भारतीय स्वाधीनता का अमर नायक राजा दाहिर सेन, अध्याय – 10 राजा दाहिर सेन का बलिदान

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राजा दाहिर सेन का बलिदान

महाभारत के ‘शान्ति पर्व’ के अनुसार जो राजा समस्त प्रजा को धनक्षय, प्राणनाश और दुःखों से बचाता है, लुटेरों से रक्षा करके अपने लोगों को जीवन-दान देता है, वह प्रजा के लिये धन और सुख देने वाला परमेश्वर माना गया है। वह राजा सम्पूर्ण यज्ञों द्वारा भगवान की आराधना करके प्राणियों को अभय-दान देकर इहलोक में सुख प्राप्त करता है और परलोक में भी इन्द्र के समान स्वर्गलोक का अधिकारी होता है। भारत के राजनीतिक मनीषियों ने राजा के भीतर इन दिव्य गुणों की अपेक्षा की है। इसी से राजा और राज्य की उत्पत्ति के ‘दैवीय सिद्धांत’ की अवधारणा ने बल प्राप्त किया। कालांतर में डकैत किस्म के बादशाह या सुल्तानों ने भी अपने आपको राजा या सम्राट कहलवाना आरम्भ किया , जिससे इस सिद्धांत के आलोचकों को इसकी आलोचना करने का अवसर प्राप्त हुआ । उन्होंने भारत के सिद्धांत की ना तो समीक्षा की और ना ही उसे गहराई से समझा। बस, आलोचना के लिए आलोचना करते हुए यह कह दिया कि राजा का दैवीय सिद्धांत एक मूर्खतापूर्ण धारणा है। राजा अपनी प्रजा के लिए परमेश्वर तभी हो सकता है जब वह उसके प्रति जन कल्याण के उपरोक्त भावों से भरा हुआ हो।
ब्राह्मण की रक्षा का अवसर आने पर जो आगे बढ़कर शत्रुओं के साथ युद्ध छेड़ देता है और अपने शरीर को यूप की भाँति निछावर कर देता है, उसका वह त्याग अनन्त दक्षिणाओं से युक्त यज्ञ के ही तुल्य है। जो निर्भय हो शत्रुओं पर बाणों की वर्षा करता है और स्वयं भी बाणों का आघात सहता है,उस क्षत्रिय के लिये उस कर्म से बढ़कर देवता लोग इस भूतल पर दूसरा कोई कल्याणकारी कार्य नहीं देखते हैं। युद्धस्थल में उस वीर योद्धा की त्वचा को जितने शस्त्र विदीर्ण करते हैं, उतने ही सर्वकामनापूरक अक्षय लोक उसे प्राप्त होते हैं। समरभूमि में उसके शरीर से जो रक्त बहता है, उस रक्त के साथ ही सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। युद्ध में बाणों से पीड़ित हुआ क्षत्रिय जो-जो दुःख सहता है, उस-उस कष्ट के द्वारा उसके तप की ही उत्तरोत्तर वृद्धि होती है; ऐसी धर्मज्ञ पुरुषों की मान्यता है।

भगवान की भांति लोक का रक्षक हो जो भूप।
सच्चा शासक है वही है भगवन का रूप ।।

जैसे समस्त प्राणी बादल से जीवनदायक जल की इच्छा रखते हैं, उसी प्रकार शूरवीर से अपनी रक्षा चाहते हुए डरपोक एवं नीच श्रेणी के मनुष्य युद्ध में वीर योद्धाओं के पीछे खड़े रहते हैं। अभयकाल के समान ही उस भय के समय भी यदि कोई शूरवीर उस भीरू पुरुष की सकुशल रक्षा कर लेता है तो उसके प्रति वह अपने अनुरूप उपकार एवं पुण्य करता है। यदि पृष्ठवर्ती पुरुष को वह अपने-जैसा न बना सके तो भी पूर्व कथित पुण्य का भागी तो होता ही है।

भारत में क्षत्रियों का अकाल कभी नहीं पड़ा

जिस देश का क्षत्रिय धर्म इतनी वीरता और देश भक्ति से भरा हुआ हो, उस देश के किसी काल के लिए भी यह नहीं कहा जा सकता कि उसमें अमुक काल में क्षत्रियों का अकाल पड़ गया था ? भारत में तो क्षत्रियों का अकाल पड़ने की कल्पना तक नहीं की जा सकती। क्योंकि यहाँ तो धर्म और धार्मिक व्यवस्था के अंतर्गत अपने आप क्षत्रियों की पैदावार होती रहती है। भारत की वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत क्षत्रिय वर्ण भारतीय धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए बोया जाने वाला एक ऐसा खेत है जो हर मौसम में देश रक्षा की फसल उत्पादित करता है।

क्षत्रिय विहीन कभी ना रहा अपना भारत देश।
दु:ख दर्द हरता रहा जग के हरे क्लेश ।।

भारत के राजाओं के विदेशी आक्रमणकारियों से होने वाले संघर्ष को महाभारत की उपरोक्त व्यवस्था की कसौटी पर कसकर ही हमको देखना चाहिए और तब ही यह निर्णय लेना चाहिए कि हमारे राजाओं ने क्षत्रिय धर्म का निर्वाह करते हुए कभी आलस्य, प्रमाद या कायरता का प्रदर्शन तो नहीं किया ? यदि वास्तव में हमारे राजाओं ने कहीं ऐसा प्रदर्शन किया है तो उन्हें उसी दृष्टिकोण से इतिहास में स्थान देना चाहिए और यदि उन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों का सामना पूरी निष्ठा और देशभक्ति की भावना को अपनाकर किया है तो सिर्फ उनके गुणगान करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं बरतना चाहिए।

राजा चल दिए युद्ध क्षेत्र की ओर

जिस समय देवल पर मोहम्मद बिन कासिम की सेना का आधिपत्य हुआ, उस समय राजा दाहिर सेन अलोर में थे। जैसे ही राजा को युद्ध क्षेत्र की वास्तविक जानकारी प्राप्त हुई वैसे ही वह अलोर के किले की देखभाल का दायित्व तप, त्याग, देशभक्ति और वीरता की प्रतिमूर्ति अपनी रानी लाडीबाई पर छोड़कर युद्धक्षेत्र के लिए चल पड़े। राजा ने बिना देरी किए अवसर को पहचान लिया। उनके पास इस समय अपने पुत्र राजकुमार जयशाह (जिनको कुछ इतिहासकारों ने जयसिंह तो कुछ ने जयसिम्हा भी लिखा है ) के प्रति ममता भाव दिखाने का भी समय नहीं था। क्योंकि यदि वह ऐसा करते तो उनका पुत्रमोह उनसे राष्ट्र धर्म का सम्यक निर्वाह नहीं करने देता। राजा के साथ उनकी सेना भी युद्ध भूमि की ओर बढ़ती जा रही थी।
राजा के मन मस्तिष्क में अनेकों प्रकार के विचार उमड़ घुमड़ रहे थे। जहाँ देश के गद्दारों के प्रति राजा इस समय क्रोधाग्नि में जल रहे थे, वहीं शत्रु के दुस्साहस को अपने लिए एक बड़ी चुनौती मान कर उसका फन कुचलने की योजनाओं पर भी वे विचार करते चल रहे थे। राजा के चेहरे पर जहाँ शत्रु विनाशक तेज दमक रहा था वहीं रह-रहकर चिन्ता की लकीरें भी उभरकर आ रही थीं जो यह स्पष्ट कर रही थीं कि राजा अपने लोगों की गद्दारी को लेकर व्यथित भी थे। राजा के लिए यह समय आत्ममंथन का था। अपने आप से बतिया ने का था । भारत के गौरवपूर्ण अतीत पर भी मनन करने का था। जिसमें अब से पूर्व ऐसा कभी नहीं हुआ जब गद्दारों ने राष्ट्र के साथ इतनी बड़ी गद्दारी की हो ?

राष्ट्रप्रेम दिया विश्व को दिया धर्म का भाव।
वसुधा ही परिवार है दिया ममता का भाव।।

भारत के गौरवपूर्ण अतीत से वर्तमान के शर्मनाक दौर तक जब वह चिंतन करते तो उनके अंतर्मन में एक बिजली सी कौंध जाती थी। उन्हें नहीं लगता था कि भारत जैसे देश में भी गद्दार पैदा हो सकते हैं? जिस देश ने संसार को राष्ट्रप्रेम सिखाया है, धर्म की भक्ति सिखाई है और मानवता के प्रति समर्पण का भाव सिखाया है – उस देश में स्वार्थलोलुप, धनलोलुप और नीच पातकी राष्ट्रद्रोही लोग हो सकते हैं, ऐसा तो कभी सपने में भी नहीं सोचा गया था।

राजा पहुँचे युद्ध भूमि में

राजा यथाशीघ्र अपने उन सैनिकों के मध्य आ उपस्थित हुए जो शत्रु सेना से संघर्ष करते हुए अब बहुत कम मात्रा में रह गए थे । अपने सैनिकों के मध्य पहुंचकर राजा ने मन ही मन अपने उन दिवंगत सैनिकों और माँ भारती के सच्चे सपूतों को श्रद्धांजलि अर्पित की जो शत्रु से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे। इसके बाद उन्होंने अपने इष्ट देव से हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि वह उन्हें लड़ने की शक्ति प्रदान करे और उनके वीर सैनिकों का जो बलिदान हुआ है ; उसका प्रतिशोध लेने की अपार शक्ति प्रदान करे। उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की कि जो भी लोग इस धर्म क्षेत्र में दिवंगत हो चुके हैं, उन्हें अपने श्री चरणों में स्थान दें और उनकी आत्मा की शांति के लिए हमें इतनी शक्ति, इतना बल, इतना धैर्य और संयम प्रदान करें कि हम शत्रु को युद्ध के मैदान से मार भगाएं और अपने राष्ट्र की सेवा करने में सफल हों।
राजा दाहिर सेन को अपने मध्य पाकर उनके सैनिकों का उत्साह भी दोगुना हो गया । उन्हें राजा की उपस्थिति से अपारशक्ति मिली। अभी हाल ही में जो साथी वीरगति को प्राप्त हो गए थे उनके बलिदान का प्रतिशोध लेने की भावना उनमें और भी अधिक बलवती हो उठी। उनके भीतर शत्रु के प्रति क्रोध ही था और आक्रोश भी था । वह चाहते थे कि शत्रु ने जो उनके साथ किया है उसका कठोर दंड उसे मिलना चाहिए। इसके लिए चाहे उन्हें अपने प्राण भी गंवाने पड़े तो भी उन्हें कोई चिंता नहीं थी। ऐसे ही भाव उनके ज्ञानबुद्ध और उसके विश्वासघाती साथियों के प्रति भी थे। जिन्होंने अपने राजा, अपने देश, अपने धर्म और अपनी संस्कृति के विरुद्ध अक्षम्य अपराध किया था।

राजा ने किया अपने सैनिकों का उत्कृष्ट मार्गदर्शन

राजा ने अपनी सेना के वीर सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा कि – ” मेरे वीर सैनिको ! माँ भारती के ऋण से उऋण होने के हमारे लिए यह सबसे पवित्रतम अवसर है । आज हम जिस परीक्षा के लिए यहाँ खड़े हैं वह हमारे जीवन की अंतिम परीक्षा भी हो सकती है । हमें धैर्य, साहस और शौर्य का प्रदर्शन करते हुए शत्रु के साथ संघर्ष करना है । हमें यह समझ लेना चाहिए कि क्षत्राणियां जिस समय के लिए अपने क्षत्रिय पुत्रों को जन्म देती हैं, वह समय हमारे लिए आ चुका है। देश व धर्म की रक्षा हमारे जीवन का व्रत है और यदि हमने अपने इस व्रत के निर्वाह में में किसी भी प्रकार का प्रमाद किया तो आने वाली पीढ़ियां हमें क्षमा नहीं करेंगी।

धैर्य, साहस, शौर्य जिसमें गुण ये तीन।
वही जगत में है बड़ा कहलाता बलशील।।

हमें शत्रु से कभी भी यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वह हमारी स्वाधीनता को किसी प्रकार की चुनौती नहीं दे पाएगा और हमें बिना परेशान किये यहाँ से स्वदेश लौट जाएगा। उसने हमारी स्वाधीनता को हड़पने के लिए अब से पहले कई प्रयास किए हैं और हर प्रकार के हथकंडे को अपनाने का प्रयास किया है । उसकी चाल , छल – बल आदि सभी को ध्यान में रखकर हमें एकताबद्ध होकर शत्रु को पराजय देनी है ।
माँ भारती के सच्चे सपूतो ! हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि स्वाधीनता की रक्षा के लिए बलिदान देने पड़ते हैं और हमारा इतिहास बलिदानी परम्परा का इतिहास है । आज जब फिर बलिदान देने की यह शुभ घड़ी आ गई है तो हमें बलिदान देने से पीछे नहीं हटना है ।हर स्थिति में हमें माँ भारती की स्वाधीनता की रक्षा के लिए कठोर उद्योग करना होगा । हमारे जो साथी शत्रु के साथ युद्ध करते हुए बलिदान हुए हैं उनके बलिदान के सम्मान के लिए भी हमें दोगुने उत्साह से शत्रु पर टूटना होगा। इसके अतिरिक्त हमारे प्रजाजनों पर शत्रु ने जिस प्रकार अत्याचार किए हैं उनका प्रतिशोध लेने के लिए भी अब उचित अवसर आ चुका है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि आज का युद्ध बहुत ही निर्णायक युद्ध होगा ।
आपकी कीर्ति युग युगों तक रहेगी और आने वाली पीढ़ियां आपके साहस और शौर्य पर गर्व और गौरव की अनुभूति कर सकेंगी। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि जब गद्दारों ने अपनी गद्दारी दिखाने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है तब आप जैसे कर्तव्यनिष्ठ राष्ट्रभक्त योद्धाओं के कारण हम युद्ध में विजयी होने जा रहे हैं। हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि यदि हमें वास्तव में अपनी स्वाधीनता की रक्षा करनी है तो हमको खून के दरिया से गुजरने के लिए तैयार रहना चाहिए। बिना खून के दरिया को पार किये स्वाधीनता के स्वर्णिम सपने को साकार नहीं किया जा सकता।
मेरे वीर सैनिको ! हमने अपना घर छोड़कर युद्ध भूमि को इसीलिए प्रणाम किया है कि हम अपनी स्वाधीनता के प्रति सजग व सावधान हैं। यदि शत्रु हमारी स्वाधीनता का हन्ता नहीं होता तो सम्भवत: हमें अपने घर भी छोड़ने ना पड़ते। हम सब मिलकर अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए युद्ध करेंगे। जो लोग हमारे धर्म का विनाश करने के लिए इतनी दूर से चलकर यहाँ आए हैं उनका स्वागत हम अपनी तलवारों से करेंगे और उनके सिरों को उतारकर माँ भारती की गोद में समर्पित कर उनका उचित सत्कार करेंगे। याद रहे हमारे दरवाजे पर हर आने वाला आगंतुक अतिथि नहीं होता।

दुर्भाव ह्रदय में पालकर जो भी आवे पास।
अतिथि वह होता नहीं जो तेरा चाहे नाश।।

अतिथि यदि किसी दुर्भाव को लेकर हमारे दरवाजे पर आया है तो वह उस दुर्भाव के चलते हमारे लिए शत्रु है, मित्र नहीं। अतिथि का सत्कार करना जहाँ हमारी परम्परा है वहीं मित्र भाव से इतर दुर्भाव को अपने हृदय में संजोकर चलने वाले राक्षस का संहार करना भी हमारी परम्परा रही है। इस समय हमें जो कुछ भी करना है अपने देश के लिए करना है, उसके लिए चाहे हमको जो बलिदान देना पड़े हम उसे देने से पीछे नहीं हटेंगे।
मेरे देशभक्त वीर साथियों !
प्राचीन काल से हमारा देश विश्व का नेतृत्व करता आया है । आज जो शक्तियां विश्व गुरु भारत के नेतृत्व को छीनने की तैयारी कर रही हैं, उनको समय रहते हमें समाप्त करना होगा, अन्यथा भारत का सम्मान धूमिल हो जाएगा। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जो शक्तियां अपना मत हम पर थोपना चाहती हैं उस मत के भीतर ऐसी कोई विशेषता नहीं है जिससे उसे ‘धर्म’ कहा जा सके। क्योंकि वैदिक धर्म के इतर जितने भी मत मतान्तर इस समय धरती पर चल रहे हैं वे सब मिलकर भी वैदिक धर्म और संस्कृति की महानता की बराबरी नहीं कर सकते।
आपने अपने महान पूर्वजों की बलिदानी परम्परा का निर्वाह करते हुए अभी तक अनेकों बलिदान दिए हैं। परन्तु शत्रु की योजना के दृष्टिगत अभी यह नहीं कहा जा सकता कि हमारे बलिदानों की यह परम्परा रुक गई है, अपितु यही कहा जाएगा कि अभी हमें और भी बलिदान देने के लिए तैयार रहना चाहिए।”

राजा की सेना थी ‘आजाद हिन्द फौज’

वास्तव में राजा दाहिर सेन की यह फौज उस समय की नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज थी। जो भारत की आजादी के लिए लड़ रही थी। राजा दाहिर सेन स्वयं नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की भूमिका में थे। अपने इन वीर सैनिकों को सम्बोधित करते हुए उनके शब्द चाहे जो रहे हों, परन्तु अपने सैनिकों के प्रति उनके शब्दों का आशय उस समय केवल एक ही था कि ”तुम मुझे खून दो’ मैं तुम्हें आजादी दूंगा।” इस प्रकार भारत में “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” – की परम्परा बहुत पुरानी है।
राजा ने अपने सैनिकों से खून मांगा तो एक साथ हजारों हाथ ऊपर आ गए जो ‘राजा दाहिर सेन की जय’ , ‘सिंधु देश की जय’ – के उद्घोष के साथ यह कह रहे थे कि हम माँ भारती की रक्षा के लिए अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान देने के लिए तैयार हैं। इससे पहले हम यह भी वचन देते हैं कि जिन विदेशी आक्रमणकारियों ने माँ भारती की पवित्रता को भंग करते हुए भारत की धरती पर अपने कदम रखने का दुस्साहस किया है, उस राक्षस सेना के अनेकों सैनिकों को भी हम दोजख की आग में धकेल देंगे।

सैनिकों ने आरम्भ किया शत्रु संहार

राजा के ओजस्वी भाषण को सुनने के पश्चात हमारे वीर सैनिकों ने शत्रु सेना का संहार करना आरम्भ किया। आज हमारे वीर योद्धा माँ भारती की स्वाधीनता के लिए जिस उत्साह और उमंग के साथ लड़ रहे थे उसे देखकर मानो देव भी प्रसन्न होकर उन पर पुष्प वर्षा कर रहे थे। उनकी वीरता, शौर्य और प्रताप देखते ही बनता था। कोई भी व्यक्ति आज इन वीरों को देखकर यही कह सकता था कि इनकी इस युद्ध में इनकी विजय अवश्यंभावी है। हमारे वीर सैनिकों के भीतर जहां अपने राजकुमार के घायल होने का दुख था, वही अपने वीर सैनिक साथियों के बलिदान पर गर्व और गौरव की अनुभूति भी साथ में जुड़ी थी। इसके अतिरिक्त राजा की उपस्थिति उनके उत्साह और उमंग को द्विगुणित कर रही थी। हमारे सैनिक चाहे संख्या बल में आज कुछ कम हो गए थे, परन्तु उन्हें अपनी संख्या पर नहीं अपने साहस और पराक्रम पर विश्वास अधिक था। वैसे भी इतिहास का यह एक कटु सत्य है कि युद्ध संख्याबल से नहीं बल्कि आत्मिक बल से लड़े जाते हैं।

संख्या बल से कभी नहीं जीती जाती जंग।
जंग वही है जीतता जो धर्म का पकड़े संग।।

इतिहासकारों का कहना है कि कई दिनों के भयानक युद्ध के बाद कासिम की क्रूरता से भयभीत राजा दाहिर के मन्त्री ने जब शान्ति सन्धि की बात की तो दाहिर ने कहा, “उनसे कैसी शान्ति सन्धि ? वे हमारी स्त्रियों का बलात्कार कर रहे हैं, उनको लूटकर अरब के बाजार में बेच रहे हैं, हमारे मन्दिरों को मस्जिद बना रहे हैं और हिन्दुओं को जबरन तलवार के बल पर मुसलमान बना रहे हैं और इंकार करने पर मौत के घाट उतार दे रहे हैं।”
इस प्रकार राजा ने स्पष्ट कर दिया कि भारतीय धर्म और संस्कृति को मिटाने के लिए युद्ध कर रहे लोगों के साथ किसी प्रकार की सन्धि या समझौता नहीं हो सकता। राजा के लिए यह इसलिए भी सम्भव नहीं था कि जिन लोगों के बलिदान अब तक हो चुके थे उन्हें समझौता करके राजा व्यर्थ नहीं जाने देना चाहते थे । राजा ने यह मन बना लिया था कि यदि अब पराजय भी होने जा रही है तो मौत की कीमत पर उसे भी स्वीकार किया जाएगा , परन्तु जलालत की कीमत पर संधि नहीं खरीदी जाएगी ।
यह भी कहा जाता है कि एक मंत्री के द्वारा संधि की बात कहने पर राजा ने आवेश में आकर अपने उस मन्त्री की गर्दन ही काट दी। ऐसा करके राजा ने उन लोगों को कड़ा संदेश दे दिया था जो बार-बार राजा को सन्धि या समझौता करने की बिन मांगी सलाह दे रहे थे। राजा ने स्पष्ट कर दिया कि अब परिणाम चाहे जो हो परंतु शत्रु के सामने ना तो सिर झुकाया जाएगा और ना ही उससे संधि या समझौता करने की याचना की जाएगी। क्योंकि अदीन होकर जीवन जीना वेद की संस्कृति का संदेश है। हमारी अदीनता किसी प्रकार की अधीनता को स्वीकृति नहीं देती।

शत्रु ने फिर किया छल

शत्रु ने अपघात करके गद्दारों के साथ मिलकर भारतीय सैनिकों पर रात्रि के गहन अंधकार में चाहे जैसे अत्याचार ढहाए हों , पर युद्ध के मैदान में भारत की वीरता और पराक्रम को देखकर शत्रु पक्ष में त्राहिमाम मच गई। उन्हें दिन में तारे दिखाई दे गए और यह लगने लगा कि यदि आज भारतीय सैनिक इसी प्रकार का पराक्रम दिखाते रहे तो युद्ध के मैदान से शत्रु पक्ष का लौटना सर्वथा असंभव है।
ऐसे बहुत कम अवसर रहे हैं जब कोई भी तुर्क, मुगल या अंग्रेज भारत के पराक्रम से सीधे-सीधे युद्ध के मैदान में विजयी हुआ हो। अधिकांश लड़ाइयां ऐसी रही हैं जिनमें विदेशी आक्रमणकारी किसी छल, कपट या धोखे से भारतीय पराक्रम के सामने विजयी हुआ है। भारत के पराक्रम को छल ,कपट और धोखे से पराजित करके स्वयं को विजयी घोषित कराने की परम्परा का नाम ही भारत में सल्तनत काल, मुगल काल या ब्रिटिश काल है। विदेशी आक्रमणकारियों की इसी परम्परा का निर्वाह इन सबके ‘दादा गुरु’ मोहम्मद बिन कासिम ने भी किया था।
कई इतिहास लेखकों का कहना है कि 20 जून 712 को मोहम्मद बिन कासिम ने अपनी सेना के अनेकों सैनिकों को हिन्दू महिलाओं के कपड़े पहनाए।
मोहम्मद बिन कासिम को यह भली प्रकार ज्ञात था कि हिन्दू सेनानायक या सैनिक कभी भी महिलाओं पर अस्त्र शस्त्र का प्रयोग नहीं करेंगे । यदि वे महिलाएं उनके सामने सहायता की पुकार करने लगेंगी तब तो वह उन्हें निश्चय ही सहायता देना अपना धर्म समझेंगे।
इस राक्षस की यह योजना पूर्ण से सफल सिद्ध हुई।
इस योजना के अन्तर्गत तथाकथित हिन्दू महिलाओं ने रोना पीटना आरम्भ कर दिया और वे सभी राजा दाहिर सेन के सामने आकर मुस्लिम सैनिकों से अपनी प्राण रक्षा की गुहार करने लगीं। अपने मानवीय सिद्धांतों के प्रति पूर्ण निष्ठा के साथ बंधे हुए राजा ने धोखे को सच समझ लिया। जिस कारण राजा दाहिरसेन उन हिन्दू महिला वेशधारी मुस्लिम सैनिकों की सहायता के लिए उतावले हो उठे।

राजा धोखा खा गया, बीच युद्ध के खेत ।
सद्गुण दुर्गुण बन गया अब नहीं सकता चेत।।

राजा ने इन महिलाओं की प्राण रक्षा के लिए उन्हें अपने सैनिकों के घेरे में ले लिया और अपनी सेना के बीचोंबीच एक ऐसे सुरक्षित स्थान पर भेज दिया जहाँ उनके लिए कोई किसी प्रकार का संकट नहीं हो सकता था। परन्तु यह क्या ? हिन्दू महिलाओं के रोने की आवाज अभी भी राक्षस सेना की ओर से आती जा रही थी। राजा ने सोचा कि इसका अर्थ यह है कि शत्रु पक्ष में अभी और कुछ हिन्दू महिलाएं हैं, जो उसके चंगुल में फंसी हुई हैं । जिन्हें छुड़वाना आवश्यक है।फलस्वरूप राजा ने उन महिलाओं को भी खोजना आरम्भ कर दिया जो राक्षस सेना की कैद में रहकर रोने की आवाज निकाल रही थीं।
राजा ने अपने बड़े सैन्य अधिकारियों को इन तथाकथित महिलाओं के पास तक जाने का आदेश दिया। जिससे राजा के सैनिक और बड़े अधिकारी मिलकर उन महिलाओं के खोजी अभियान में लग गए। स्पष्ट है कि इस प्रकार के खोजी अभियान से राजा का विजय अभियान रुक गया । शत्रु राजा का ध्यान भंग कर दूसरी ओर फेरने में सफल हो गया। भोले राजा को क्या पता था कि वह किसी निरपराध व निरीह महिला को नहीं ढूंढ रहे हैं अपितु अपनी मौत को ही अपने आप ढूंढ रहे हैं?
राक्षस की इस षड़यंत्रपूर्ण योजना से राजा का ध्यान भंग हो गया। वह अब अपनी विजय के लिए लड़ाई ना लड़कर इन महिलाओं की प्राणरक्षा के लिए लड़ाई लड़ रहे थे। जिससे उनकी सेना का अनुशासन भी शिथिल पड़ गया। अपनी सेना के बीच में जिन महिलाओं को उन्होंने भेजा था वह तो शत्रु थे ही साथ ही अभी जिन तथाकथित महिलाओं की ढूंढ की जा रही थी, वह और भी बड़े शत्रु थे। राजा और उनकी सेना के सैनिकों को यह भ्रांति हो गई थी कि शत्रु कहीं से हमारी हिन्दू महिलाओं को अपनी कैद में लेने में सफल हो गया है। जिससे उन्हें यह लगा कि इन सभी हिन्दू महिलाओं की प्राणरक्षा करना इस समय उनका सर्वोपरि कर्तव्य है।
राजा अब इन तथाकथित महिलाओं की खोज में अकेले पड़ गए थे। उनके सैनिक इधर-उधर दूसरे भागों में शत्रु से लोहा ले रहे थे । शत्रु की चाल अब सफल हो चुकी थी । क्योंकि वह इसी क्षण की प्रतीक्षा में था, जब राजा अकेला हो । फलस्वरूप शत्रु दल के अनेक सैनिकों ने राजा को घेर लिया। राजा के हाथी पर भी अग्नि बाणों की वर्षा की जाने लगी। जिससे हाथी विचलित हो गया और युद्ध के मैदान में बनी किसी खाई में जाकर गिर गया। शत्रु को मानो इसी पल की प्रतीक्षा थी। क्योंकि अब वह हाथी से अलग पड़े राजा पर प्राणलेवा हमले करते हुए टूट पड़ा था।

राजा का दु:खद अन्त

अकेले राजा कब तक इन राक्षसों के भालों के वारों को सहन करते ? यद्यपि राजा अपनी वीरता का प्रदर्शन करते हुए इस अत्यंत विषम परिस्थिति में भी शत्रुओं के साथ बहुत देर तक संघर्ष करते रहे। पर अन्त में वह दुर्भाग्यपूर्ण क्षण आ ही गए जब राजा गम्भीर रूप से घायल होकर धरती पर गिर पड़े और सदा – सदा के लिए माँ भारती की गोद में एक वीर बलिदानी सपूत की भांति सो गए। गिरने से पहले शत्रु के अनेकों प्रहारों से उनका शरीर बहुत बुरी तरह क्षत-विक्षत हो चुका था।

भारत मां की गोद में सो वगया एक सपूत।
मातम छा गया देश में ‘आज’ बना जब ‘भूत’।।

वास्तव में आज जो शरीर धरती पर गिरा था वह किसी छोटे-मोटे सैनिक या योद्धा का शरीर नहीं था, वह भारत के एक अप्रतिम और महान योद्धा का शरीर था, जो उस समय देश ,धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाकर युद्ध कर रहा था। राजा दाहिर सेन का धरती पर गिरना मानो भारत के दुर्भाग्य का द्वार खुलना था। मोहम्मद बिन कासिम भारत पर आक्रमणकारी के रूप में आया, यह कोई बड़ी बात नहीं थी, क्योंकि ऐसे आक्रमणकारी तो उससे पहले भी आए थे और चले गए थे ,पर एक दाहिर सेन जैसे योद्धा का धरती पर गिरना बहुत बड़ा दुर्भाग्य और विडंबनापूर्ण घटना थी। क्योंकि वह योद्धा ऐसे अनेकों मोहम्मद बिन कासिमों को भारत की ओर आंख तक उठाने से रोकने की क्षमता रखता था, वह तूफानों का मुंह मोड़ने की भी क्षमता रखता था, वह चुनौतियों से खेलना जानता था और चुनौतियों का प्रत्युत्तर देने में भी हर प्रकार से सक्षम था। सचमुच जिस देश के पास से ऐसा बहादुर योद्धा चला जाए उसके लिए इससे बड़ी दुखद घटना और कोई हो नहीं सकती।
राजा के धरती पर गिरते ही दिशाएं मौन हो गईं। हवाएं शांत हो गईं। अस्त होते सूर्य ने भी अपने धीमे होते प्रकाश के माध्यम से मानो राजा के प्रति अपने भावों की अभिव्यक्ति करते हुए कहा कि – राजन ! तुम्हारे रहते हुए भारत का तेज सुरक्षित था। अब जैसे पश्चिम दिशा के अंक में समाते हुए मेरा तेज क्षीण हो रहा है, वैसे ही आज से भारत का तेज ही क्षीण होना आरम्भ हो जाएगा। मैं यह तो नहीं कहता कि आपके प्रयाण से माँ भारती की कोख खाली हो जाएगी, परन्तु इतना अवश्य कहता हूँ कि आज माँ भारती की गोद अवश्य खाली है । जिससे आप जैसे महा योद्धा की कमी का एहसास देर तक लोगों को चुभता रहेगा।
शत्रु का हमलावर होकर आना एक चुनौती होती है, जिससे हमारे साहस और शौर्य की परीक्षा ली जाती है। ऐसी परीक्षाओं का आयोजन होता रहना चाहिए। भारत इन परीक्षाओं से भागने वाला भी नहीं है। पर दु:ख उस समय होता है जब इन चुनौतियों का सामना करने वाले योद्धाओं को घेरकर छल और बल से मारा जाता है और इतिहास इस प्रकार घेरकर मारने के अपराध पर ताली बजा देता है। राजा दाहिर सेन के बलिदान के सम्बन्ध में इतिहास का गला घोंट दिया गया। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी के 75 वर्ष बीत जाने के उपरान्त भी इतिहास के गले की फांस खोली नहीं गयी है।

‘हिन्दू महिलाओं’ ने मचाया उत्पात

जैसे ही राजा ने वीरगति प्राप्त की वैसे ही वे सारे मुस्लिम सैनिक जो हिन्दू महिलाओं के रूप में राजा दाहिर सेन की सेना के बीच में शरणागतों के रूप में खड़े थे, हमारे सैनिकों पर भूखे भेड़ियों की तरह टूट पड़े। इससे पहले कि हमारे सैनिक उन राक्षसों की वास्तविकता को समझ पाते वे हमारे सैनिकों की बड़ी संख्या में हत्या कर चुके थे। ज्ञानबुद्ध ने जिस गद्दारी का इतिहास रचना आरम्भ किया था, उस गद्दारी का एक और अध्याय इस प्रकार लिखकर इन तथाकथित हिन्दू महिलाओं ने पूरा कर दिया।

छलिया आए सामने धार के असली रूप।
हिंद सिंध की फौज पर आ पड़ी आफत टूट।।

अपने राजकुमार जयशाह के घायल होने और जंगलों की ओर चले जाने की सूचना से हमारी सेना को पहली चोट लगी थी, उसके पश्चात ज्ञानबुद्ध की गद्दारी ने सैनिकों के मनोबल को दूसरी बार तोड़ा और अब इस तीसरे छल ने उन्हें बहुत अधिक तोड़कर रख दिया था। अपने राजा को मृत देखकर सिन्ध के वीर सैनिक यद्यपि दिखाने के लिए तो अब भी युद्ध कर रहे थे ,परन्तु अब उनका पहले जैसा उत्साह नहीं रहा था।
बहुत बड़ी संख्या में हमारे सैनिकों को आत्मबलिदान देना पड़ा। यद्यपि इस सबके उपरान्त भी हमारी सेना ने युद्ध के मैदान में रहकर ही वीरगति को प्राप्त करना उचित माना। युद्ध से पीठ दिखाकर भागना भारत के वीरों ने कभी सीखा नहीं। यही कारण था कि मृत्यु को अवश्यम्भावी देखकर भी हमारे वीर योद्धा युद्ध क्षेत्र में खड़े होकर धर्म के लिए धड़ाधड़ अपना बलिदान देने को ही अपना गौरव समझने लगे।

गद्दारों के साथ हुई ‘गद्दारी’

