भारत में होने वाली मिथ्या शोधों के परिणाम
मिथ्या शोध
आक्रमणकारियों ने विश्वविद्यालय तथा पुस्तकालय जलाये। अंग्रेजों ने भी यह किया। इसके अतिरिक्त जो बचा साहित्य था, उन सभी का सत्य के ठीक उलटा शोध आरम्भ किया तथा पाठ्य क्रम में उसे ही डाला। अभी तक लोग उसी में उलझे हुए हैं।
(१) भारतीयों को विदेशी तथा बाहरी को मूल निवासी बनाना-भारतीय शास्त्रों के अतिरिक्त स्वयं मेगास्थनीज तथा सभी पुराने ग्रीक लेखकों ने लिखा है कि भारत एकमात्र देश है, जहां बाहर से कोई नहीं आया है। इसका उलटा प्रमाणित करने के लिए मोइन-जो दरो (मृतक स्थान), हड़प्पा (हड्डियों का ढेर) में खुदाई आरम्भ की जो जनमेजय द्वारा नाग राज्य पर ३०१४ ईपू के आक्रमण में नष्ट हुए थे, और इस सम्बन्धित ५ पुरालेख मैसूर ऐण्टीकुअरी में १९०० में छप चुके थे। निष्कर्ष पहले ही से तय था कि भारतीयों को अंग्रेजों की तरह विदेशी सिद्ध करना है। पूरा भारत सिन्धु घाटी सभ्यता के चक्कर में पड़ा हुआ है। लुप्त सरस्वती नदी की एक धारा की खोज होने पर उसे सिन्धु-सरस्वती नाम दे दिया है तथा अरब से वियतनाम तक ९ खण्ड के भारत को हरियाणा-सिन्ध में समेट दिया है। इसका भी उल्लेख अधिकांश पुराणों में है कि परीक्षित की ८वीं पीढ़ी में १०० वर्ष तक अनावृष्टि हुई थी, जिसमें सरस्वती सूख गयी तथा गंगा की बाढ में हस्तिनापुर नष्ट हो गया।
समुद्र मन्थन के समय अफ्रीका से असुर खनिज निष्कासन में सहायता के लिए आये थे। उनकी भाषा पश्चिम एशिया में भी थी जहां के यवनों को राजा सगर ने दण्डित कर भगा दिया था। वे तुर्की के पश्चिम तट पर और ग्रीस में बस गये जिसके बाद उसका नाम हेरोडोटस के अनुसार इयोनिया (यूनान) हुआ। किन्तु आज भी अरब चिकित्सा को ही यूनानी कहते हैं। अतः खनिज क्षेत्र में आये असुरों की भाषा में उनकी उपाधियां आज तक खनिजों के ग्रीक नामों पर हैं-ओराम (ग्रीक में सोना), टोप्पो (टोपाज), सिंकू (स्टैनिक-टिन), हेम्व्रम (हाइग्रेरियम-पारा), खालको (ताम्र अयस्क खालकोपाइराइट), एक्का (ग्रीक में कछुआ-खान में छत सम्भालने के लिए कछुए जैसा खोल), किस्कू (किओस्क-लोहे की धमन भट्टी) आदि। उनका चेहरा आज भी अफ्रीका निवासियों से मिलता है जैसा ४०० वर्ष पूर्व अफ्रीका से आये सिद्दियों का मिलता है। कुछ दिन में सिद्दी भी अपने को भारत का मूल निवासी घोषित कर देंगे। इनका डीएनए आज तक अफ्रीकियों से नहीं मिलाया गया, केवल मूल निवासियों को ही पिछले २०० वर्ष से भारतीय होने की परीक्षा देनी पड़ रही है।
(२) जाति प्रथा के कारण भारत के पतन का प्रचार-राजा बलि से ३ लोक लेते समय, इक्ष्वाकु, विश्वविजयी मान्धाता, परशुराम, राम, कृष्ण, नन्द, विक्रमादित्य तक हर समय जाति व्यवस्था के कारण भारत विश्वविजयी हुआ। पतन का कारण था कि जातिगत दायित्व भूल गये। यह कर्त्तव्य लोग भूल जायें इसकी प्राणापण चेष्टा चल रही है।
(३) ज्ञान का रक्षण-१२०० ई के बाद भारत में केवल विश्वविद्यालय और पुस्तकालय जलाये गये। केवल जाति प्रथा के कारण वेद, वेदांग, आयुर्वेद, ज्योतिष तथा शिल्प शास्त्र सुरक्षित रहे। इस प्रकार बचे हुए शास्त्रों को पढ़ कर नकली विद्वान् दिन-रात जाति प्रथा को गाली देने में लगे हुए है। इनको शरीर के अंगों की तरह समाज का अंग माना गया है, उसके आधार पर ऊंच नीच की कल्पना की जाती है या कुछ जातियों को विदेशी कहते हैं। केवल एक जाति से कोई समाज एक दिन भी नहीं चल सकता है, न आज तक विश्व में कहीं चला है। आज कोई बिना मेडिकल कालेज में पढ़े डाक्टर बन कर दिखा दे तब जाति प्रथा की निन्दा करे। २५ पीढियों तक केवल जाति व्यवस्था ने ही इन विज्ञानों को बिना कालेज सुरक्षित रखा।
(४) वेद में लिपि नहीं होने का प्रचार-मनुस्मृति (२/६-१५) में कहा है कि श्रुति के अनुसार स्मृति चलती है, इसके अनुसार रघुवंश (२/२) में लिखा-श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्। इससे प्रचार किया गया कि लिपि नहीं थी लोग सुन कर याद करते थे। मैक्समूलर आदि ने घोषित कर दिया कि वेद अशिक्षित चरवाहों का गीत है। उसके विरोध में कुछ लोग सिद्ध करने में लगे कि लिपि थी। अनेक प्रकार की लिपि क्यों थी, यह सोचने का कभी अवसर ही नहीं मिला। वस्तुतः यह भ्रमात्मक अर्थ है। मनुस्मृति में उसी प्रसंग में लिखा है कि श्रुति का अर्थ वेद है तथा स्मृति का अर्थ धर्मशास्त्र। एक पुस्तक पढ़ने या सुनने से दूसरा शास्त्र कैसे याद हो सकता है? क्या भौतिक विज्ञान पढ़ने पर रसायन शास्र याद होगा? ये झूठी चर्चा करने वाले आज तक अपनी स्वयं की लिखी पुस्तक का १ पृष्ठ भी कण्ठस्थ नहीं कर पाये हैं। ६ प्रकार का दर्शन होने के कारण ६ दर्श वाक् है, जिनकी अक्षर संख्या उस दर्शन की तत्त्व संख्या के अनुसार है। ३ आयाम के विश्व का २ आयाम की सतह पर लिखते हैं अतः उसे लेप या लिपि कहते हैं। इसके अतिरिक्त अक्षर या उससे बने शब्द-वाक्य की गणना हो सकती है, पर गणना या संख्या ही ३ प्रकार का अनन्त है-संख्येय, असंख्येय, अप्रमेय-जो गणेश के रूप हैं। एक अन्य गणना से परे है जिसे, भाव या रस कहते हैं और उस ज्ञान को रस-वती या सरस्वती कहते हैं। सभी को अक्षर द्वारा व्यक्त करना सम्भव नहीं है अतः उस भाव को ८-१० शब्दों से घेर कर बताते हैं। ईशावास्योपनिषद् में कहा है कि अव्यक्त ज्ञान को घेर कर ही व्यक्त करते हैं-स पर्यगात् (घेर कर) शुक्रं, अकायं — याथा-तथ्यतो अर्थान् व्यदधात्।
