क्या यीशु/ जीसस ही एकमात्र उद्धारक है?
ईसाई लोगों की दृढ़ व प्रमुख मान्यता है कि मुक्ति केवल यीशु के माध्यम से ही मिल सकती है और ईसाई धर्मांतरण भी ठीक इसी बात पर आधारित है कि यीशु में विश्वास से सभी पाप धूल जाते है और हमेशा के लिए मुक्ति (salvation) मिल जाती है। इसलिए हिंदुओ व अन्य लोगों, जिसका धर्मांतरण करने की कोशिश की जाती है, के लिए ईसाईयत की इस प्रमुख मान्यता को समझना नितान्त आवश्यक हो जाता है।
ईसाई मत की नींव ही पाप (sin) और उससे उद्धार (Salvation) की विचारधारा है। ईसाई मत (बाईबल) के अनुसार आदम (Adam) और हव्वा (Eve) पहले पुरुष और महिला थे और बाइबिल के अनुसार वे शैतान (Satan) के बहलावे में आकर ईश्वर (God / Yahve / Jehovah) के विरुद्ध हो गए और अदन के बाग (Garden of Eden) में ज्ञान के वृक्ष (tree of knowledge) का फल खाकर पहला पाप (original sin) किया। उस पहले पाप का संक्रमण आदम और एव की आनेवाली सन्तानो (पूरी आदमजात) में हो गया और इसी कारण हम सभी (आदमी) जन्म से ही पापी पैदा होते हैं। (ज्ञान का फल खाने से मनुष्य पापी हो गया! क्यो? क्या ईसाइयों का गॉड नही चाहता था कि आदमी ज्ञानी हो? विचित्र!!) हमारा उद्धार ईश्वर के एक ही बेटे (दि ओन्ली सन ऑफ गॉड), जिसका नाम यीशु /जीसस है, उनके द्वारा होता है। यीशु को ईश्वर ने धरती पर हमारा उद्धार करने के लिए भेजा था। यीशु ने हमें हमारे और आदम और हव्वा के पहले पाप से बचाने के लिए सूली / सलीब /cross पर अपनी जान दी, और उनके खून ने वे पाप धो दिए! (यदि ज्ञान के वृक्ष का फल खाना पाप है, तो पाप एक ने किया; दोषी कोई दूसरा हुआ; और पाप धोने के लिए कोई तीसरा ही भेजा गया !!) अस्तु।
जो यीशू को अपना मुक्तिदाता (saviour) स्वीकार करके ईसाई बनते हैं, उनको तुरंत पापों से बचाने का विश्वास दिलाया जाता है। यीशु पर विश्वास ही पाप से मुक्ति का एक मात्र आधार है, न कि हमारे अपने के कर्म!! ईसाई मत के अनुसार, यीशू को स्वीकार किए बिना आप चाहे कितना ही अच्छा जीवन जिओ या कितने ही अच्छे पुण्य कर्म करो, आप (आदम-ईव का पाप जो आप में संक्रमित हुआ है उनसे) मुक्ति नहीं पा सकते! आपका उद्धार नहीं हो सकता!! जो लोग यीशू को स्वीकार नहीं करते वे हमेशा के लिए अभिशप्त (cursed / damned) हो जाते हैं, चाहे वो कितने ही अच्छे और विवेकशील क्यों ना हों। यीशू को स्वीकार करने या ना करने का निर्णय लेने के लिए हर इंसान को सिर्फ एक ही जीवन मिलता है; इसके बाद यह निर्णय अनंतकाल तक बदला नहीं जा सकता।
यह बाईबल का एक संक्षिप्त वृत्तान्त है। इन शॉर्ट, बिना यीशू के कोई ईसाईयत नहीं और यीशू में विश्वास के अलावा कोई उद्धार नहीं। यीशू में विश्वास के द्वारा उद्धार और स्वर्ग में जगह पाने की धारणा ही ईसाई धर्मपरिवर्तन के प्रयत्नों और ईसाई बनाने के लिए किये जाने वाले ‘बप्तिस्मा’ (baptism) का आधार है।
हमारे यहाँ ईसाई मत की पाप से मुक्ति (salvation) की मान्यता और सनातन धर्म के ‘मोक्ष’ को एक जैसा मानने की एक सतही सोच और बिना प्रश्न किये कुछ भी स्वीकार कर लेने का तरीका चला आ रहा है। यही बात संस्कृत शब्द ‘धर्म’ को आस्था, मत, पंथ, मजहब (religion) के ही बराबर मान लेने की बात के बारे में कही जा सकती है। वैदिक / सनातन / हिन्दू धर्म में पूर्वजों या शैतान के कोई ‘पहला पाप’ की धारणा नहीं है, जिसके लिए हमें प्रायश्चित करना पड़े। ग़लत कर्म और अज्ञानता ही हमारे दुखों का कारण है। यह अज्ञानता सत्य के ज्ञान और एक उच्चतर चेतना के विकास से दूर होती है, न कि सिर्फ आस्था से। हमारी वर्तमान स्थिति हमारे कर्मों के परिणाम स्वरुप हैं और इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। कुछ कर्म स्वाभाविक रूप से गलत होते हैं। ये किसी देवता की आज्ञा पर निर्भर नहीं करते, बल्कि धर्म और प्राकृतिक नियमों को तोड़ने पर निर्भर करते हैं। हमारे यहां उद्धार या आध्यात्मिक बोध ईश्वर के इकलौते पुत्र या अंतिम नबी के रूप में किसी प्रतिनिधि (या बिचौलिये) द्वारा नहीं होता। न यीशु और न ही कोई दूसरी हस्ती आपको आपके कर्मों के फल से बचा सकती है, न आपको सत्य का बोध करवा सकती है। केवल किसी पर विश्वास कर लेने / ईमान लाने या किसी को अपना उद्धारक / अंतिम रसूल मान लेने से व्यक्ति अपने कर्मों और अज्ञानता से परे नहीं जा सकता। यह केवल खयाली पुलाव है। जिस प्रकार कोई दूसरा व्यक्ति आपके बदले खाना नहीं खा सकता या आपके बदले शिक्षित नहीं हो सकता, उसी प्रकार आपको अपने पुण्य कर्मों से, ईश्वर की उपासना से सार्वभौमिक चेतना तक पहुँचने के लिए के स्वयं ही आध्यात्मिक उन्नति करनी होती हैं।
यदि बाइबल के नये करार (New Testament) की प्रथम चार पुस्तके, जिसे सुसमाचार – Gospels कहा जाता है, में वर्णित यीशु को एक ऐतिहासिक व्यक्ति मान कर चले (हालांकि पिछले 200 – 250 वर्षों में पश्चिम के विद्वानों ने यीशु के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिया है), तो हम यीशु के द्वारा दिखाई गयी करुणा का सम्मान कर सकते हैं, लेकिन पाप और उद्धार की ईसाई धारणा सत्य से बहुत दूर है, हास्यास्पद है।
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maine Shrinivas Arya Ji ka lekh padha क्या यीशु/ जीसस ही एकमात्र उद्धारक है? pahli bat to ye hain ki koi kisi ka uddharak nahi ho sakta kyonki har manushya apne hi karmon se jita hain aur na hi kisi uddharak ke adhar ke sath aur ye ekmatra uddharak ki jo concept hain wo Dharma ka bhag nahi lekin mat pantha sampraday majhab ka bhag hain aur vastav me dekha jaye to Isai mat ki neev hi Jhuth, Fareb , Kalpanik Mangantath Kahaniya aur Unscientific Cheeson par adharit hain isliye Isayiyat Puri Europe aur America se gayab ho rahi hain aur Bharat me pair jamane ki koshish me hain lekin Isai mat ye karnne me kabhi saphal nahi hoga aur Mahatvapurnva bat to ye hain ki Yeshu nam ki koi bhi vyakti Itihas me nahi huyi Yeshu ek IMAGINARY AUR FICTITIOUS AUR COMEDY CHARACTER HAIN CHOTE BACCHON KA AUR PEECHLE 200 SE 250 SALON ME PASCHIM KE VIDWANO NE YESHU KE ASTITVA KO NAKARA HAIN YE SIDDHA KARTA HAIN KI YESHU KOI AITIHASIK VYAKTI NAHI THA JO VYAKTI HUA HI NAHI THA USKA SAMMAN KIS LIYE ??? PASCHIM KE VIDWAN YE BAT SAMAZH GAYE LEKIN HUM BHARATIYA ISKO SAMAZHTE NAHI LEKIN SAMAZHNA PADEGA ISLIYE IMAGINARY YESHU KI KARUNA KA HUM SAMMAN NAHI KAR SAKTE AUR ISAIYAT KOI DHARMA NAHI LEKIN EK GALAT MAJHAB HAIN aur HASYASPAD MAJHAB HAIN AUR ISAIYAT BHI BHARAT SE AGALE 20 SALON ME PURI TARAH 100% WIPE OUT HO JAYEGI