अटल बिहारी वाजपेई , लालकृष्ण आडवाणी और ‘अंग्रेजी ‘ दोस्ती
विनय सीताराम
यदि अटल बिहारी वाजपेयी श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सांचे में ढले वक्ता थे तो एलके आडवाणी कराची की महानगरीय दुनिया के बाशिंदे। दीनदयाल ने आडवाणी की इस खासियत पर गौर किया था और यही वजह थी कि 1957 के चुनावों के बाद आडवाणी को दिल्ली लाया गया। उनका काम दिल्ली के लुटियंस में अंग्रेजी बोलने वाले संभ्रात वर्ग के बीच घुलने-मिलने में नए सांसद अटल बिहारी वाजपेयी की सहायता करना था। यह उनका पहला आपसी संवाद था, जिसने उनके छह दशकों के रिश्ते की नींव रखी। आडवाणी संसद के निकट राजेंद्र प्रसाद मार्ग पर स्थित वाजपेयी के सरकारी बंगले पर रहने आए और नए सांसद के साथ समय बिताने लगे। उनके साथ 22 वर्षीय एनएम घटाटे भी होते थे, जो आरएसएस के अभिजात वर्ग से आते थे। घटाटे के पिता आरएसएस और हिंदू महासभा के अग्रणी थे। संघ परिवार उनके परिवार का बहुत सम्मान करता था। ऐसे में यह स्वाभाविक ही था कि जब 1957 में घटाटे कानून की पढ़ाई के लिए नागपुर से दिल्ली आए तो उन्हें जनसंघ के नए सांसद से मिलने को कहा गया। वाजपेयी और घटाटे उस समय नजदीकी दोस्त बन गए थे, जबकि वाजपेयी और आडवाणी एक दूसरे से परिचित हो रहे थे। बाद में आडवाणी रामलीला मैदान के बीजेपी कार्यालय के पास एक मामूली से कमरे में रहने चले गए, लेकिन वह रोज वाजपेयी से मिलते। आडवाणी भाषणों पर शोध में भी वाजपेयी की सहायता करते रहे। साथ ही जनसंघ की दिल्ली इकाई के साथ काम करते रहे। उन्होंने देखा कि हिंदुओं की पार्टी ने कैसे 1958 में दिल्ली नगर निगम के चुनावों के लिए वामपंथियों के साथ गठबंधन किया था। राजनीति को निश्चित सांचों में देखने के आदी आडवाणी अब दूसरों के साथ तालमेल करना सीख रहे थे। धीरे-धीरे गंभीर आडवाणी पर वाजपेयी की संगति का प्रभाव पड़ने लगा। उस चुनावी हार के बाद वे दोनों राज कपूर और और माला सिन्हा की फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ देखने गए। फिल्म की राजनीतिक विषयवस्तु, साहिर लुधियानवी द्वारा लिखा गया मुख्य गीत नेहरू के भारत के अधूरे वादों की आलोचना करते थे, लेकिन इस बात की संभावना नहीं है कि इसी वजह से उन्होंने इस फिल्म को चुना होगा। संभावना इस बात की अधिक है कि दोनों एक-दूसरे के साथ उस शाम का आनंद ले रहे थे।
‘नेत्र’ ही आडवाणी थे
वाजपेयी के लिए फिल्म मनोरंजन का साधन थी, लेकिन आडवाणी के लिए जुनून थी। 1960 में ऑर्गनाइजर के संपादक केआर मलकानी ने पत्रिका के लिए आडवाणी को कुछ फिल्मों की समीक्षा लिखने को कहा। वह ‘नेत्र’ नाम से हिंदी फिल्मों की समीक्षा करते, लेकिन यहां भी राजनीति पहुंच गई। ‘नेत्र’ ने नेहरू द्वारा ब्रिटिश फिल्म निर्माता रिचर्ड एटनबरो को गांधी के जीवन पर फिल्म बनाने के प्रयासों के लिए प्रोत्साहित किए जाने पर अपनी असहमति जताई। (1982 में आई इस फिल्म को आठ ऑस्कर पुरस्कार मिले थे) नेत्र ने इसे भारतीय फिल्मकारों की उपेक्षा के रूप में देखा। पहली बार आडवाणी को हर महीने 350 रुपये वेतन मिल रहा था। पत्रकारों के कोटे के अंतर्गत आडवाणी को आरके पुरम में एक छोटा घर भी आवंटित हुआ। 