ज्ञान प्रेम संसार में, प्रभु की अनुपम देन
गतांक से आगे….
आत्मा को परमात्मा,
करे सदा आगाह।
ज्ञानी आग्रह ना करै,
सिर्फ बतावै राह।। 977।।
व्याख्या :-
मनुष्य जब भी कोई कुकर्म करता है तो तत्क्षण अंदर से आत्मा उसे रोकती है किंतु मनुष्य अज्ञान और अहंकार के कारण आत्मा की इस मूक आवाज को अनसुनी कर देता है। वास्तव में यह आवाज परमात्मा की प्रेरणा होती है, जो कुकर्म से हमेशा रोकती है। ध्यान रहे, आत्मा में भी परमात्मा बैठा हुआ है, जो हमें पाप के गहवर में गिरने से हमेशा रोकता है। वह मनुष्य को हाथ पकडक़र पाप करने से नही रोकता है किंतु सहज भाव से अंतरात्मा के माध्यम से हमें आगाह करता है, सावधान करता है। ठीक इसी प्रकार परिवार समाज अथवा राष्ट्र में जो ज्ञान वृद्घ होते हैं वे सहज भाव से परमात्मा की तरह पाप कर्म से रोकते हैं और सही रास्ता भी बताते हैं। यह तो व्यक्ति के स्वविवेक पर निर्भर है कि वह कौन सा रास्ता चुनता है-श्रेय का अथवा प्रेम का?
ज्ञान प्रेम संसार में,
प्रभु की अनुपम देन।
प्रेम समष्टि को जोड़ता,
ज्ञान दिव्यता का नैन ।। 978।।
व्याख्या :-
ज्ञान और प्रेम परमात्मा के दिव्य गुण हैं। अपने इन गुणों का अनुपम उपहार मनुष्य को देकर प्रभु ने बहुत बड़ा उपकार किया है। यदि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में इन गुणों की बहुलता है तो समझिये वह दिव्य पुरूष हैं। ज्ञान हमें सर्वदा गतिशील रखता है, अपने गंतव्य तक पहुंचाता है जबकि प्रेम हमें प्राणीमात्र के प्रति संवेदनशील रखता है, समस्त सृष्टि को एकता के सूत्र में पिरोता है। प्रेम सभी गुणों का राजा है। प्रेम से ही अन्य गुण भासते हैं। प्रेम सदभावों की सृष्टि करता है। प्रेम असीमित है। प्रेम जब प्राणीमात्र के लिए मनुष्य के हृदय में जागता है तो मनुष्य ईश्वर का प्रतिरूप कहलाता है, उसका प्रतिनिधि कहलाता है। सृष्टि दूसरा तत्व है-ज्ञान, जिसे तीसरा नेत्र भी कहा गया है। ज्ञान ऐसा दिव्य चक्षु है जिसके द्वारा हमें जीव, ब्रह्म, प्रकृति के गूढ़ रहस्यों का पता चलता है, नये-नये आविष्कार होते हैं, बौद्घिक विकास होता है लोकमंगल होता है। आत्मा के साथ ज्ञान का संबंध हुआ, तो आत्मा महान होने लगती है, महान होने पर ही आत्मा में शांति आती है, धन के ढेरों से नही। इसलिए ‘ज्ञानात्मा’ महानात्मा तथा शान्तात्मा आत्मा के विकास के ये तीन क्रम हैं। इस विषय पर चिंतन और चलने का प्रयास कोई बिरला ही करता है।
मनुष्य को अपने ज्ञान का,
होता है अभिमान।
किंतु निज अभिमान का,
रहता नही है ज्ञान ।। 979 ।।
व्याख्या :-
कैसी विडंबना है प्राय: मनुष्य अपने ज्ञान पर घमंड करता है और दंभ में भी जीता है। वह दूसरों को तो उपदेश देता है कि ‘‘अभिमानी का सिर नीचा’’ इसलिए घमण्ड नही करना चाहिए। अभिमान मान सम्मान और ज्ञान को भ्रमित करता है, मलीन करता है, पतन के गर्त में गिराता है। कैसी हास्यास्पद स्थिति है यह सब जानते हुए भी उसे अपने ज्ञान पर अभिमान होने का ज्ञान नही रहता है? ऐसे व्यक्ति का ज्ञान भी अज्ञान में परिणत हो जाता है तथा वह व्यक्ति उपहास का पात्र बन जाता है। क्रमश: