सुनो राष्ट्र की पुकार
हे सर्व नियन्ता स्वामिन! मैं आ गया हूँ आपके दरबार में। झोली फैलाये खड़ा हूँ, पिता। सुनो मेरी पुकार, दयानिधे! मेरे हृदय में आग जल रही है-काम की, क्रोध की, मद की, मोह की, लोभ की, ईष्र्या की, जलन की, डाह की।
एक अग्नि शांत नहीं होती इतने में दूसरी भडक़ उठती है। मैं तप रहा हूँ, जल रहा हूँ, झुलसा जा रहा हूँ। इससे पूर्व कि मैं इस अग्नि में पूर्णत: समाप्त हो जाऊं, आप अपनी प्रेमवृष्टि से, दयादृष्टि से इसे शांत कर दो। हे परम कृपालु प्रभो, आपके अनन्त उपकारों के समक्ष मैं हृदय से आपके समक्ष नतमस्तक हूँ। आपने मुझे संसार की हर वस्तु मेरे माँगने पर ऐसे उपलब्ध करवायी है, जैसे एक पिता अपने पुत्र को करवाता है। आज मैं फि र आपसे माँग रहा हूँ। बड़े अधिकार से माँग रहा हूँ। वैसे भी जन्म-जन्मांतरों से मुझ भिखारी को माँगने और तुझ दाता को देने का अच्छा अभ्यास है। इसीलिए माँग रहा हूँ। पिता, मेरी माँग है कि मेरे अंतर्तम को झुलसा देने वाली मेरी अग्नि को शांत करो। आह! कितना सुंदर दृश्य है-आपके नाम स्मरण से मेरे भीतर खड़ी इन अग्नियों की सेना भागने लगी है। मेरी जीवन ‘बैट्री’ चार्ज होने लगी है। जलते रेगिस्तान की झुलसती फ सल लहलहा उठी है। जहाँ पहले काम था, वहाँ अब वैराग्य का भाव पैर पसार रहा है। जहाँ क्रोध् था, वहाँ विनम्रता का साज सज रहा है। जहाँ घृणा थी, वहाँ प्रेम रस भरता जा रहा है। जहाँ ईष्र्या थी, वहाँ सहयोग और सम्मैत्री का भाव पुष्पित और पल्लवित हो रहा है। जहाँ जलन थी, वहाँ दया का भाव अपना सृजन कर रहा है। जहाँ द्वेष था, वहाँ सद्भाव जन्म ले रहा है।
आपकी कृपा हो रही है, अज्ञान और अविद्या से मेरा पल्ला छूट रहा है। मैं अनित्य को अनित्य और नित्य को नित्य, अपवित्र को अपवित्र, और पवित्र को पवित्र, दु:ख को दु:ख और सुख को सुख, अनात्मा को अनात्मा, और आत्मा को आत्मा समझने लगा हूँ। संसार-आरण्य में तपते झुलसते लोग अब मेरी दया के पात्र बनने लगे हैं। आपकी इस कृपादृष्टि के लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूँ कि आपने अविद्या ग्रस्त मेरे मानस को विद्या का सार ग्रहण करा दिया। जीवन का सत्य मेरे मानस में अपनी छटा बिखेर रहा है, जिससे आनंदित होकर मेरे मन का मोर नृत्य कर रहा है।
हे सर्वरक्षक सर्वान्तर्यामिन! तेरा सर्वत्र वास है। तू सबमें है और सब तुझमें हैं। तेरी अपार महिमा को कोई जान नहीं सकता। लोग तुझे भूल जाएँ, यह तो संभव है किंतु तू किसी को नहीं भूलता। तेरी दया दृष्टि सब पर रहती है। जीव मात्र के कल्याण के लिए तूने यह जगत रचा है, इसमें तेरा कोई अपना स्वार्थ नहीं है। इसलिए तुझे एकदेशी मानना बड़ी भारी भूल है, तू पत्थरों में भी है, मूर्ति में भी है। यह मेरा अज्ञान है कि मैं मूर्ति को ही भगवान मान लेता हूँ। वह मूर्ति तो मुझे तेरी ओर भेजने का एक साधन मात्र थी, किंतु मैंने उसे ही साध्य मान लिया, इसलिए मेरा पतन होने लगा। मेरा ज्ञान बाधित हो गया, अवरूद्घ हो गया, कुंठित हो गया। अब आपकी असीम अनुकम्पा से मैं आपके वास्तविक, विशाल स्वरूप का अनुभव कर रहा हूँ, जिससे मेरा रोम-रोम पुलकित है, रोमांचित है और मैं दिन-प्रतिदिन उन्नति के सोपानों की ओर बढ़ रहा हूँ। ऋग्वेद 10/121/10 का यह मंत्र मानो मेरे अंतर्मन की पुकार की अभिव्यक्ति का माध्यम है-‘यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम।’ अर्थात् जिस अभिलाषा से तुझे पुकारें, वही अभिलाषा हमारी पूर्ण हो, हम धनैश्वर्यों के स्वामी बनें। हे पिता! मैं पुकारता हूँ और तुम दौड़े चले आते हो। संसार के मेले में मैं एक नादान सा बच्चा अपने अनाड़ीपन से यदि आपकी अँगुली छोड़ भी दूँ तो तुम मुझे पुन: खोज लेते हो। आपकी कृपा मेरे लिए ‘पारसमणि’ हो गयी है। जिसे मैं जिस-जिस वस्तु के संपर्क में लाता हूँ, वही वस्तु स्वर्ण बन जाती है। मैं जब-जब किसी कामना से प्रेरित होकर आपके दरबार में उपस्थित होता हूँ तो आपके अदृश्य हाथ उस कामना को उसी प्रकार पूर्ण कर देते हैं, जिस प्रकार कृष्ण ने सुदामा की मनोवाञ्छा को पूर्ण किया था।
मैं दीन-हीन जब घर लौटता हूँ तो ज्ञात होता है कि आपके अदृश्य हाथ किस प्रकार मेरी मिट्टी की झोंपड़ी को भवन में परिवर्तित कर गये। तब मैं आनंदातिरेक में उछल पड़ता हूँ। आपके दरबार में, नाम सिमरण में, आपके मंदिर में, शांत एकांत स्थान में, मेरे हृदय मंदिर में जब आपके नाम का स्मरण आता है तो मुझे अत्यंत निराली और अद्भुत सी अनुभूति होती है। मेरे सारे तार-संपर्क संसार के माया मोह से कट जाते हैं, अज्ञानान्धकार के बादल छँट जाते हैं, सारे आवरण कट जाते है, और पाप, ताप, संताप सब मिट जाते हैं, मुझे आत्मबल मिलता है। तुम्हारे दरबार से मैं कैसे-कैसे अनमोल हीरे लेकर लौटता हूँ, यह केवल मैं ही जानता हूँ, क्योंकि यह अनुभव का विषय है। जब सारे आसरे छूट जाते हैं, सारे मित्र टूट जाते हैं, तब आपके सान्निध्य से मुझे असम्भव भी सम्भव होता दीखता है। यह कितना बड़ा चमत्कार होता है, इसे वाणी भी बयान नहीं कर सकती। तब आपके अद्भुत उपकार को देखकर मेरा हृदय आपके ‘अनहद’ के मीठे रस का रसास्वादन लेने लगता है। इसीलिए आपसे आज मैं हृदय की पाप भावनाओं की जलती अग्नि को दग्ध् करने की प्रार्थना कर रहा हूँ। इन्हें जला दो, मुझे उठा लो, इनकी लपटों में से। मैं आपकी वाणी-वेदवाणी में ही पुकार रहा हूँ-
‘व्येसनांसि शिश्रथो विश्वगगने।।’
हे ज्ञानाग्नि से पाप वासना को दग्ध् करने वाले प्रभो!
मेरी पाप भावनाओं को सर्वथा शिथिल कर दे।’
क्योंकि इसी में मेरा कल्याण है। इसी में जग का कल्याण है, क्योंकि दीप से दीप जलता है। जब मुझमें आपका प्रकाश चमकेगा तो किसी और का भी कल्याण होगा और किसी और का भी कल्याण होगा तो उससे फि र किसी, अन्य का कल्याण होगा। इस प्रकार संसार विद्या के आलोक से जगमगा उठेगा। सत्य शिव से भी सुंदर है-तब हमें यह सच समझ आ जाएगा। अत:- हे पिता! मेरी पुकार सुनो।’
आज सारे संसार को कभी अपनी ज्ञानधारा से पवित्र करने वाले भारतीय राष्ट्र की आपसे यही पुकार है। हे सर्वान्तर्यामिन, कृपासिन्धु इस सनातन राष्ट्र की पुकार को सुनो और इसके सामाजिक परिवेश में आये समस्त विकारों को भस्म कर डालो। भारत माता के इस विशाल मन्दिर में भक्त बना सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्र आज बड़े अधिकार से आप से कुछ माँग रहा है। इसकी पुकार सुनो और सारे बन्धनों को काट दो।
मुख्य संपादक, उगता भारत