क्या अफगानिस्तान को सँभाल सकते है भारत-पाक ?

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डॉ. वेदप्रताप वैदिक

अफगान-फौज में भी खलबली मची हुई है। काबुल में जिसका भी कब्जा होगा, फौज को अपना रंग पलटते देर नहीं लगेगी। ऐसे में काबुल से 13 साल तक राज करने वाले पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति का सारा दोष अमेरिका के सिर मढ़ रहे हैं।

अफगानिस्तान-संकट पर विचार करने के लिए इस सप्ताह में दो बड़ी घटनाएं हो रही हैं। एक तो अफगान-राष्ट्रपति अशरफ गनी का वाशिंगटन-जाकर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से मिलना और दूसरी, ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर अजित दोभाल और उन्हीं के पाकिस्तानी समकक्ष मोईद यूसुफ की भेंट की संभावना ! दुशांबे में शांघाई सहयोग संगठन की बैठक हो रही है। इन दोनों भेंटों का महत्व अफगानिस्तान की सुरक्षा के लिए अत्यधिक है ही, दक्षिण एशिया की शांति और सहयोग के लिए भी है।

अफगानिस्तान से सितंबर में अमेरिकी फौजों की वापसी होगी। इस खबर से ही वहां उथल-पुथल मचनी शुरू हो गई है। लोगों में घबराहट फैल रही है। काबुल, कंधार और हेरात के कई अफगान मित्र फोन करके मुझसे पूछ रहे हैं कि क्या हम लोग सपरिवार रहने के लिए भारत आ जाएं ? उन्हें डर है कि अमेरिकी फौज की वापसी होते ही काबुल पर तालिबान का कब्जा हो जाएगा और उनका वहां जीना हराम हो जाएगा। अभी-अभी तालिबान ने 40 नए जिलों पर कब्जा कर लिया है। लगभग आधे अफगानिस्तान में उनका बोलबाला है। वे ज्यादातर गिलजई पठान हैं। अफगानिस्तान के ताज़िक, उज़बेक, हजारा, शिया और मू-ए-सुर्ख लोग परेशान हैं। उनमें से ज्यादातर गरीब और मेहनतकश लोग हैं। उनके पास इतने साधन नहीं है कि वे विदेशों में जाकर बस सकें।

अफगान-फौज में भी खलबली मची हुई है। काबुल में जिसका भी कब्जा होगा, फौज को अपना रंग पलटते देर नहीं लगेगी। ऐसे में काबुल से 13 साल तक राज करने वाले पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति का सारा दोष अमेरिका के सिर मढ़ रहे हैं जबकि वर्तमान राष्ट्रपति गनी इसीलिए वाशिंगटन गए हैं कि वे अमेरिकी फौजों की वापसी को रुकवा सकें। दुशांबे में भारत-पाक अधिकारी अगर मिले तो उनकी बातचीत का यही सबसे बड़ा मुद्दा होगा। पाकिस्तान अब भी तालिबान की तरफदारी कर रहा है। वह अफगानिस्तान की अराजकता के लिए ‘इस्लामी राज्य’ के आतंकवादियों को जिम्मेदार ठहरा रहा है। उसने अमेरिका को अपने यहां ऐसे सैनिक हवाई अड्डे बनाने से मना कर दिया है, जिनसे अफगानिस्तान में होने वाले तालिबान हमले का मुकाबला किया जा सके।

पाकिस्तान बड़ी दुविधा में है। उसके विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को ‘जरूरत से ज्यादा’ बताया है। यदि वास्तव में ऐसा है तो पाकिस्तान के नेताओं से मैं कहता हूं कि वे हिम्मत करें और अफगानिस्तान में पाकिस्तान और भारत की फौजों को संयुक्त रूप से भेज दें। पाकिस्तान यदि सचमुच आतंकवाद का विरोध करता है तो इससे बढ़िया पहल क्या हो सकती है ? क्या तालिबान अपने संरक्षकों पर हमला करेंगे ? भारत और पाकिस्तान मिलकर वहां निष्पक्ष आम चुनाव करवाएं। जिसे भी अफगान जनता पसंद करे— तालिबान को, मुजाहिदीन को, खल्क-परचम को या गनी, अब्दुल्ला या करजई को— उसे वह चुन ले। यदि भारत-पाक सहयोग अफगानिस्तान में सफल हो जाए तो कश्मीर का मसला चुटकी बजाते-बजाते हल हो जाएगा।

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