(५) समन्वय के बदले अन्तर्विरोध करना-ज्ञान का एकमात्र आधार है, शास्त्रों का समन्वय। यह ब्रह्मसूत्र के आरम्भ में है-शास्त्रयोनित्वात्। तत्तु समन्वयात्। कानून में भी पढ़ाया जाता है-Harmonious construction (Interpratation of Statute Act)। पर अंग्रेजी प्रभाव में यथा सम्भव अन्तर्विरोध स्थापित करने की चेष्टा हुयी तथा विद्वत्ता दिखाने के लिए वह बढ़ती जा रही है। पुराण में २ स्थानों पर भिन्न शब्दों का प्रयोग हो गया अतः वह झूठे हैं या बाद में लिखा गया इस कारण वह झूठा है। मनुष्य इतिहास भाग उसके बाद ही लिखा जा सकता है, २००० ई का इतिहास १९०० में नहीं लिख सकते, अतः २००१ की इतिहास पुस्तक झूठी हो गयी? किन्तु सृष्टि के देश-काल प्राचीन काल का वर्णन प्राचीन काल का है, जिसका कुछ संक्षेप हुआ है। उसी के आधार पर वेद मन्त्र आधारित हैं। गायत्री मन्त्र के पूर्व ७ लोकों का जो नाम कहा जाता है, उनका आकार केवल पुराणों में ही है। आगम निगम पुराण का समन्वय होने के बदले केवल वेद सत्य है, पुराण झूठा हैं तथा धोखा देने के लिए लिखे गये हैं। तन्त्र को केवल व्यभिचार मानते हैं। इस तर्क के अनुसार सभी दोष वेद में भी मिल जायेंगे। हर वेद में पुरुष सूक्त का पाठ अलग अलग है, अतः उसे भी वेद भक्त झूठा कहना आरम्भ करेंगे। विभिन्न प्रसंगों के २-३ शब्द खोज कर उनका मनमाना अर्थ करते हैं। भारत में गौ की पूजा होती है, यजुर्वेद का प्रथम मन्त्र भी वही है। अतः यज्ञ का अर्थ पशुबलि किया, एक जगह गो शब्द खोजा, दूसरे जगह मांस, तथा प्रचार किया कि ऋषि केवल गोमांस खाते थे। इस प्रकार जीवन का उद्देश्य पूरा होने पर बाकी शोध बन्द कर दिया।
(६) वेद तथा ज्ञान का स्रोत दक्षिण भारत था जिसकी कर्णाटक में वृद्धि हुई-भौतिक अर्थों का आध्यात्मिक, आधिदैविक अर्थों में विस्तार हुआ। पिछले ५००० वर्षों से यह भागवत माहात्म्य में कहा जा रहा है-
उत्पन्ना द्रविड़े साऽहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे, गुर्जरे जीर्णतां गता॥
इसी के अनुसार क्षेत्रों के नाम हैं, अप् से विश्व उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार जहां शब्द विश्व हुआ वह द्रविड़ है। कर्ण आदि ५ ज्ञानेन्द्रियों से निसर्ग का ज्ञान मिलता है, अतः वेद को निगम कहते है। अतः श्रुति का जहां अर्थ विस्तार हुआ वह कर्णाटक है। प्रभाव क्षेत्र महर् (महल) है अतः उसे महाराष्ट्र कहा। नहीं तो वह राष्ट्र तथा भारत महाराष्ट्र होता।
अतः प्रचार हुआ कि उत्तर भारत के आर्यों ने दक्षिण के द्रविड़ों पर वेद थोप दिया। २००१ के श्रीशैलम वैदिक सम्मेलन में मैंने लोकों की माप के विषय में लेख पढ़ा तो आरम्भ में भूमिका रूप में कह दिया कि भारत वेद भूमि है। अतः माप की शुद्धता या विधि के बारे में चर्चा के बदले यह युद्ध छिड़ गया कि दक्षिण भारत वेद भूमि नहीं है, उत्तर भारत के आर्यों ने उन पर वेद थोप दिया था। उसके समर्थक विद्वान् ने जो ऋग्वेद का मन्त्र उद्धृत किया उसके २ शब्दों का प्रयोग केवल तेलुगू में होता है। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि इस तरह की मूर्खता पूर्ण बात भी कोई कर सकता है जिसके निर्देशन में ७० पीएचडी हुए हैं। यदि आर्य लोग वेद थोपते तो इन शब्दों का प्रयोग उत्तर भारत में भी होना चाहिए था। दक्षिण भारत में प्राचीन पितामह सिद्धान्त के अनुसार गुरु वर्ष होता है, उत्तर भारत में बाद के वैवस्वत मनु के समय के सूर्य सिद्धान्त अनुसार।
