नागालैंड : विपक्षहीन सरकार का खतरनाक प्रयोग
डॉ. दीपक पाचपोर
नागालैंड एक आदिवासी बहुल क्षेत्र है जहां मानवाधिकार सम्बन्धी कई मसले हैं। वहां ऐसे प्रयोग जनता के खिलाफ ही जायेंगे। सीमावर्ती होने के नाते यह राज्य संवेदनशील भी है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि लोकतंत्र का जन्म ही विरोध से हुआ है। एक लम्बी लड़ाई के जरिये इंग्लैंड में राजशाही को हराकर 15 जून, 1215 को जो ‘मैग्ना कार्टा’ (नागरिक अधिकार संहिता) बनाया गया था और जिससे जनतंत्र की सही मायनों में शुरुआत हुई थी, नागालैंड का प्रयोग एक तरह से उसे मिटाने जैसा है।
राजनीति प्रयोगों का मंच है; और लोकतांत्रिक प्रणाली में प्रयोग करने के मौके खूब होते हैं। वैसे तो हमारे राजनैतिक चिंतन ने अब तक की जो यात्रा की है उसका कारण बहुतेरे प्रयोग ही हैं, फिर भी राजनैतिक प्रयोग सोच-समझकर होने चाहिये क्योंकि इनका सकारात्मक या नकारात्मक असर जनता पर होता है। ऐसे प्रयोग नहीं होने चाहिये जो लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत हों अन्यथा वे जनविरोधी साबित होंगे। चूंकि राजनैतिक प्रयोग सरकारों एवं सियासती दलों द्वारा किये जाते हैं अत: वे निश्चित ही उन्हीं के भले में होंगे, न कि जनता के। ऐसे प्रयोगों या नवाचार के नाम पर की जाने वाली व्यवस्था की मार अंतत: जनता पर ही पड़ती है।
हमारे पूर्वोत्तर में स्थित एक महत्वपूर्ण प्रदेश नागालैंड एक खतरनाक प्रयोग कर रहा है। यहां की विधानसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले सभी दलों ने एक संयुक्त सरकार बना ली है- ‘संयुक्त लोकतांत्रिक गठबंधन’ के नाम से। मुख्यमंत्री नेफियू रियो की अध्यक्षता में हुई बैठक में विपक्ष रहित सरकार बनाई गई है। इसमें सर्वाधिक सदस्यों वाली नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी, दूसरे नंबर की भारतीय जनता पार्टी, नागा पीपुल्स फ्रंट के सदस्य और निर्दलीय- सभी इस सरकार में शामिल हैं। यह प्रयोग ऊपर से तो बड़ा आकर्षक जान पड़ता है लेकिन इससे लोकतंत्र का गला घोंटे जाने का पूरा खतरा है। इसलिये इसका विरोध खुद जनता को करना चाहिये। कहा यह गया है कि इस सरकार का नागा मुद्दे पर समझौते पर जोर रहेगा परन्तु वह तो बिना किसी गठबंधन के भी सम्भव है। बड़ा खतरा यह है कि यह प्रयोग भाजपा से प्रेरित हो सकता है जो विपक्ष को एक महत्वहीन वस्तु मानती है। वही भाजपा जो राष्ट्रीय स्तर पर भी एक विपक्षविहीन देश की कल्पना करती है, जिसमें केवल वही रहे।
राजतंत्र, तानाशाही या साम्यवादी देशों की तरह एकदलीय व्यवस्था के अंतर्गत यह समझ में आता है कि वहां सत्ता पक्ष ही सब कुछ होता है, पर जिस जनतांत्रिक व्यवस्था में हम हैं उसमें विपक्ष एक अनिवार्य घटक है। विपक्ष न हो तो सरकार के विकल्प खत्म हो जाते हैं जो किसी भी समाज और देश के लिये बेहद गंभीर खतरा है। इससे सरकार की स्वेच्छाचारिता या निरंकुशता बढ़ जाती है। ऐसे वक्त में जब सभी राजनैतिक दलों से मूल्यों एवं आदर्शों का लोप हो रहा है तो विपक्ष का अभाव कहीं अधिक गंभीर खतरा बनकर उभरा है। एक छोटे से राज्य में ही सही, पर राजनीति और जनता को ऐसे प्रयोगों से बाज आना चाहिये। नागालैंड की सर्वदलीय सरकार में भाजपा का समावेश सबसे घातक है क्योंकि यही पार्टी सबसे ज्यादा विपक्षविहीन सरकार चाहती है। नागालैंड की इस सरकार में शामिल सभी दलों को केन्द्र के फैसले का समर्थन करना होगा। वैसे भी भाजपा सरकार संघवाद को नष्ट करना चाहती है। किसी राज्य में ऐसी सरकार का बनना केन्द्र को उसी दिशा में मदद करेगा। नागालैंड एक आदिवासी बहुल क्षेत्र है जहां मानवाधिकार सम्बन्धी कई मसले हैं। वहां ऐसे प्रयोग जनता के खिलाफ ही जायेंगे। सीमावर्ती होने के नाते यह राज्य संवेदनशील भी है।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि लोकतंत्र का जन्म ही विरोध से हुआ है। एक लम्बी लड़ाई के जरिये इंग्लैंड में राजशाही को हराकर 15 जून, 1215 को जो ‘मैग्ना कार्टा’ (नागरिक अधिकार संहिता) बनाया गया था और जिससे जनतंत्र की सही मायनों में शुरुआत हुई थी, नागालैंड का प्रयोग एक तरह से उसे मिटाने जैसा है। विपक्ष को समाप्त करना जनप्रतिनिधियों द्वारा अपने राजनैतिक अधिकारों के साथ जनता के भी हकों एवं स्वतंत्रता को गिरवी रखने जैसा है। लोकतंत्र की सफलता का राज सशक्त, सतर्क एवं आक्रामक प्रतिपक्ष है। यह छोटे-बड़े सभी राज्यों में विपक्ष को खत्म करने का नहीं बल्कि मजबूत करने का समय है। नाम का ही सही, पर कोरोना काल में विपक्ष न होता तो स्थिति क्या होती- यह सोचा जा सकता है। हमारे देश में भाजपा ने जो उत्तरदायित्वहीनता की परम्परा चलाई है वह विपक्ष के समाप्त होने पर और भी मजबूत होगी।
