भारतीय स्वाधीनता का अमर नायक राजा दाहिर सेन, अध्याय – 9 (ख ) बज गई रणभेरी
बज गई रणभेरी
विश्वशान्ति के लिए उस समय बहुत बड़ा खतरा स्पष्ट मंडराता हुआ दिखाई दे रहा था। इसके उपरान्त भी मजहबी उन्माद से पगलाए हुए शत्रु दल का कोई भी नेता यह सोचने के लिए तैयार नहीं था कि वे मानवता के विरुद्ध बहुत भयंकर अपराध करने जा रहे हैं? मजहब के नाम पर अपने ही भाइयों अर्थात मानव जाति के परिवार के सदस्यों का विनाश करना पता नहीं कौन से मजहब की सेवा में आता है ? या उस समय ऐसी सेवा की परिधि में आ रहा था ? इसका निर्धारण करने के लिए भी कोई वैज्ञानिक बुद्धि का प्रमाणिक नेता अरब सैनिकों के पास नहीं था।
अरब सैनिक केवल और केवल विनाशकारी सोच के वशीभूत होकर युद्ध के मैदान में खड़े थे और वह युद्ध के माध्यम से विनाश का एक नया इतिहास लिख देना चाहते थे । क्योंकि ऐसे अपराध करना उनकी प्रवृत्ति में सम्मिलित हो चुका था। उन्हें ऐसे युद्ध में मजा आता था, क्योंकि इससे उनकी मजहबी इच्छाएं पूर्ण होती थीं।उन्हें लगता था यदि वह युद्ध में कामयाब होते हैं तो न केवल लूट का माल मिलेगा बल्कि और भी बहुत सारे मजहबी लाभ उनकी झोली में आ पड़ेंगे। उन्हें इस समय ‘सोने की चिड़िया’ की सोने की चमक ही दिखाई दे रही थी, अर्थात लूट और हत्या का उन्माद उनके सिर चढ़कर बोल रहा था।
अब युद्ध की रणभेरी बज चुकी थी। इसलिए दोनों ओर से युद्ध आरम्भ हो गया । वीर योद्धाओं के सिर धड़ से अलग होकर जमीन पर गिरने लगे। भारत के वीर सैनिक मातृभूमि की रक्षा के लिए इस समय सब कुछ भूलकर युद्धरत हो चुके थे। सदा की भांति उनका युद्ध का कौशल अपना अलग ही चमत्कार दिखा रहा था। शत्रु सेना में बड़ी संख्या में योद्धाओं के होते हुए भी भारत के सैनिकों का मनोबल और वीरता उन्हें आश्चर्यचकित कर रही थी। भारत के वीर सैनिक बिना किसी हिचक और संकोच के अरबी सैनिकों को धरती पर लिटाते जा रहे थे। जिधर भी हमारे वीर योद्धाओं का दल चल पड़ता उधर ही अरबी सेना के सैनिकों से मैदान साफ हो जाता।
भारत प्राचीन काल से ही शत्रु सेना के विनाश के लिए भारतीय योद्धाओं को तैयार करने की परंपरा रही है। ऋग्वेद (10 /101 /8 ) के मंत्र में सीधे-सीधे यह आदेश दिया गया है कि शत्रु सेना के विनाश के लिए युद्ध शिविर सजाओ । इस मंत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी वेदानंद तीर्थ जी ‘स्वाध्याय सन्दोह’ नामक पुस्तक में कहते हैं कि “व्रज बनाओ। बाड़ा बनाओ। समुदाय बनाओ। छावनी सजाओ। वही तुम्हारा नृपाण है । … सबसे पूर्व जनमत को अपने पक्ष में करो। वास्तविक नृपाण तो वही है । शेष तो उसके उपकरण हैं । बड़े-बड़े और असंख्य वर्म सिलाओ। वर्म का अर्थ केवल तनूत्राण अर्थात कवच ही नहीं है। समस्त युद्ध साधनों को वैदिक परिभाषा में वर्म कहते हैं। उनमें कवच भी सम्मिलित है ।
……नगरों को, दुर्गों को लोहमय तथा अधृष्ट (अर्थात किसी से न दबाया जाने वाला) बनाओ। युद्ध समय में ऐसा न हो कि शत्रु तुम्हारे नगरों पर आक्रमण करके उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर दें। इसके लिए प्रबन्ध करना चाहिए। उनकी रचना ऐसी होनी चाहिए कि अस्त्रों- शस्त्रों का वार उस पर बेकार जाए तथा उसके अंदर बसने वाले ऐसे वीर दुर्दांत हों कि शत्रु आक्रमण का साहस ही न कर सके।”
जिस देश ने सृष्टि के निर्माण के काल में ही युद्ध के लिए ऐसी तैयारियों का पाठ पढ़ लिया हो, उसके बारे में यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस काल का वर्णन हम कर रहे हैं जब शत्रु पक्ष हमारे सैनिकों को उस समय चुनौती दे रहा होगा तो उस समय भी हमने किस प्रकार युद्ध शिविर सजाए होंगे ?
