लोकतंत्र का चौथा खंभा
चौथा खम्भा
लोकतन्त्र का चौथा खम्भा, कैसे हो?
बिकते हो तुम शेष तीन के जैसे ही।
उन तीनों ने अपने मोल लगाये हैं,
लगा रहे तुम मोल उन्हीं के जैसे ही।।
गिरते जाते हो प्रतिपल बाजारों में,
जनता की आवाज, न सुनते- लिखते हो।
राजभवन के आसपास जड़वत बैठे,
गाँधी जी के बंदर जैसे रहते हो।।
तुम्हें नहीं मतलब गरीब से दलितों से,
छोड़ दिया तुमने दहेज के दानव को।
चूल्हे रोते हैं अदहन बिन, रोने दो,
अपनाते मानव के बदले दानव को।।
तुम्हें खरीदें और पढ़ें, हमनें सोचा,
श्रद्धा से टीवी – चैनल को भी देखे।
बहस कराते हो बैठाकर पैनल को,
धूप-दीप सँग उन पैनल को भी देखे।।
पता चला तुम बिके हुए हो पहले ही,
ले – दे करके संसद में जा बैठे हो।
शेष तीन खम्भों की तरह बजारों में
बिकते हो, बढ़ती कीमत पर ऐंठे हो।।
फिर भी चौथा खम्भा कहलाने को आतुर,
पाखंडी,पापी, दलाल व नीच लुटेरे।
रावण से भी अधिक तुम्हारे हैं चेहरे,
जनता देख चुकी सब हथकंडे- डेरे।।
जाओ जाओ जाओ जाओ, दूर हटो,
लोकतन्त्र को दो कंधा चारों मिलकर।
जनता जागेगी तब तक तो मौज करो,
नवल किशोर, विद्यार्थी बाबू को तजकर।।
डॉ अवधेश कुमार अवध
8787573644