प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक प्रो. जेनिंग्स ने कहा है कि ‘यदि यह जानना हो कि देश की जनता स्वतंत्र है या नहीं, तो यह जानना आवश्यक है कि वहां विरोधी दल है या नहीं, और है तो कैसा है?’ सरकार के कामों की खामियां निकालना विपक्ष का काम है। वह सदन के बाहर भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह देखता है कि सरकार की नीतियां व कार्यक्रम ठीक से जमीन पर उतरे हैं या नहीं। सरकार जब दिग्भ्रमित हो तो उसे रास्ते पर लाना विपक्ष का संवैधानिक कर्तव्य है। विपक्ष का काम है सरकार से सवाल करना और उसे जनता के प्रति जवाबदेह बनाना। राजनीतिशास्त्र के विचारक नोल्स कहते हैं कि ‘विपक्ष का काम सरकार को परखते रहना और अंतत: उसे हटाकर सत्ता प्राप्त करना है।’
इस लिहाज से सभी पार्टियों को सत्ता में शामिल करने की बजाय सत्ता में रहते हुए विपक्षी नेताओं को महत्व एवं जिम्मेदारी देना है। इस मायने में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू आदर्श थे, जो विपक्ष का सम्मान करते थे और उन्हें सरकार की कमियां निकालने के लिये आमंत्रित व प्रोत्साहित भी करते थे। भारतीय संसदीय प्रणाली ब्रिटिश ‘वेस्टमिन्स्टर मॉडल’ पर आधारित है, जिसमें विपक्ष को बहुत अहमियत दी गई है। वहां प्रतिपक्ष का नेता ‘प्राईम मिनिस्टर इन वेटिंग’ कहलाता है। भारत की तरह उसका कोई मजाक नहीं उड़ाता। इसका कारण है कि न्यायपालिका एवं प्रेस की तरह विपक्ष नागरिक आजादी एवं अधिकारों का सबसे बड़ा रक्षक होता है। विपक्ष एवं जनता के बीच एक अघोषित संधि होती है, वह यह कि जनता विरोधी दलों को अपने समर्थन से ताकत दे और प्रतिपक्ष नागरिकों को।
ऊपरी तौर पर यह बड़ा आकर्षक लगता है कि विपक्ष न हो तो सदन का काम बगैर रोक-टोक चलेगा, शोर-शराबा नहीं होगा, बॉयकाट नहीं होंगे, नारेबाजी नहीं होगी आदि, लेकिन सबसे बड़ा नुकसान तो यह होगा कि किसी भी पार्टी के किसी भी सदस्य के लिये सवाल-जवाब, ध्यानाकर्षण या स्थगन प्रस्ताव के मौके इसलिये खत्म हो जायेंगे क्योंकि हर कोई सरकारी फैसले में शामिल है। केवल निर्दलीय सवाल करेंगे तो उनकी आवाज को सहज ही दबाया जा सकेगा। हर फैसला सर्वसम्मति से होगा तो मतभेद की गुंजाइश ही नहीं रह जायेगी।
लोकतंत्र मत विभिन्नताओं के साथ कार्य करने की प्रणाली है। सच कहें तो बगैर विपक्ष का सदन होना एक राक्षसी व्यवस्था होगी जो सत्ता का मिल-बांटकर उपभोग करने और शक्ति की बंदरबांट पर आधारित होगी। ऊपरी तौर पर तो सभी दल मिल-जुलकर काम करते दिखेंगे लेकिन भीतर ही भीतर अपनी जमीनें तैयार करते रहेंगे। विपक्ष विहीन सरकार होने से सड़कें भी खामोश हो जाएंगी क्योंकि प्रतिपक्ष द्वारा सदन के भीतर जब सरकार का विरोध निष्प्रभावी हो जाता है तो जनता सड़कों पर उतरती है; और जैसा कि राममनोहर लोहिया कहते थे कि ‘अगर सड़कें खामोश हुईं तो सदन आवारा हो जायेंगे।’ अगर हर निर्णय में सारे दल शामिल होंगे तो भला विरोध कौन और किसका करेगा? सामाजिक संगठन विरोध करेंगे तो सामूहिक राजनैतिक शत्चि उन्हें कुचल देगी। उनके विचारों एवं संघर्षों को सदन के भीतर आवाज देने वाला कोई नहीं होगा।
जनता को इस तरह के राज्य समर्थित राजनैतिक प्रयोगों का विरोध करना चाहिये क्योंकि सरकार से मोह भंग होने या उसके असफल होने पर जो विकल्पहीनता होगी उसका अंततोगत्वा नुकसान जनता को पहुंचेगा- नागरिक अधिकारों और आजादी के हनन के रूप में।
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