तंग नजरिए के खिलाफ एक संदेश

जाहिद खान

पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब की जिंदगी पर आधारित ईरान के विख्यात फिल्मकार माजिद माजिदी की नई फिल्म ‘मोहम्मद: मैसेंजर ऑफ गॉड’ को लेकर अरब देशों में तो बवाल है ही, हमारे देश में भी मुंबई स्थित एक कट्टर सुन्नी मुसलिम संगठन रजा अकादमी ने संगीतकार एआर रहमान के खिलाफ इस फिल्म में संगीत देने के एवज में फतवा जारी कर दिया है। रजा अकादमी ने रहमान और माजिद के खिलाफ फतवा जारी करते हुए मुसलमानों से इस फिल्म को खारिज करने और उसके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन करने की अपील की है। साथ ही साथ कानूनी स्तर पर भी ऐसी फिल्म बनाने वालों को सजा देने की बात कही है। सुन्नी मुसलमानों का यह स्वयंभू संगठन यहीं नहीं रुक गया, बल्कि उसने माजिद और एआर रहमान के खिलाफ फतवा जारी करते हुए उन्हें दोबारा कलमा पढऩे और फिर से निकाह करने को कहा है।

अपने फतवे के हक में मुफ्तियों की दलील है कि पैगम्बर साहब को फिल्म में स्क्रीन पर उतारा गया है, जो कि इस्लाम में वर्जित है। शरिया, पैगंबरों को शारीरिक तौर पर पेश करने पर पाबंदी लगाता है। इस्लाम में इसकी कतई इजाजत नहीं। लिहाजा, उनका कहना है कि यह पूरी फिल्म, इस्लाम के खिलाफ है। जाहिर है, इस फतवे ने एक बार फिर देश में यह गैर-जरूरी बहस छेड़ दी है कि मुसलमान, अपने मजहब को कितनी तंगनजर से देखते हैं? क्या रजा अकादमी जैसे संगठन ही मुसलमानों की असली नुमाइंदगी करते हैं? महज किसी फिल्म में संगीत देने की बिना पर एआर रहमान कैसे गुनहगार हो गए?

यह कोई पहली मर्तबा नहीं है, जब एआर रहमान इस्लामिक कट्टरपंथियों के निशाने पर आए हों, बल्कि इससे पहले भी राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् के गायन पर उन्हें विरोध-प्रदर्शन और आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था। लेकिन इन आलोचनाओं से वे कभी नहीं घबराए और अपने काम को इबादत समझ कर करते रहे। इसका नतीजा यह है कि आज उनकी अंतरराष्ट्रीय ख्याति है। देश के बाहर भी उनके संगीत के मुरीदों की काफी तादाद है। माजिद माजिदी भी दुनिया के बेहतरीन फिल्मकारों में से एक माने जाते हैं। अपनी फिल्मों के जरिए उन्होंने कई बार प्रचलित व्याकरण को तोड़ा है। फिल्म ‘चिल्ड्रन ऑफ हेवन’ ने उन्हें पूरी दुनिया में एक नई शोहरत दिलाई। बायकाट, तीर बरान, द कल ऑफ पेराडाइज, बरान, द सांग ऑफ स्पेरो- माजिदी की दीगर उल्लेखनीय फिल्में हैं। ‘मोहम्मद: मैसेंजर ऑफ गॉड’ फिल्म, निर्देशन में ऑस्कर पुरस्कार जीत चुके माजिद माजिदी का महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है। यह फिल्म तीन भागों में है।

फिल्म का पहला भाग 117 मिनट का है। इसमें चौदह सौ साल पहले के अरब के हालात दिखाए गए हैं। फिल्म में पैगम्बर का बचपन से लेकर किशोरावस्था तक का चित्रण है। चूंकि माजिद माजिदी खुद एक मुसलमान हैं, लिहाजा वे अच्छी तरह से जानते थे कि पैगम्बर मोहम्मद साहब पर फिल्म बनाना कितना चुनौतीपूर्ण काम है। उनके सामने चुनौती और भी कई तरह की थीं। मसलन इस्लाम में पैगम्बर की आकृति बनाने, दिखाने पर साफ मनाही है। लिहाजा माजिदी ने इन सब बातों का खयाल रखते हुए ऐसी फिल्म बनाई, जिसमें पैगम्बर की भूमिका करने वाले का चेहरा नहीं दिखाई देता। फिल्म में उनके किरदार को हमेशा पीछे से या फिर परछाईं के जरिए दर्शाया गया है। फिल्मकार का फिल्म में पूरा जोर इस बात पर है कि वह पैगम्बर मोहम्मद साहब की जिंदगी का शुरुआती दौर और उनकी हकीकी तालीमों को अवाम के सामने लाए। एक लिहाज से देखें तो यह फिल्म उन लोगों के लिए एक शुरुआती बिंदु हो सकती है, जो इस्लाम को बिल्कुल नहीं जानते।

