमण कर किशलू और उसके साथी करीमुद्दीन को घेर लिया, और करीमुद्दीन की चमड़ी छील दी गयी। किशलू खां का सिर काटकर सुल्तान ने उसके महल पर टांग दिया।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि सुल्तान मुसलमानों के प्रति भी क्रूर ही था। ऐसे कुकृत्यों के कारण ही उसके विरूद्घ देश में स्वतंत्रता आंदोलनों की धूम मच उठी थी।
उसके छब्बीस वर्षीय शासन काल में बीस स्वतंत्रता आंदोलन हुए, जिनमें वह सदा उलझा रहा, और जितना वह अपनी उलझन को सुलझाने का प्रयास करता था उतना ही उसमें उलझता जाता था। यह थी भारतीय वीरों की वीरता जिसने एक क्रूर शासक को एक दिन भी चैन से सोने नही दिया। इसके उपरांत भी हमारे वीर पूर्वजों को क्रूर कहा जाए तो ऐसा कहने वालों की बुद्घि पर तरस आता है।
मुख्य संपादक, उगता भारत