इसी प्रकार इन्द्र को पूर्व दिशा का लोक पाल कहा गया है, जिनका तथा गरुड़ का भवन रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४० में यवद्वीप के सप्तद्वीप राज्य में लिखा है। आज भी कम्बोडिया के एक जिले का नाम वैनतेय (गरुड़) है। बर्मा थाइलैण्ड की इरावती नदी क्षेत्र के श्वेत हाथी को ऐरावत कहते थे। उसका वैदिक नाम वटूरी आज भी थाई भाषा में ही प्रचलित है। पर भारत के लोग केवल पश्चिम दिशा में ही देख रहे हैं और केवल रावी नदी की चर्चा कर सकते हैं जो केवल सिन्धु की सहायक नदी है।
(७) लोकों की माप, कालगणना, तथा सृष्टि विज्ञान के कई सिद्धान्त पुराणों में हैं जिनके विषय में अभी तक पूर्ण शोध नहीं हो पाया है। पर केवल शास्त्रार्थ होते रहे कि ज्योतिष में सूर्य केन्द्रित या भू केन्द्रित कक्षा है। आज भी अधिकांश गणना तथा वेध (ग्रह स्थिति देखना) भू केन्द्रित ही है। ग्रहों की दूरी, गति कैसे मापी गयी तथा ग्रहण की गणना कैसे हुयी इस पर सोचने का समय ही नहीं मिला। आर्यभट के विषय कें केवल यही शोध हुआ कि वह जैन थे या वैदिक, पटना के थे या केरल के? उनको अपना दिखाना था अतः विदेशी या उत्तर भारतीय आर्य होने से बच गये। पर उनकी गणना का स्रोत तथा काल विषय में सोचने का अवसर नहीं आया।
(८) इतिहास में केवल यही शोध हो रहा है कि भारतीय काल गणना को कैसे झूठा सिद्ध करें। अब उसके लिए नासा के कैलेण्डर सॉफ्टवेयर की भी सहायता ले रहे हैं जिसका स्रोत पिछले ३०० वर्षों का वेध है तथा उसका ३००० वर्ष से अधिक पुराना प्रयोग त्रुटिपूर्ण होता है। भारत के ९ प्रकार के काल मान तथा ७ प्रकार के युगों को देखना पाप मानते हैं। दर्शन में केवल शंकराचार्य को आदर्श मानते हैं क्योंकि अंग्रेजों के अनुसार वे मूर्त्ति पूजा के विरोधी थे। निर्विशेष अद्वैत की व्याख्या का अर्थ मूर्ति पूजा का विरोध नहीं है। इन लोगों का देख कर लगता है कि अभी अभी इनका इंगलैण्ड से भारत में अवतार हुआ है। भारत में जितनी भी तथाकथित मूर्ति पूजा होती है उनमें शंकराचार्य के स्तोत्र का व्यवहार निश्चित रूप से होता है।
✍🏻अरुण उपाध्याय
बहुत से लेख हमको ऐसे प्राप्त होते हैं जिनके लेखक का नाम परिचय लेख के साथ नहीं होता है, ऐसे लेखों को ब्यूरो के नाम से प्रकाशित किया जाता है। यदि आपका लेख हमारी वैबसाइट पर आपने नाम के बिना प्रकाशित किया गया है तो आप हमे लेख पर कमेंट के माध्यम से सूचित कर लेख में अपना नाम लिखवा सकते हैं।