‘मोहम्मद: मैसेंजर ऑफ गॉड’ इस्लाम पर बनी पहली फिल्म नहीं है। इस्लाम पर इससे पहले भी बहुत सारी फिल्में बनी हैं। अलबत्ता इन फिल्मों में कभी भी पैगम्बर का चेहरा नहीं दिखाया गया। साल 1976 में सीरियाई अमेरिकी निर्देशक मुस्तफा अक्कड द्वारा निर्देशित फिल्म ‘द मैसेज’ भी इस्लामिक देशों में काफी पसंद की गई थी। खास तौर पर ईरान में यह फिल्म खूब चली। ‘मोहम्मद: मैसेंजर ऑफ गॉड’ भी ईरान में खासी पसंद की जा रही है। ईरान बुनियादी तौर पर शिया बहुल आबादी वाला देश है। शिया मुसलमानों के बनिस्बत वहां सुन्नी मुसलमानों की आबादी बेहद कम है। जबकि बाकी अरब देश सुन्नी बहुल क्षेत्र माने जाते हैं। हालांकि शिया और सुन्नी दोनों ही इस्लाम को मानते हैं, फिर भी उनके बीच एक टकराव हमेशा रहा है।

ईरान-इराक के बीच बरसों चली जंग की बुनियाद में भी कहीं न कहीं यह धार्मिक, वैचारिक टकराव था। ‘मोहम्मद: मैसेंजर ऑफ गॉड’ की अगर बात करें, तो शिया समुदाय को इस फिल्म पर कोई एतराज नहीं। फिल्म पर सबसे ज्यादा एतराज सुन्नी समुदाय को है। सुन्नी आबादी बहुल देश ही इसकी सबसे ज्यादा मुखालफत कर रहे हैं। यहां तक कि वे इस फिल्म पर पाबंदी लगाने की बात कर रहे हैं। हमारे देश में भी रहमान और माजिद के खिलाफ फतवा जारी करने वाला संगठन रजा अकादमी, सुन्नी मुसलमानों की ही नुमाइंदगी करता है। लिहाजा शक उठना लाजिमी है कि फिल्म से ज्यादा कहीं यह शिया-सुन्नी के बीच एक जबर्दस्ती का टकराव भर तो नहीं। एक तरफ ‘मोहम्मद: मैसेंजर ऑफ गॉड’ को लेकर अरब मुल्कों में यह टकराव जारी है, तो दूसरी ओर फिल्म के निर्देशक माजिद माजिदी इस विरोध से बेपरवाह हैं। अपनी फिल्म के बारे में उनका कहना है कि ‘‘पश्चिमी देशों में इस्लाम को लेकर भय के बढ़ते वातावरण को देखते हुए, मैंने इस फिल्म को बनाने का फैसला किया। मेरी कोशिश है कि फिल्म के जरिए इस्लाम की उदार छवि दुनिया में जाए। फ्रांसीसी कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो पर हुए हमले के बाद कई लोगों को यह लगता है कि इस्लाम तार्किक बहस में यकीन नहीं रखता। यहां तक कि पश्चिम में इस्लाम की व्याख्या हिंसा और आतंकवाद के रूप में हो रही है।’’ जाहिर है कि अपनी फिल्म के जरिए माजिदी दुनिया की गैर-मुसलिम आबादी को यह पैगाम देना चाहते हैं कि इस्लाम, अमन का मजहब है और इसकी तालीम इंसानियत को बढ़ावा देती है।

फिल्म ‘इनोसेंस ऑफ मुसलिम्स’ के विरोध में पूरी दुनिया में मुसलमानों द्वारा प्रदर्शन और फ्रांस में शार्ली एब्दो के कार्टूनिस्टों पर हमला, जैसी घटनाओं से दीगर धर्मावलंबियों के बीच आज इस्लाम की छवि, हिंसा में यकीन करने वाले एक धर्म की बनी है। ऐसे हालात में लोगों की इस्लाम की जानिब गलतफहमियां तभी दूर होंगी, जब ‘मोहम्मद: मैसेंजर ऑफ गॉड’ जैसी फिल्में और विचार सामने आएंगे। पूरी दुनिया में आज इस्लाम अपनी गलत छवि से जूझ रहा है। इस्लाम और मुसलमानों के प्रति एक धारणा बन गई है कि वे हिंसा और आतंकवाद में यकीन रखते हैं। सहिष्णुता और सद्भाव में उनका कोई यकीन नहीं। सीरिया और इराक में जिस तरह से आइएस के लड़ाके इंसानियत पर कहर ढा रहे हैं, वह इस्लाम और उसके पैगम्बर मोहम्मद साहब की तालीम तो नहीं। बल्कि उनकी शिक्षाओं के खिलाफ है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में जिहाद के नाम पर जो कुछ चल रहा है, इस्लाम की नजर से क्या उसे सही ठहराया जा सकता है?

Comment: