जीवित माता-पिता की सेवा
(यह आलेख हम पूज्य पिता महाशय राजेन्द्र आर्य जी की 24वीं पुण्यतिथि-13 सितंबर 2015 के अवसर पर प्रकाशित कर रहे हैं। अब से कुछ समय पश्चात श्राद्घ आरंभ होंगे। जिसे पितृकाल भी कहा जाता है। ऐसे अवसर पर यह आलेख समसामयिक है। (प्रस्तुति: सूबेदार मेजर वीर सिंह आर्य)
आर्य समाज के पथ-प्रदर्शक एवं प्रवत्र्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने समाज में लोगों के लिए पाँच प्रकार के यज्ञों को करने का विशेष विधान बताया है, जिसमें प्रथम-ब्रह्म यज्ञ, द्वितीय-देवयज्ञ, तृतीय पितृयज्ञ और चतुर्थ एवं पंचम क्रमश: बलिवैश्वदेव यज्ञ, अतिथि यज्ञ हैं।
यूं तो इन सभी यज्ञों का अपना महत्व है, किन्तु पितृयज्ञ प्रत्येक मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता है। अन्य यज्ञों का यदि इस यज्ञ को आधार भी कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि सारे अन्य यज्ञ इसी पर आधृत है। पितृयज्ञ का अभिप्राय जीवित माता-पिता की सेवा करना है। माता-पिता के प्रति पूर्ण मनोयोग और तन्मयता से समर्पण का भाव रखना, पूर्ण निष्ठा और सत्कार पूर्ण श्रद्घा रखना पितृयज्ञ है। हमारा यह कत्र्तव्य बनता है कि अपने माता-पिता के पास बैठने के लिए अपनी अति व्यस्त दिनचर्या में से भी समय निकालें। इससे उनका मानसिक तनाव तो कम होता ही है , साथ ही परिवार का आत्मीयता पूर्ण परिवेश भी बना रहता है। जीवन सुख, समृद्घि और विकास का पर्याय बन जाता है।
पाकिस्तान में एक स्थान है -कटासराज। जहाँ कभी युधिष्ठिर एवं उनकी माता कुन्ती तथा चारों भाई पीने के लिए तालाब से जल लेने गये थे। चारों भाई भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव जब लौटकर नहीं आये तो धर्मराज युधिष्ठिर स्वयं उस तालाब के पास पहुँचे जहाँ उनके चारों भाई अचेतावस्था में पड़े हुए थे। उनकी यह अवस्था यक्ष ने की थी। इस घटना से हम सब भली प्रकार परीचित हैं। इसी स्थान पर युधिष्ठिर-यक्ष संवाद हुआ था।
यहाँ यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा थाद्ब्रकि आकाश से भी ऊँचा स्थान किसका है?
युधिष्ठिर ने कहा-पिता का। यक्ष का अगला प्रश्न था कि पृथ्वी से भारी कौन है? युधिष्ठिर ने कहा माँ का। जिस प्रकार यह धरती हमारे मल-मूत्र को सह करके भी हमें अन्नादि प्रदान करती है, उसी प्रकार माँ भी हमारे मल-मूत्र को सहन करके हमारे लिए भोजन तैयार करती है और बचपन में अपनी छाती से निकले हुए दूध् से हमारा पालन-पोषण करती है। माँ सजीव है, जबकि पृथ्वी निर्जीव है। पृथ्वी तो निर्जीव होकर हमारे मल-मूत्रा को सहन करती है, जबकि माँ तो सजीव होकर हम पर उपकार करती है। इसलिए उसके ऋण से उऋण हो पाना हमारे वश की बात नहीं है।
यक्ष से युधिष्ठिर ने कहा कि माता पृथ्वी से भी भारी है। माँ इस सृष्टि की प्रथम स्तुत्या है। वह वन्दनीया है। प्रत्येक माँ अपने बच्चे की प्रथम पाठशाला है। माँ अपने बच्चे को संस्कारवान बनाने वाली होती है। बच्चे के सभी कृत्यों के पीछे कहीं-न-कहीं माँ एक प्रेरक देवी के रूप में खड़ी मिलेगी। इसलिए मान्यता है कि जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। अर्थात् माता और मातृभूमि दोनों ही स्वर्ग से भी बढक़र हैं। उनका गौरव अनुपमेय है। ऐसा श्रीलंका विजय के पश्चात स्वदेश को प्रस्थान करने से पूर्व श्रीराम ने अपनी माँ और मातृभूमि दोनों को माना है-ऐसा कहा जाता है।
महाभारत और रामायण के उपरोक्त उदाहरणों के अतिरिक्त यदि हम वेदों और उपनिषदों की ओर देखें तो पायेंगे कि वहाँ भी माता को माता निर्माता भवति कहकर महिमा मंडित और गौरवान्वित किया गया है। नीतिकार ने ईश्वर के जिन विभिन्न दैव स्वरूपों की आराध्ना की है उनमें उन्हें माता का स्वरूप प्राथमिकता से प्रदान किया है। जैसे हम बोलते हैं:
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेरव विद्या च द्रविणं त्वमेव, त्वमेव संर्व मम देव देवा:।।
आधुनिक युग विज्ञान का युग है, लेकिन विज्ञान के युग में भी गुणावगुण पर विचार किये बिना असंख्य लोगों को हम आज भी गर्त में, अज्ञानता के महातिमिर में घुसते और घूमते हुए देखते हैं।
इसीलिए हमारा कत्र्तव्य है कि जीवित माता के प्रति पूर्ण श्रद्घाभाव से उनकी सेवा सुश्रूषा और देखभाल का पूरा ध्यान हम रखें। जिन घरों में माता को प्रताडि़त किया जाता है, बहुएँ सास को उत्पीडि़त करती हैं उन घरों में देर सबेर सारा विकास विनाश में परिवर्तित हो जाता है। इसलिए मृत्यु के पश्चात का भोज और श्राद्घ तर्पण का कार्य अतार्किक है, विज्ञान के विरूद्घ है और धर्म के भी विरद्घ है।
अत: जीवित माता-पिता की सेवा ही उत्तम है। उनके उपकारों के लिए सेवा जीते जी ही करने का व्रत लिया जाये। मृतक का कोई तर्पण नहीं होता न कोई सेवा होती है।
पूज्य पिताजी महाशय राजेन्द्र सिंह आर्य जी स्वयं में पितृभक्त थे, जीवन में उन्होंने कितने ही प्रसंग अपने पूज्य पिता चौधरी तारीफ सिंह के विषय में हमें बताये। उनका इतिहास संबंधी ज्ञान अनुपम था।
इतिहास की ऐसी सच्ची किंतु उपेक्षित घटनाओं को उन्होंने हमें बचपन में बताया जो आज बड़े अनुसंधान के पश्चात पाठकों को हम अपनी इतिहास लेखमाला के अंतर्गत परोस रहे हैं। इस सारी लेखमाला के पीछे पूज्य पिताजी का आशीर्वाद और उनकी प्रेरणा को जब भी हम स्मरण करते हैं, तो उनके ज्ञान और इतिहास संबंधी दृष्टिïकोण को देखकर हृदय स्वाभाविक रूप से उनके प्रति नतमस्तक हो जाता है।
हे पिते! आपका पुण्य आशीर्वाद ईश्वर की कृपा के तुल्य हम पर निरंतर बना हुआ है और हम उस आशीर्वाद के कवच को ओढक़र ईश्वर की कृपा की छत्रछाया में आगे बढ़ रहे हैं। आप जहां भी हैं वहीं प्रसन्न रहें, ईश्वर से हमारी यही कामना है। संपूर्ण ‘उगता भारत’ परिवार आपको अपनी भावपूर्ण श्रद्घांजलि अर्पित करता है।