भारत के सैनिकों ने खड़ी की गम्भीर चुनौती
भारत के विषय में यह समझ लेना चाहिए कि इस महान राष्ट्र ने वेद को अपना आदि संविधान माना है। वेद के अनुसार सारी जीवन शैली, जीवन प्रक्रिया और जीवन व्यवहार को चलाने का संकल्प लिया है। आज जब वेद हमारे जीवन व्यवहार से बाहर निकाल देने का प्रयास राजनीतिक दलों की ओर से धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किया जा रहा है, तब भी वेद किसी न किसी रूप में हमारे जीवन व्यवहार का संचालन करने में हमारी सहायता कर रहे हैं। यदि युद्ध संचालन की बात करें तो इस सृष्टि के प्रारंभ में ही नहीं बल्कि सृष्टि दर सृष्टि चलने वाला वैदिक ज्ञान हमारा पूर्व सृष्टियों में भी इसी प्रकार मार्गदर्शन करता रहा है।
पूर्ण सैन्य क्षमताओं , पराक्रम , वीरता और शौर्य के साथ लड़ रही भारत की वीर सेना ने शत्रु के लिए इतनी गम्भीर चुनौती खड़ी कर दी थी कि शाम होते होते उसके पैर युद्ध के मैदान से उखड़ चुके थे। भारत के सन्दर्भ में हम सभी यह जानते हैं कि सूर्यास्त के पश्चात भारतीय परम्परा में युद्ध वर्जित है, इसलिए दुर्भाग्यवश उस दिन भी सूर्यास्त के समय ही युद्ध समाप्त कर दिया गया। वास्तव में भारत की यह ‘सद्गुण विकृति’ कई बार हमारे विनाश का कारण बनी है।
सदगुण भारी पड़ गया तेज हुआ निस्तेज।
अब शत्रु ने षड़यंत्र की बिछा दई थी सेज।।
यदि हमारे वीर योद्धा उस दिन मात्र दो घंटे शत्रु पक्ष का विनाश करने के लिए और लगा देते तो शत्रु सेना का या तो सफाया हो गया होता या फिर वह युद्ध के मैदान से भागकर स्वदेश लौट गई होती। अपनी युद्ध की आदर्श परंपराओं का पालन करने के मोह का संवरण हमारी सेना नहीं कर पाई और जैसे ही सूर्यास्त हुआ वैसे ही युद्ध की समाप्ति की घोषणा कर दी । भारत के सैनिकों की युद्ध समाप्ति की घोषणा उस दिन शत्रु पक्ष के लिए वरदान सिद्ध हुई। हारती हुई शत्रु सेना को मानो जीवन दान ही मिल गया। अब उसके सामने एक ही विकल्प था कि वह भारत के वीर योद्धाओं की सेना का छल- बल से किसी प्रकार खात्मा करे।
गद्दारों ने की गद्दारी
भारत के सैनिक तो बड़े सहज भाव से अपने शिविरों में चले गए और अगले दिन की युद्ध नीति पर विचार विनिमय करने के पश्चात मन्त्रणा के उपरान्त सो गए, जबकि शत्रु ने उस दिन भारत का दुर्भाग्य लिखते हुए कुछ दूसरी ही रणनीति पर विचार करना आरम्भ कर दिया। भारत का गद्दार ‘ज्ञानबुध्द’ भी अब अपनी सही भूमिका में खुलकर सामने आ गया । उसने शत्रु के साथ मिलकर उस दिन ऐसी गम्भीर षड़यंत्रपूर्ण योजना पर कार्य किया जो भारत के लिए अभिशाप बन गई। ज्ञानबुद्ध के इस राष्ट्रीय अपराध में उसके साथ मोक्षवासव भी सहयोगी था। इन दोनों ने शत्रु के साथ मिलकर राष्ट्र के साथ उस दिन बहुत बड़ा छल किया था। उन्होंने देवल किले के पीछे के द्वार से अरब सैनिकों का प्रवेश करवाकर भारतीय सैनिकों पर हमला कराने में अपनी सहायता दी थी।
वास्तव में इन दोनों राष्ट्रद्रोहियों का यह कुकृत्य राष्ट्र के साथ किया गया छल नहीं था बल्कि मानवता के विरुद्ध किया गया छल था। क्योंकि इससे इतिहास ने अपनी आंखों से एक ऐसे दृश्य को देखा जब राक्षस और लुटेरा दल अपनी योजना में सफल होकर मानवता के लिए काम करने वाले लोगों पर हिंसक होकर टूट पड़ा था । हमारे देश के साथ यदि इन गद्दारों ने उस समय ऐसा छल नहीं किया होता तो निश्चय ही इतिहास कुछ दूसरा होता। तब और अब सैनिकों का यह लुटेरा दल भी उसी रास्ते दोजख भेज दिया गया होता जिस रास्ते उससे पूर्व में आने वाले अरबी सैनिकों को भेज दिया गया था। निहित स्वार्थ में अंधे हुए इन दोनों नीच गद्दारों को उनकी आत्मा ने इस क्रूर कृत्य के लिए धिक्कारा और धमकाया तो अवश्य होगा, परन्तु जब स्वार्थ की पट्टी आंखों पर बन्ध जाती है तो आत्मा की आवाज की भी उपेक्षा मनुष्य कर दिया करता है । बस, यही इन दोनों दुष्टों के साथ हो रहा था, जो आत्मा की आवाज को दबाकर माँ भारती के साथ गद्दारी करने पर उतारू हो गए थे।
गद्दारों की गद्दारियां – हैं इतिहास का दर्द।
मिटे देश की आन पर वही है सच्चा मर्द।।
माँ भारती के साथ गद्दारी करने वाले दोनों नीच पुरुषों के कारण अरब सैनिक जैसे ही किले के भीतर प्रवेश करने में सफल हुए उन्होंने आनन-फानन में गहरी निद्रा में सोए हमारे सैनिकों की हत्या करना आरम्भ कर दिया। ऐसे छल – कपट से किए जाने वाले युद्ध भारत में प्राचीन काल से ही वर्जित रहे हैं, परन्तु इस्लाम की तलवार के लिए अपने विशेष उद्देश्य को प्राप्त करने के दृष्टिगत युद्ध में प्रत्येक प्रकार के अमानवीय और अनैतिक उपाय भी पूर्णतया नैतिक माने जाते रहे हैं। ऐसे युद्ध में विश्वास रखने वाले मुस्लिम आक्रमणकारी पहले दिन से यह कहते आए हैं कि वार में और प्यार में सब कुछ जायज होता है । इन लोगों के लिए युद्ध में नैतिकता या धर्म का निर्वाह करना पूर्णतया अनुचित है, विशेष रूप से तब जब यह युद्ध काफिरों के साथ हो रहा हो।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत