हैदराबाद सत्याग्रह के बलिदानी नन्हू सिंह
29 मई/बलिदान-दिवस
15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों ने भारत को स्वतन्त्र कर दिया; पर इसके साथ ही वे यहाँ की सभी रियासतों, राजे-रजवाड़ों को यह स्वतन्त्रता भी दे गये, कि वे अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में जा सकती हैं। देश की सभी रियासतें भारत में मिल गयीं; पर जूनागढ़ और भाग्यनगर (हैदराबाद) टेढ़ी-तिरछी हो रही थीं। इन दोनों के मुखिया मुसलमान थे। हैदराबाद में यों तो हिन्दुओं की जनसंख्या सर्वाधिक थी, पर पुलिस शत-प्रतिशत मुस्लिम थी। अतः हिन्दुओं का घोर उत्पीड़न होता था। उनकी कहीं सुनवाई नहीं थी।
हैदराबाद के निजाम की इच्छा स्वतन्त्र रहने या फिर पाकिस्तान में मिलने की थी। वह इसके लिए प्रयास कर रहा था। तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार पटेल ने वहाँ पुलिस कार्यवाही कर उसे भारत में मिला लिया; पर इस मिलन से अनेक वर्ष पूर्व 1939 में वहाँ की स्थानीय हिन्दू जनता की रक्षा के लिए आर्यसमाज के नेतृत्व में हैदराबाद आंदोलन किया गया। इस आंदोलन में वीर सावरकर और हिन्दू महासभा ने तथा आर्य समाज का साथ दिया। कांग्रेस और महात्मा गाँधी ने अहिंसात्मक आंदोलन की निंदा की थी। इस आंदोलन में सैकड़ों लोग बलिदान हुए और हजारों ने चोट खाई। इस सत्याग्रह में देश भर से लोग सहभागी हुए।
बुन्देलखंड के निवासी धार्मिक प्रवृत्ति के श्री गणेश सिंह के सुपुत्र नन्हू सिंह अमरावती में मजदूरी कर जीवनयापन करते थे। स्पष्ट है कि उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी; पर जब सत्याग्रह का आह्नान हुआ, तो वे भी अमरावती के नानासाहब भट्ट के साथ इस पथ पर चल दिये। इस काम में उनकी गरीबी बाधा नहीं बनी। वे उस समय 52 वर्ष के थे। उन्होंने भी हैदराबाद जाकर सत्याग्रह किया और गिरफ्तारी दी।
नन्हू सिंह जी को चंचलगुडा जेल में रखा गया। जेल में इन सत्याग्रहियों के साथ पशुओं जैसा व्यवहार किया जाता था। यद्यपि जेल में रहने वालों के लिए सब जगह कुछ नियम हैं; पर हैदराबाद जेल में इन नियमों को कोई नहीं पूछता था। सत्याग्रहियों को गन्दा और स्वादहीन भोजन बहुत कम मात्रा में मिलता था। छोटी सी बात पर मारपीट करना सामान्य सी बात थी।
26 मई, 1939 को नन्हू सिंह जी नहा रहे थे कि वहाँ खड़े मुस्लिम जेलरक्षक ने नल बन्द कर दिया। इस पर दोनों में कहासुनी हो गयी और जेलरक्षक ने लाठी प्रहार से उनका सिर फोड़ दिया। उन्हें जेल के अस्पताल भेजा गया, जहाँ इलाज के अभाव में 29 मई को उनके प्राण पखेरू उड़ गये। उनके शव को एक कपड़े व टाट में लपेट कर एक अँधेरे स्थान पर फंेक दिया गया, जिससे किसी को उनकी मृत्यु का पता न लगे। इसके बाद आधे-अधूरे ढंग से चुपचाप उनके शव को फूँक दिया गया।
सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ने निजाम को कई बार तार भेजे; पर उनका कोई उत्तर नहीं आया। इस पर सत्याग्रह समिति की ओर से श्री हरिश्चन्द्र विद्यार्थी जेल अधिकारियों से मिले, जिन्होेंने उनकी मृत्यु का कारण निमोनिया बताया। काफी प्रयत्न के बाद नन्हू सिंह जी का आधा जला शव मिल सका। उनका धड़ तथा खोपड़ी के टुकड़े अलग-अलग पड़े थे।
अन्ततः ऐसे वीरों का बलिदान रंग लाया। 17 सितम्बर, 1948 को हैदराबाद का भारत में विलय हो गया। यह दुर्भाग्य की बात है कि दो-चार दिन के लिए जेल जाने वालों को शासन ने स्वतन्त्रता सेनानी मान कर अनेक सुविधाएँ दीं; पर इस आन्दोलन के सत्याग्रहियों और बलिदानियों को शासन ने याद भी नहीं किया; क्योंकि यह आन्दोलन कांग्रेस के नेतृत्व में नहीं हुआ था।
(दुनिया का सबसे अमीर आदमी निज़ाम हैदराबाद भारत सरकार के सामने आत्मसमर्पण करने के बाद सरदार पटेल का हैदराबाद में एयरपोर्ट पर अभिनन्दन करते हुए। )