अब शत्रु के लिए देवल में प्रवेश करना बहुत सरल हो चुका था। हमारे वीर योद्धाओं की सेनाओं को काटकर अरब के निर्दयी आक्रान्ता शहर में प्रवेश कर लोगों को लूटने ,मारने व काटने लगे। भारत की वीर परम्परा में निर्दोष और निरपराध लोगों पर हथियार उठाना पूर्णतया प्रतिबंधित माना गया है। अरब के आक्रमणकारियों के यहाँ युद्ध में सब कुछ उचित माना गया है। लूट के उनके क्रियाकलाप में यदि कोई भी उनके बीच में आया तो उसे मारना उन्होंने अपना धर्म समझा। इसका कारण केवल एक था कि उनका मजहब उन्हें काफिरों को लूटना ,मारना और काटना सिखाता था , जबकि हमारा मानवतावादी वैदिक धर्म हमें लूटने ,मारने व काटने की किसी भी स्थिति में अनुमति प्रदान नहीं करता था।
जिस बौद्ध धर्म को अपनाकर ज्ञानबुद्ध का ज्ञान लुप्त हो गया था और वह देश के साथ गद्दारी करते हुए यह मान बैठा था कि यदि वह मुस्लिम आक्रमणकारियों का साथ देगा तो मुस्लिम आक्रमणकारी युद्ध के उपरान्त बौद्धों के साथ न्याय का व्यवहार करेंगे, मुस्लिमों से उसकी यह आशा व अपेक्षा उस समय भंग हो गई जब अरब आक्रमणकारी सिन्ध की राजधानी देवल में प्रवेश करने के उपरान्त बौद्धों को भी उसी निर्ममता से मारने लगे जिस निर्ममता से वह हिन्दुओं का विनाश कर रहे थे। अरब आक्रान्ताओं ने सभी बौद्ध विहारों और हिन्दू मन्दिरों को नष्ट कर दिया। बौद्ध विहारों में बैठे अनेकों धर्माचार्यों और उनके सेवकों का भी मुस्लिमों की तलवार ने सफाया कर दिया।
अहिंसा की चादर ओढ़े बैठे यह सारे मरने वाले बौद्ध वही थे जो थोड़ी देर पहले तक यह मानकर चल रहे थे कि मुस्लिम आक्रमणकारी उनसे कुछ नहीं कहेंगे। निहित स्वार्थ में डूबे ये लोग उस समय यह भूल गए थे कि इस्लाम की तलवार जब चलती है तो दूसरों को केवल काफिर के रूप में देखकर उसके सिर को धड़ से अलग करना ही अपना परम कर्तव्य मानती है। भारतीय इतिहास की प्रमुख घटना से आज के बौद्ध धर्म और नवबौद्धों अर्थात हरिजनों को भी शिक्षा लेनी चाहिए, जो इस्लाम के निकट जाकर मुस्लिम कट्टरता को भारत में प्रोत्साहित कर रहे हैं और मुस्लिमों को अपना सबसे अधिक हितैषी मान रहे हैं। मोहम्मद बिन कासिम को अपना आदर्श मानने वाले लोग कभी भी इन नवबौद्धों के हितैषी नहीं हो सकते।

शिक्षा लो इतिहास से सुबह शाम बस एक।
अतीत जिनका है बुरा नहीं हो सकते नेक।।

कहा जाता है कि उस समय विदेशी आक्रमणकारियों की इस निर्मम सेना ने पूरे के पूरे शहर को जलाकर राख कर दिया था । लोगों के पास जो भी जेवर, धन माल आदि प्राप्त हुआ वह सब इन विदेशी लुटेरों द्वारा लूट लिया गया और अपने देश भेज दिया गया। हजारों महिलाओं के साथ ऐसे पाशविक अत्याचार किए गए कि जिन्हें लेखनी लिख भी नहीं सकती। इस्लाम की खूनी तलवार ने ना तो महिलाओं को देखा, ना वृद्धों को देखा और ना ही बच्चों को देखा। जितने भी अत्याचार किए जा सकते थे वह सब किए गए। कितने ही लोगों का बलात धर्मांतरण कर मुसलमान बना लिया गया । जबकि अनेकों महिलाओं को अपनी रखैल बनाकर मुस्लिमों की यह लुटेरी सेना अपने साथ ले गई। इनमें से अनेकों हिन्दू व बौद्ध ललनाएं मुस्लिम धर्मगुरु खलीफा के पास भी भेज दी गईं।
हमें याद रखना चाहिए कि भारत के लोगों पर ये अमानवीय अत्याचार तब हुए जब हमारा वीरनायक, देशभक्त राजा और परम प्रतापी शासक दाहिर सेन हमारे बीच नहीं रहा। उसके रहते हमारे लोगों के प्राण संकट में नहीं थे। क्योंकि वह हम सबका रक्षक बना खड़ा था और बहुत ही सावधानी और दूरदर्शिता के साथ विदेशी आक्रमणकारियों के हर उस कार्य पर अपनी गहरी और पैनी नजर रखे हुए था जो हमारे देशवासियों के लिए खतरे का संकेत हो सकता था।

राजा दाहिर सेन के प्रति श्रद्धांजलि

आज जो महामानव माँ भारती की सेवा में बलिदान हुआ था और जिसका शव आज धरती पर पड़ा हुआ था, वह किसी साधारण व्यक्ति का शव नहीं था। वह देशरक्षक, धर्म-रक्षक, प्रजारक्षक और संस्कृति रक्षक एक ऐसे महायोद्धा का शव था जो अभी तक हम सब की ढाल बनकर देश की रक्षा कर रहा था। उसका गिरना हम सबके लिए बहुत ही अधिक दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुआ। इतिहास की गर्द में आज चाहे उसे कितना ही दाब दिया गया हो, परन्तु जैसे-जैसे अब यह गर्द साफ होती जा रही है, वैसे – वैसे ही हमें उसके महान व्यक्तित्व और कृतित्व का बोध होता जा रहा है। राजा की महानता का परिचय इस बात से ही मिल जाता है कि यदि उस समय देश रक्षक के रूप में वह ना होते तो क्या होता ? निश्चय ही इस्लाम तब बहुत पहले इस देश में फैल गया होता और आज इस देश में वैदिक संस्कृति की यज्ञ हवन की जो परम्परा जीवित दिखाई देती है, वह संभवत: बहुत पहले समाप्त हो गई होती।
अपने ऐसे संस्कृति रक्षक, धर्म रक्षक और देश रक्षक इतिहास नायक राजा दाहिर सेन को हमारी विनम्र और भावपूर्ण श्रद्धांजलि।

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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