13 साल पहले कराची में अपना बंगला छोड़ने के बाद यह आडवाणी का पहला असली ठिकाना था। इंडियन एक्सप्रेस के आर रंगराजन उनके पड़ोसी थे। हर सुबह आडवाणी स्कूटर से झंडेवालान में आरएसएस के मुख्यालय जाते और रंगराजन बहादुर शाह जफर मार्ग तक उनके पीछे बैठकर अपने ऑफिस। रंगराजन के इतिहासकार बेटे महेश रंगराजन बताते हैं कि बाद में जब उनके पिता ने कार खरीद ली तो उनकी भूमिकाएं बदल गईं। आडवाणी अब कुछ दूर तक उनके साथ कार से जाते और फिर झंडेवालान के लिए बस ले लेते। फरवरी 1962 में तीसरे आम चुनाव होने थे। वाजपेयी ने फिर से बलरामपुर से चुनाव लड़ा। उनके सामने कांग्रेस उम्मीदवार और स्वतंत्रता सेनानी सुभद्रा जोशी थीं। नेहरू के भाषणों का असर था कि वाजपेयी चुनाव हार गए। उनका करियर बचाने एक बार फिर दीनदयाल सामने आए। उन्होंने संसद में वाजपेयी की निरंतर उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए उन्हें राज्य सभा का टिकट दिया।
आडवाणी का अध्यक्ष होना
1970 के दशक के प्रारंभ तक आडवाणी और वाजपेयी की जोड़ी अटूट बन चुकी थी। वाक्पटु वाजपेयी को शांत आडवाणी का साथ अच्छा लगता। दोनों साथ में फिल्म देखते और पानी पूरी का मजा लेते। आपसी निजी पसंद के अलावा आडवाणी को तैयार करने में वाजपेयी का राजनीतिक अभिप्राय भी था। उस समय के जनसंघ के एक नेता कहते हैं- ‘वाजपेयी ने आडवाणी को इसलिए चुना क्योंकि वह अच्छी अंग्रेजी बोलते थे। विश्वसनीय थे और उन्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में जाना जाता था, जो कभी लोकसभा चुनाव नहीं जीत सकता था।’ बाद में आडवाणी ने एक सहयोगी को बताया था, ‘मैं राजनैतिक तौर पर कई लोगों से जूनियर था और मैं सार्वजनिक सभाओं का वक्ता भी नहीं था, जो किसी भी जन नेता और पार्टी अध्यक्ष के लिए सबसे बुनियादी आवश्यकता है, लेकिन वाजपेयी ने मुझसे कहा था कि आप उसे हासिल कर लेंगे। राजमाता के मना करने पर आडवाणी पार्टी के अध्यक्ष बन गए। इसकी सार्वजनिक घोषणा फरवरी 1973 में कानपुर में होनी थी। शायद यह पार्टी के लिए सबसे महत्वपूर्ण अधिवेशन था। यह मधोक की समाप्ति और वाजपेयी-आडवाणी के नियंत्रण का आरंभ था। 1973 में 9 से 11 फरवरी के बीच जनसंघ के कानपुर अधिवेशन का आयोजन हुआ। सभी अधिवेशनों की तरह विस्तृत, लेकिन बहुत सादगीपूर्ण व्यवस्था की गई थी। वरिष्ठ नेताओं को भी बाकी नेताओं के साथ शिविर या कमरों में रहना था। जनसंघ के प्रति सहानुभूति रखने वाले स्थानीय व्यापारियों ने यह इंतजाम किया था। मधोक को सत्र में आने के लिए मनाया गया, जिसे बाद में उन्होंने फंसाने की संज्ञा दी थी। बैठक में मधोक ने दावा किया कि उन्हें कहा गया है- ‘मुस्लिम आपको पसंद नहीं करते, आपकी वजह से जनसंघ में नहीं आना चाहते, उन्हें पार्टी में लाने के लिए आपको त्यागपत्र देना होगा।’
(सीतापति की पुस्तक ‘जुगलबंदी, भाजपा मोदी युग से पहले’, हिंदी अनुवाद प्रकाशक हिंद पॉकेट बुक्स से साभार)